संभल हिंसा को लोकसभा में चर्चा के दौरान सपा मुखिया अखिलेश यादव ने बीजेपी की सोची समझी साजिश करार दिया है। बीजेपी के नेता मस्जिद की ओर से किये गये पथराव को एक सोची समझी साजिश मानकर चल रहे हैं। मतलब साजिश तो हुई है पर किसने की यह कोई मानने को तैयार नहीं। क्या पत्थरबाज अचानक आ गये थे ? क्या पत्थरबाजों पर फायरिंग मजबूरी में की गई थी ? क्या विवाद को जन्म दे रहे नेता इन मस्जिदों में नमाज अदा करने जा रहे हैं? क्या ये नेता मंदिरों में पूजा करने जा रहे हैं ? क्या इन नेताओं को नमाज अदा करने वालों या पूजा करने वालों के प्रति कोई सहानुभूति है ? यदि मंदिर और मस्जिद मानने वाले लोगों का वोट इन नेताओं को न मिले तो इनकी ओर देखे भी न। कहने को तो हर दल जाति और धर्म की राजनीति का विरोध करता दिखाई देगा पर जाति और धर्म की राजनीति के अलावा ये कर भी कुछ नहीं रहे हैं। लंबे समय से सड़क और संसद में सब कुछ हो रहा है पर युवाओं के भविष्य की चिंता किसी को नहीं। आज के युवा कल का भविष्य बताये जाते हैं पर आज के युवाओं को इस व्यवस्था ने मानसिक रोगी बना दिया है।
अखिलेश यादव ने संभल हिंसा में मरे लोगों को पांच पांच लाख रुपये देने की घोषणा कर दी पर हाथरस में एक बाबा के कार्यक्रम में मची भगदड़ में १२२ लोगों के मरने पर अखिलेश चिंतित नहीं हुए थे। बाबा की गिरफ्तारी करने के बजाय उसका बचाव कर रहे थे, जबकि मरने वाले लोगों में अधिकतर दलित थे। तब उन्हें पीडीए की चिंता नहीं हुई। क्योंकि मुसलमान सपा का वोटबैंक है तो अखिलेश सब कुछ करेंगे। ऐसी स्थिति बीजेपी की भी है। उसे भी किसी न किसी तरह से हिन्दू-मुस्लिम माहौल बनाये रखना है। बीजेपी के मातृ संगठन आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत तो कहते हैं कि हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग न तलाशा जाए पर बीजेपी और उनके समर्थकों को लग रहा है कि अब इसके अलावा कुछ काम नहीं रह गया है। अब ता हर मस्जिद के नीचे मंदिर ही तलाशा जाएगा। मतलब मस्जिद के नीचे मंदिर बनेे होने की बात को तूल देकर हिन्दुओं को एकजुट कर उनका वोट हासिल करते रहो बस। किसी के किसी भी तरह के नुकसान पर ये नेता कुछ नहीं बोलेंगे। जहां इनका वोटबैंक प्रभावित हो रहा है वहीं डट जाना है बस। मीडिया को भी ये लोग काम दे दे रहे हैं।
दरअसल बीजेपी को समझ में आ रहा है कि हिन्दुओं को हिन्दुत्व की घुट्टी पिलाते रहो और राज करते रहो। लोग भी हैं कि राजनीतिक दलों के लिए इस्तेमाल हो रहे हैं। किसी जाति और धर्म को सत्ता पक्ष इस्तेमाल कर रहा है तो किसी को विपक्ष। न तो सत्ता पक्ष से लोग हक की लड़ाई लड़ पा रहे हैं और न ही विपक्ष से। लोग इन नेताओं से पूछने को तैयार नहीं कि रोजगार कहां है ? क्या मंदिर बन जाने से उन्हें रोजगार मिल जाएगा ? क्या बीजेपी अपने राज में इन मंदिरों को बनवा देगी ? जब राम मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद सैकड़ों साल चला तो भला काशी, मथुरा, संभल और बदायूं जैसे विवाद कैसे जल्द हल हो जाएंगे ? मतलब मंदिर-मस्जिद का मुद्दा सुलगता रहे और बीजेपी को वोट मिलता रहे बस। ऐसे ही मुस्लिमों डराये जाते रहें और विपक्ष को उनका वोट मिलता रहे।
विपक्ष भी जातीय आंकड़ों तक ही सिमट कर रह जा रहा है। क्षेत्रीय दलों से कोई कार्यकर्ता यह पूछने वाला नहीं है कि इनका राष्ट्रीय अध्यक्ष एक ही परिवार का क्यों रहेगा ? बड़े पद और टिकट इनके परिवार के पास ही क्यों रहेंगे ? राजनीतिक दलों के नेताओं से यह पूछने को तैयार नहीं कि उनके लिए कौन सा संगठन लड़ रहा है ? कौन सड़कों पर उनकी समस्याएं उठा रहा है ? कौन उनके बच्चों को रोजगार दिलवा रहा है ? करना कुछ नहीं है पर वोट चाहिए। जब किस सम्मान और ओहदे की बात आएगी तो अपना परिवार याद आएगा। जब संघर्ष की बात आएगी तो ये लोग कहीं नहीं दिखाई देंगे।
मंदिर-मस्जिद तो बहाना है बस अपनी दुकान चलाना है!
चरण सिंह