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अनगिनत दास्तांओं को समेटे हुए है जनपद बिजनौर का इतिहास!

बिजनौर का इतिहास
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डा. वी.के. सिंह  
बिजनौर अनेक विश्वप्रसिद्ध ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी है। इसने हमारे देश को भारतवर्ष  नाम दिया है, अनेक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिभायें दी हैं। यहां की धरती उर्वरक है। बिजनौर का उत्तरी, उत्तर पूर्वी और उत्तर पश्चिमी भाग महाभारत काल तक सघन वनों से आच्छादित था। इस वन प्रांत में, अनेक ज्ञात और अज्ञात ऋषि-मुनियों के निवास एवं आश्रम हुआ करते थे। सघन वन और गंगा तट होने के कारण, यहां ऋषि-मुनियों ने घोर तप किये, इसीलिए बिजनौर की धरती देवभूमि और तपोभूमि भी कहलाती है। सघन वन तो यहां तीन दशक पूर्व तक देखने को मिले हैं। लेकिन वन माफियाओं से यह देवभूमि-तपोभूमि भी नहीं बच सकी है।
प्रारंभ में इस जनपद का नाम वेन नगर था। राजा वेन के नाम पर इसका नाम वेन नगर पड़ा। बोलचाल की भाषा में आते गए परिवर्तन के कारण कुछ काल के बाद यह नाम विजयनगर हुआ, और अब बिजनौर है। वेन नगर के साक्ष्य आज भी बिजनौर से दो किलोमीटर दूर, दक्षिण-पश्चिम में खेतों में और खंडहरों के रूप में मिलते हैं। तत्कालीन वेन नगर की दीवारें, मूर्तियां एवं खिलौने आज भी यहां मिलते हैं। लगता है, यह नगर थोड़ी ही दूर से गुजरती गंगा की बाढ़ में काल कल्वित हो गया।
अगर यह कहा जाए कि बिजनौर को दुनिया जानती है तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। देश के किसी राज्य में या देश के बाहर बिजनौर का नाम आने पर आपसे प्रश्न किया जा सकता है कि वही बिजनौर जहां का सुल्ताना डाकू था। प्रश्नकर्ता को यह बताकर उसका अतिरिक्त ज्ञान बढ़ाया जा सकता है कि भारतवर्ष को नाम देने वाला भी बिजनौर का ही था। जी हां! हम भरत के बारे में बोल रहे हैं। सुल्ताना भी बिजनौर का ही था, यहां हम उसका जिक्र भी करेंगे। पहले संक्षेप में भरत के बारे में बता दें। भरत बिजनौर के ही थे शकुंतला और राजा दुष्यंत के पुत्र। जो बचपन में शेर के शावकों को पकड़कर उनके दांत गिनने के लिए विख्यात हुए।
संस्कृत के महान कवि कालीदास के प्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम की नायिका शकुंतला बिजनौर की धरती पर ही पैदा हुई थीं। जिनका लालन-पोषण कण्व ऋषि ने किया था। हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत एक बार इस वन प्रांत में आखेट करते हुए पहुंचे और मालिन नदी के किनारे कण्वऋषि के आश्रम के बाहर पुष्प वाटिका में सौंदर्य की प्रतीक शकुंतला से उनका प्रथम प्रणय दर्शन हुआ। इससे उनके विश्वप्रसिद्ध पुत्र भरत पैदा हुए, जिनके नाम पर आज भारत का नाम भारत वर्ष है। कहते हैं कि शकुंतला से प्रणय संबंध स्थापित करने के बाद महाराज दुष्यंत अपनी राजधानी हस्तिनापुर तो लौट गए, किंतु किसी टोटके के प्रभाव में अपनी राजधानी हस्तिनापुर में प्रवेष करते ही यह सारा घटनाक्रम भूल गए। शकुंतला से जो संतान पैदा हुई वह दुष्यंत के पुत्र भरत थे।
कण्वऋषि ने भरत की एक बाह में एक ऐसा रक्षा ताबीज़ बांध दिया था जिसकी विशेषता यह थी कि उसे केवल पिता ही छू सकता है। दुष्यंत ने शकुंतला को निशानी के लिए एक अंगूठी दी थी। कहा जाता है कि महाराज दुष्यंत के लिए टोटका था कि वह बिजनौर वन प्रांत के बाहर जाकर अर्थात अपनी राजधानी की सीमा में प्रवेश करते ही शकुंतला को भूल जाएंगे और वही हुआ। यह सारा घटनाक्रम मालिन नदी के तट और उसके आसपास का माना जाता है। मालिन नदी बिजनौर में ही बहती है। कहते हैं कि शकुंतला की अंगूठी मालिन नदी में गिर गई थी जिसे एक मछली ने निगल लिया था, संयोग हुआ कि वह मछली एक मछुवारे के हाथ लगी, जिसे चीरने पर उसके पेट से वह अंगूठी निकली जो दुष्यंत ने शकुंतला को दी थी। जब वह अंगूठी राजा दुष्यंत के पास पहुंचाई गई तब उन्हें अंगूठी देखकर संपूर्ण दृष्टांत और दृश्य सामने आ गए जो वह एक टोटके के कारण भूले हुए थे। इसके बाद उन्होंने शकुंतला को अपनी पत्नी और भरत को पुत्र के रूप में स्वीकार किया। कहते हैं कि मालिन नदी के तट पर महाकवि कालीदास ने अपने प्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुंतलतम् को विस्तार दिया था।
करीब दस किलोमीटर दूर गंगा के तट पर आध्यात्म और वानप्रस्थ का रमणीक स्थान है, जिसे विदुर कुटी के नाम से जाना जाता है। दुनियां के सर्वाधिक बुद्घिमानों में से एक महात्मा विदुर की यह पावन आश्रम स्थली है। महाभारत और उसके पात्रों का बिजनौर जनपद से गहरा संबंध है। इस जनपद में महाभारत काल की अनेक घटनाओं के साक्ष्य पाए जाते हैं। महाभारत के प्रमुख पात्र और सर्वाधिक बुद्धिमान महात्मा विदुर का नाम कौन नहीं जानता। देश विदेश के लोग विदुर कुटी आते हैं और इस आश्रम में वानप्रस्थी के रूप में अपना समय बिताते हैं। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण भी विदुरजी के आश्रम में आए थे और उन्होंने अपना काफी वक्त उनके साथ बिताया। श्रीकृष्ण ने महात्मा विदुर जी के यहां बथुए का साग खाया था। इसलिए इस संबंध में कहा करते हैं कि दुर्योधन घर मेवा त्यागी, साग विदुर घर खायो। विदुर कुटी पर बारह महीने आज भी बथुवा पैदा होता है।
महाभारत में वीरगति को प्राप्त बहुत सारे सैनिकों की विधवाओं को विदुरजी ने अपने आश्रम के पास बसाया था। वह जगह आज दारानगर के नाम से जानी जाती है। दारा का शाब्दिक अर्थ तो आप जानते ही होंगे-औरत-औरतें। इस संपूर्ण स्थान को लोग दारानगर गंज कहकर पुकारते हैं। यहां पर और भी कई आश्रम हैं जिनका वानप्रस्थियों और तपस्वियों से गहरा संबंध है। कार्तिक पूर्णिमा पर विदुर कुटी को स्पर्श करती हुई गंगा के तट पर मेला भी लगता है। गंगा में स्नान करने के लिए विदुर कुटी पर बड़े-बड़े घाट भी निर्मित हैं। पिछले कुछ वर्षों से गंगा ने विदुर कुटी से काफी दूर बहना शुरू कर दिया है। इसका कारण कुछ मतावलंबी धर्म आध्यात्म में गिरावट से जोड़ते हैं तो इसका दूसरा कारण भौगोलिक अवस्था में उतार-चढ़ाव और गंगा में खनिजों का अनियंत्रित दोहन माना जाता है। गंगा में खनिजों के बेतहाशा दोहन के कारण गंगा अपना परंपरागत मार्ग छोड़ती जा रही है। इसके जल क्षेत्र में घुसपैठ के कारण कृषि और आबादी वाले इलाके हर साल बाढ़ की चपेट में आते हैं। गंगा के विदुर कुटी के तटों वापस नहीं आने से यहां के घाट और उनकी जल आधारित प्राकृतिक छटा अब देखने को नहीं मिलती है।
बिजनौर जनपद में चांदपुर के पास एक गांव है सैंद्वार। महाभारत काल में सैन्यद्वार इसका नाम था। यहां पर भारद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण का आश्रम एवं उनका सैन्य प्रशिक्षण केंद्र हुआ करता था। इस केंद्र के प्रांगण में द्रोण सागर नामक एक पौण्ड भी है। यहां महाभारतकाल के अनेक स्थल एवं नगरों के भूमिगत खण्डहर मौजूद हैं। सन् 1995-96 में चांदपुर के पास राजपुर नामक गांव से गंगेरियन टाइप के नौ चपटे तांबे के कुल्हाड़े और नुकीले शस्त्र पाए गये जिससे स्पष्ट होता है कि यहां ताम्र युग की बस्तियां रही हैं। महाभारत का युद्ध, गंगा के पश्चिम में, कुरुक्षेत्र में हुआ था। हस्तिनापुर, गंगा के पश्चिम तट पर है, और इसके पूर्वी तट पर बिजनौर है। उस समय यह पूरा एक ही क्षेत्र हुआ करता था।
महाभारत काल के राजा मोरध्वज का नगर, मोरध्वज, बिजनौर से करीब 40 किलोमीटर दूर है। गढ़वाल विश्वविद्यालय ने जब खुदाई करायी तो यहां के भवनों में ईटें ईसा से 5 शताब्दी पूर्व की प्राप्त हुईं। यहां पर बहुमूल्य मूर्तियां और धातु का मिलना आज भी जारी है। यहां के खेतों में बड़े-बड़े शिलालेख और किले के अवशेष अभी भी किसानों के हल के फलक से टकराते हैं। आसपास के लोगों ने अपने घरों में अथवा नींव में इसी किले के अवशेषों के पत्थर लगा रखे हैं। गढ़वाल विश्वविद्यालय को खुदाई में जो बहुमूल्य वस्तुएं प्राप्त हुईं वह उसी के पास हैं। यहां पर कुछ माफिया जैसे लोग बहुमूल्य वस्तुओं की तलाश में खुदाई करते रहते हैं और उन्हें धातुएं प्राप्त भी होती हैं। यहां ईसा से दूसरी एवं तीसरी शताब्दी पहले की केसीवधा और बोधिसत्व की मूर्तियां भी मिलीं हैं और ईशा से ही पूर्व, प्रथम एवं दूसरी शताब्दी काल के एक विशाल मंदिर के अवशेष भी मिले हैं। यहां बौद्ध धर्म का एक स्तूप भी कनिंघम को मिल चुका है। कहते हैं कि इस्लामिक साम्राज्यवादियों के निरंतर हमलों की श्रृंखला में यहां भारी तोड़फोड़ हुई।
इन्ही इस्लामिक साम्राज्यवादियों में से एक हमलावर नजीबुद्दौला ने मोरध्वज के विशाल किले को बलपूर्वक तोड़कर अपने बसाये नगर नजीबाबाद के पास, किले की ईटों से अपना एक विशाल किला बनाया। बिजनौर जिला गजेटियर कहता है कि इसमें लगे पत्थर मोरध्वज स्थान से लाकर लगाए गए हैं। मोरध्वज के किले की खुदाई में आज भी मिल रहे बड़े पत्थरों और नजीबुद्दौला के किले में लगे पत्थरों की गुणवत्ता एकरूपता और आकार बिल्कुल एक हैं। पत्थरों को एक दूसरे से जोड़ने के लिए जो हुक इस्तेमाल किए गए थे, वह भी एक समान हैं। इसलिए किसी को भी यह समझने में देर नहीं लगती है कि नजीबुद्दौला ने मोरध्वज के किले को नष्ट करके उसके पत्थरों से अपने नाम पर यह किला बनवाया। सन् 1887 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने इसके अधिकांश भाग को ढहा दिया। इसकी दीवारें बहुत चौड़ी हैं, जो इसके विशाल अस्तित्व की गवाह हैं। नजीबुद्दौला का जो महल था उसमें आज पुलिस थाना नजीबाबाद है। यहां पर नजीबुद्दौला के वंशजों की समाधियां भी हैं। मगर संयोग देखिएगा कि जो किला नजीबुद्दौला ने बनवाया था, आज उसे पूरी दुनिया सुल्ताना डाकू के किले के नाम से जानती है। यदि आप बिजनौर आकर यह जानने की कोशिश करें कि जिले में नजीबुद्दौला का किला कहां है, तो इस प्रश्न का जल्दी से उत्तर नहीं मिल पाएगा और यदि आप ने पूछा कि सुल्ताना डाकू का किला कहां है, तो यह कोई भी बता सकता है कि वह नजीबाबाद के पास है। भला डाकुओं के भी किले होते हैं? मगर आज नजीबुद्दौला का कोई नाम लेने वाला नहीं है।
बिजनौर जनपद में एक ऐतिहासिक कस्बा मंडावर है। इतिहासकार कहते हैं कि पहले इस स्थान का नाम प्रलंभनगर था, जो आगे चलकर मदारवन, मार्देयपुर, मतिपुर, गढ़मांडो, मंदावर और अब मंडावर हो गया। बौद्ध काल में यह एक प्रसिद्ध बौद्ध स्थल था। इतिहासकार कनिंघम का मानना है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग यहां पर करीब 6 माह तक रहा और उसने इस पूरे इलाके का ऐतिहासिक और भौगोलिक अध्ययन किया। अपने यात्रावृत में इस स्थान को मोटोपोलो या मोतीपुर नाम भी दिया गया है। मंडावर के पास बगीची के जंगल में माला देवता के स्थान पर आज भी पुरातत्व महत्व की कीमती प्रतिमाएं खेतों में मिलती हैं। सन् 1130 एड़ी में अरब यात्री इब्नेबतूता मंडावर आया था। अपने सफरनामें में उसने दिल्ली से मंडावर होते हुए अमरोहा जाना लिखा है। सन् 1227 में इल्तुतमिश भी मंडावर आया था और यहां उसने एक विशाल मस्जिद बनवायी जो आज किले की मस्जिद के नाम से प्रसिद्ध है। किला तो अब नहीं रहा पर मस्जिद मौजूद है। यह मस्जिद पुरातत्व महत्व का एक नायाब नमूना है। इसमें इमाम साहब के खड़े होने के स्थान एवं छत में कुरान शरीफ की पवित्र आयतें लिखी हैं। एक लंबा समय बीतने पर भी इसकी लिखावट के रंगों की चमक अभी भी मौजूद है।
ब्रिटिशकाल में महारानी विक्टोरिया को मंडावर के ही मुंशी शहामत अली ने उर्दू का ट्यूशन पढ़ाया था। मुंशी शहामत अली अंग्रेज सरकार के रेजीडेंट थे। महारानी विक्टोरिया ने उन्हें उर्दू पढ़ाने के एवज में मंडावर में इनके लिए जो महल बनवाया था। यह महल पूरी तरह से यूरोपीएन शैली में है और इसमें अत्यंत महंगी लकडि़यां दरवाजें खिड़कियां और फानूस हुआ करते थे। अब सब कुछ ध्वस्त होता जा रहा है। यह संपत्ति अब वक्फबोर्ड के अधीन है। किरतपुर के पास बगीची के जंगलों में जहां तहां विशाल कटे हुए पत्थर देखने को मिलते हैं। यहां पर इतिहास के शोध छात्र भ्रमण करते हैं और यहां के पत्थरों का किसी काल या देशकाल से मिलान करते हैं। देखा जाए तो पूरा बिजनौर जनपद ही इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं से भरा पड़ा है। शोध में संसाधनों और इतिहास में दिलचस्पी में अभाव के कारण इस पर ऐसा काम नहीं हो पाया जिस प्रकार यूरोपीय देशों में काम चल रहा है।
आइए, आपका बिजनौर की एक और अद्भुत सच्चाई से सामना कराते हैं। आप माने या न माने लेकिन यह सच है कि बिजनौर से कुछ दूर जहानाबाद में यहां एक ऐसी मस्जिद थी जिस पर कभी गंगा का पानी आने से इलाहाबाद और बनारस में बाढ़ आने का पता चल जाया करता था। मुगल बादशाह शाहजहां ने यहां की बारह कुंडली खाप के सैयद शुजाद अली को बंगाल की फतह पर प्रसन्न होकर यह जागीर दी थी, जिसका नाम पहले गोर्धनपुर था और अब जहानाबाद है। शुजातअली ने गोर्धनपुर का नाम बदलकर ही जहानाबाद रखा। इन्होंने गंगातट पर पक्का घाट बनवाया और एक ऐसी विशाल मस्जिद तामीर कराई कि कि जिस पर अंकित किए गये निशानों तक गंगा का पानी चढ़ जाने से इलाहाबाद और बनारस में बाढ़ आने का पता चलता था। लगभग सन् 1920 में दुर्भाग्य से आई भयंकर बाढ़ से यह मस्जिद ध्वस्त हो गई जबकि उसकी मीनारों के अवशेष अभी भी यहां पड़े दिखाई देते हैं। यहां एक किला भी था, जो अब खत्म हो गया है। कहते हैं इस किले से दिल्ली तक एक सुरंग थी। यहां से कुछ दूर पुरातत्व महत्व का एक नौ लखा बाग है। वह भी एक किले जैसा। इसमें शुजात अली और उनकी बेगम की सफेद संगमरमर की समाधियां हैं। बांदी और इनके हाथी-घोड़ों की भी समाधियां पास में ही हैं। ये समाधियां पुरातत्व विभाग के अधीन हैं, लेकिन देख-रेख के अभाव में इनकी हालत खस्ता होती जा रही है।
मुगलकाल को याद कीजिए। अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फजल और फैजी चांदपुर के पास बाष्टा कस्बे के पास एक गांव के रहने वाले थे। राज्य की सूचना निदेशालय की एक स्क्रिप्ट के अनुसार बीरबल बिजनौर से ही कुछ दूर कस्बा खारी के रहने वाले थे। हालांकि बीरबल के बारे में इससे ज्यादा कुछ पता नहीं चल सका है। इसी प्रकार गंगा के तट पर बसे कुंदनपुर गांव में एक किला था जो सन् 1979 की बाढ़ में बह गया। कहा जाता है कि यह राजा भीष्मक की राजधानी थी। कहते हैं कि इसी के पास एक मंदिर से श्रीकृष्ण, भीष्मक की पुत्री रूक्मणि को हर कर ले गए थे। यह मंदिर आज भी है। हस्तिनापुर के सामने नागपुर आज भी, नारनौर के नाम से जाना जाता है। यहां सीतामढ़ी नाम का एक विख्यात मंदिर है। इतिहासकार कहते हैं कि पृथ्वी को समतल कर भूमि से अन्न उत्पादन करने की शुरूआत करने वाले रामायण काल के शासक प्रथु के अधीन यह पूरा क्षेत्र था।
बढ़ापुर कस्बे से पांच किलोमीटर पूर्व में जैन धर्म के भगवान पारसनाथ के नाम से एक महत्वपूर्ण स्थान है। जैन धर्मावलंबियों की मान्यता है कि भगवान पारसनाथ यहां कुछ समय रूके थे। यहां पुराने किले के अवशेष हैं और बड़ी-बड़ी ध्वस्त हो चुकीं, जैन प्रतिमाएं और शिलाएं हैं जो जगह-जगह बिखरी पड़ी हैं।
सुल्ताना की नजीबुद्दौला के किले से पहचान की एक सत्य कहानी है। खूंखार, दबंग और अपराधी प्रवृत्ति के लिए बदनाम हुई भातु नामक एक दलित जाति के लोगों के सुधार के नामपर तत्कालीन अंग्रेजी प्रशासन ने इस पत्थरगढ़ के किले को भातुओं के सुधार गृह के रूप में इस्तेमाल किया था। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन देश में जोरों पर चल रहा था और सशस्त्र क्रांति में विश्वास करने वाले स्वतंत्रता के आंदोलनकारियों को भातु जाति के, नवयुवकों का बड़ा सहयोग मिल रहा था। अंग्रेजी प्रशासन की नाक में दम कर देने वाले भातुओं पर नजर रखने के लिए अंग्रेजी प्रशासन ने इनको इस पत्थरगढ़ के किले में निरुद्ध कर दिया। इनमें से सुल्तान नामक एक युवक कुछ युवाओं के एक गुट के साथ विद्रोह करके अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र जंग में कूद पड़ा। इसने अपना एक संगठन बनाया और थोड़े ही समय में अंग्रेजी शासक और उनके पिठ्ठू ज़मीदार सुल्ताना के नाम से थर्राने लगे। अंग्रेजों के पिट्ठू कहे जाने वाले जमींदारों की तो मानों शामत ही आ गई। उस समय के अंग्रेज पुलिस कमिश्नर मिस्टर यंग ने सुल्ताना को पकड़ने के लिए देशभर में जाल बिछाया था। बिजनौर में किलेनुमा थाने भी उसी समय खोले गए थे। लेकिन अंग्रेज पुलिस, सुल्ताना को नहीं पकड़ पा रही थी। कहते हैं कि किसी संत ने सुल्ताना को बोला था, कि जब वह प्रसन्न होकर किसी बच्चे को गोद में उठायेगा तो उसकी मृत्यु निकट होगी। इसीलिए सुल्ताना ने अपनी शादी भी नहीं की थी। जनपद के मिट्ठीबेरी गांव में सुल्ताना ने एक महिला के नवजात बच्चे को गोद में उठाया, तभी उसे संत की बात याद आयी और उसी समय अंग्रेज पुलिस के घेरे में आकर, अपने करीब 150 साथियों के साथ पकड़ा गया। सन् 1927 में सुल्ताना को आगरा की सेंट्रल जेल में उसके 15 साथियों के साथ फांसी दे दी गई। अंग्रेज तो उसको डाकू मानते थे, लेकिन कुछ लोगों का यह मत है कि वह डाकू नहीं बल्कि एक क्रांतिकारी था। उसके पकडे़े जाने को लेकर और भी कुछ श्रुतियां हैं जिनमें एक श्रुति यह भी है कि नजीबाबाद के कुछ मुसलमान जमीदारों पर यकीन करके उनकी मुखबरी पर सुल्ताना पकड़ा गया था। बहरहाल सुल्ताना डाकू के नाम पर रंगमंच पर नाटक भी खेला जाता है, जिसे लोग बड़े चाव से देखते हैं।
बिजनौर में कई छोटी बड़ी रियासतें थीं। इनमें साहनपुर, हल्दौर और ताजपुर बड़ी और प्रसिद्घ रियासतें हैं। जमींदारों का भी यह जिला माना जाता है। रियासतदारों के साथ-साथ जमींदार त्यागी राजपूतों का भी यहां काफी प्रभाव रहा है। साहनुपर स्टेट अकबरकाल की स्टेट है। हल्दौर, सहसपुर, स्योहारा, ताजपुर भी प्राचीन स्टेट हैं। ताजपुर के त्यागी राज परिवार के , दो युवक विदेश गये और वहां से शादी करने पर ईसाई हो गए। उन्होंने विदेश से लौटकर ताजपुर में एक शानदार चर्च बनवाया। यह चर्च देश का दूसरे नंबर का भारतीयों का बनवाया हुआ चर्च है। इसके घंटों की आवाज़ काफी दूर तक सुनाई देती है। शेरशाह शूरी ने शेरकोट बसाया था। साहनपुर में मोटा महादेव शिव मंदिर पुरातत्व महत्व की जगह है। जलीलपुर क्षेत्र के गांव धींवरपुरा में कई एकड़ क्षेत्र में फैला प्राचीन बड़ का पेड़ वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय है। नजीबाबाद से कुछ किलोमीटर दूर जोगिरमपुरी में मुस्लिम संप्रदाय के प्रसिद्घ शिया संत सैयद राजू की मजार है, जहां प्रति वर्ष विशाल उर्स होता है। इसमें ईरान और अन्य देशों के शिया धर्मावलंबियों के साथ ही साथ अन्य धर्म और जातियों के श्रद्घालु भी बड़ी संख्या में पहुंचते हैं।
बिजनौर जनपद ने देश को कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रतिभाएं भी दी हैं, जैसे-प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा आत्माराम बिजनौर के थे।
कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
निराश मनुष्यों को आशावादी बनाने वाली इन पंक्तियों के रचनाकार एवं गज़लकार कवि दुष्यंत बिजनौर के थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान साहित्य एवं पत्रकारिता की मशाल लेकर चलने वाले संपादकाचार्य पं रुद्रदत्त शर्मा, पंडित पदमसिंह शर्मा, फतेहचंद शर्मा आराधक, व्यंग्य लेखक रवीन्द्रनाथ त्यागी, विख्यात चित्रकार हरिपाल त्यागी ,गाँधीवादी राजनेता महावीर त्यागी , मशहूर उर्दू लेखिका कुर्तुल एन हैदर, पत्रकार स्वर्गीय राजेंद्रपाल सिंह कश्यप, प्रसिद्घ संपादक चिंतक बाबू सिंह चौहान, क्रान्तिकारी – स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय शिवचरण सिंह त्यागी ( पैजनियां ) बिजनौर के ही थे। उर्दू के प्रख्यात विद्वान मौलवी नजीर अहमद रेहड़ के रहने वाले थे। इन्होंने उर्दू साहित्य पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। इंडियन पैनलकोड का इन्होंने इंगलिश से उर्दू में अनुवाद भी किया है। सरकार ने उन्हें उनके उर्दू साहित्य की सेवाओं के लिए शमशुल उलेमा की उपाधि दी तथा एडिनवर्ग विश्वविद्यालय ने उन्हें डा ऑफ लॉ की उपाधि दी। वे अंग्रेजों के जमाने के डिप्टी कलेक्टर थे।
देश के प्रसिद्ध समाचार पत्र समूह टाइम्स ऑफ इंडिया के स्वामी एवं जैन समाज के शीर्ष नेता साहू अशोक कुमार जैन, साहू रमेश चंद्र जैन, पत्रकार लेखक डा महावीर अधिकारी, भारतीय हाकी टीम के प्रमुख खिलाड़ी और पूर्व ओलंपियन पद्मश्री झमनलाल शर्मा, भारतीय महिला हाकी टीम की पूर्व कप्तान रजिया जैदी, भूतपूर्व गर्वनर धर्मवीरा, लोकसभा के महासचिव रहे सुभाष कश्यप , फिल्म निर्माता प्रकाश मेहरा बिजनौर की देन हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के समय का उर्दू का प्रसिद्ध तीन दिवसीय समाचार पत्र मदीना बिजनौर से प्रकाशित होता था। उस समय यह समाचार पत्र सर्वाधिक बिक्री वाला एवं लोकप्रिय था।
काकोरीकांड के अमर शहीदों का , प्रसिद्ध क्रान्तिकारी – स्वर्गीय शिवचरण सिंह त्यागी ( मेरे नाना श्री , जिनके संरक्षण में मेरा लालन – पालन / शिक्षा – दीक्षा सम्पन्न हुई ) के गांव पैजनियां से गहरा रिश्ता रहा है। राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी , रोशन सिंह, चंद्रशेखर आजाद, जैसे अमर शहीदों ने शिवचरण सिंह त्यागी के यहां , गांव पैजनियां में अज्ञात वास किया था। स्वर्गीय त्यागी एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने कभी सरकार से न पेंशन ली और न ही कोई अन्य लाभ। पैजनियां गांव को स्वतंत्रता आंदोलनकारियों का तीर्थ भी कहा जाता है। नूरपुर थाने पर 16 अगस्त को स्वतंत्रता आंदोलन का झंडा फहराने वाले दो युवकों को अंग्रेजों ने गोली से उड़ा दिया था। तभी से हर वर्ष उनकी याद में नूरपुर में विशाल शहीद मेला लगता है।
राजनैतिक रूप से भी बिजनौर जनपद देश के मानचित्र पर चमकता रहा है। भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री हाफिज मोहम्मद इब्राहिम, बाबू गोविंद सहाय और चौधरी गिरधारी लाल ने काफी समय तक बिजनौर का प्रभावशाली राजनीतिक नेतृत्व किया है। बिजनौर के विकास में इन राजनेताओं का अभूतपूर्व योगदान रहा है। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के राजनीतिक कैरियर की शुरूआत भी बिजनौर लोकसभा सीट से चुनाव लड़कर हुई। बसपा ने सबसे पहले विधान सभा की बारह विधानसभा सीटों में से 4 सीटें अकेले बिजनौर से जीती थीं। बिजनौर खेती की पैदावार में भी सबसे आगे है। यहां गेहूं गन्ना-धान देसी उड़द प्रमुख उपज है। क्रेशर उद्योग का यहां काफी विस्तार हुआ है, लेकिन अब इसमें मुनाफा नहीं होने से उद्यमियों ने इससे हाथ खींच लिये हैं। फिर भी बिजनौर शुगर उत्पादन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आ रहा है।
तूने यह ,हरसिंगार हिला कर क्या किया ?
पावों की सब , जमीन को फूलों से ढक दिया
में  भी तो अपनी बात , लिखूं अपने हाथ से
मेरे  सफे ,  पर  छोड़  दे  थोड़ा सा हाशिया  ।