Site icon

ज़िंदगी की नक़ाबें”

ऐ ज़िंदगी, तू हर रोज़ इक नया चेहरा दिखा देती है,
अपनों की भीड़ में अजनबियों-सी हवा बहा देती है।
हर रिश्ते की पोटली में कुछ भ्रम, कुछ धोखे निकले,
हर मुस्कान के पीछे छुपे सौ-सौ रोखे निकले।

कभी जिसको अपना समझा, वही पराया निकला,
दिल के मंदिर में बसा देवता, साया निकला।
तेरे इम्तिहान की हद अब महसूस होती है,
हर सुबह एक नया ज़ख्म महसूस होती है।

कितनी बार और परखेगी, बता ओ ज़िंदगी,
कोई तो हो जो रहे बस सादगी में बंदगी।
क्या हर आंख की नमी को तू पहचान पाएगी?
क्या सबके चेहरे से नक़ाब हटाएगी?

ये चुप सी शामें, ये सिसकती रातें,
हर इंसान के भीतर छुपी हैं सौ सौ बातें।
तू तो सब जानती है, फिर अनजान क्यों बनी है?
अपनेपन की तलाश में तू भी थकी सी लगी है।

बस अब किसी के चेहरे पे मुस्कान रहने दे,
किसी के दिल में एक मकाम रहने दे।
हर बार हर किसी को आज़मा कर थक गई होगी,
अब किसी को तो बेनक़ाब अपना रहने दे, ऐ ज़िंदगी।

 

डॉ. सत्यवान सौरभ

Exit mobile version