संदेह के घेरे में चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली !

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चरण सिंह 
उत्तर प्रदेश के जौनपुर में स्ट्रांग रूम के बाहर से ईवीएम से भरा ट्रक पकड़े जाने के बाद चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली संदेह के घेरे में आ गई है। भले ही इन ईवीएम को एक्ट्रा के रूप में मछलीशहर भेजने जाने की बात की जा रही हो पर जिस तरह से लाखों में ईवीएम गायब हैं तो कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं गड़बड़ तो है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी के धर्म को लेकर दिये गये भाषण पर जब चुनाव आयोग ने इन दोनों नेताओं को नोटिस न भेजकर भाजपा और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष को भेजा तो समझ में आ गया कि चुनाव आयोग प्रधानमंत्री को बचाना चाहता है। मतदान का डेटा जारी न करने पर अड़े चुनाव आयोग ने आखिरकार शनिवार को पांचवें चरण तक का डेटा जारी तो कर दिया पर छठे चरण का डेटा अभी तक जारी नहीं किया गया है। बड़े स्तर पर ईवीएम के गायब होने का जवाब चुनाव आयोग नहीं दे पा रहा है।
दरअसल मुख्य चुनाव आयुक्त को प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश चुनते थे जो अब भाजपा ने ऐसी व्यवस्था कर दी है कि मुख्य चुनाव आयुक्त अब प्रधानमंत्री गृहमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता चुनते हैं। स्वाभाविक है कि इस व्यवस्था में मुख्य चुनाव आयुक्त केंद्र सरकार की जेब का ही होगा। क्योंकि चुनाव आयुक्त को सरकार चुनेगी तो स्वाभाविक है कि सरकार के इशारे पर ही वह काम करेंगे। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार को चुना था तब विपक्ष की समझ में नहीं आया था कि चुनाव आयुक्त सरकार के लिए काम करेंगे। जब लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने मीटिंग का बायकॉट कर दिया था तो इस मुद्दे पर विपक्ष को आंदोलन नहीं करना चाहिए था।
कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव जयराम रमेश ने दावा किया है कि छठे चरण तक इंडिया की २७२ सीटें आ चुकी हैं और सातवें चरण के बाद उनकी सीटें साढ़े तीन सौ होंगी। ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि यदि इंडिया गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में है तो फिर ईवीएम और चुनाव आयुक्त को संदेह के घेरे में लाने का क्या मतलब ? और विश्वास नहीं तो फिर विपक्ष सड़कों पर क्यों नहीं उतर रहा है ? इसमें दो राय नहीं कि विपक्ष की कमजोरी का फायदा ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह उठा रहे हैं। नहीं तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और रालोद के नेता जयंत चौधरी एनडीए में जाने न देते। हां यह तो जरूर कहना पड़ेगा कि इस बार जनता नरेन्द्र से लड़ रही है। बेरोजगारी, महंगाई को लेकर जनता में बीजेपी से नाराजगी है। यह नाराजगी वोट बैंक के रूप में विपक्ष को मजबूत हो कर रही है। अब देखना यह है कि विपक्ष इस नाराजगी को कितना भुना पाता है।
हालांकि विपक्ष को चुनाव आयोग की चुप्पी को मुद्दा बनाकर सड़कों पर उतरना चाहिए। दिल्ली में जिस तरह से आप और कांग्रेस मिलकर लड़े हैं। उत्तर प्रदेश में जिस तरह से कांग्रेस और सपा मिलकर लड़े हैं। महाराष्ट्र में जिस तरह से एनसीपी, कांग्रेस और शिवसेना उद्धव गुट मिलकर लड़े हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान में जिस तरह से फाइट है। झारखंड में जिस तरह से बीजेपी चुनाव लूज कर रही है। तमिलनाडु में जिस रह से एकतरफा डीएमके और कांग्रेस जीत रही है। ऐसे में कहा जा सकता है कि चुनाव इंडिया गठबंधन के पक्ष में है। अब देखना यह होगा कि ऊंट किस करवट बैठता है।

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