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  • विभीषिका : रॉकेट, गोलाबारी और दर्दनाक चीखें!

    विभीषिका : रॉकेट, गोलाबारी और दर्दनाक चीखें!

    डॉ. कल्पना ‘नवग्रह’

    रॉकेट, गोलाबारी और दर्दनाक चीखें। क़ब्रिस्तान में लाशें और कतारें।  कहां से आती है फ़ितरत में नापाक साजिश ? धुआं- धुआं हर तरफ़ है। धुआं है और सांसें घुट रही हैं। युद्ध किसी GV के लिए मीठे एहसास छोड़ता । डर -दहशत साथ छोड़ जाता है। दीवारों-खिड़कियों को तोड़ता, सरहदें पार करता, कमरों से सीधे घरों की तबाही। सब कुछ राख कर देता है। अवशेष में बस रह जाते हैं धुंधली यादें, जले हुए सामान, ज़मींदोज़ हुई छत। नीले आसमान पर चढ़ी काली परत, चारों ओर अंधेरा, ना सुझाई देने वाला गहरा घना काला रास्ता,ग़ुम होती उम्मीदों की रोशनी। बस  रह जाती है तन्हाई, एकाकीपन और सदमे की टीस।
    युद्ध से भयावह कोई बीमारी नहीं। युद्ध में इस्तेमाल तमाम रासायनिक पदार्थ अपने ज्वलनशीलता की आंच में वर्षों तक इंसानियत को जलाते रहेंगे। मानवता चीखती-चिल्लाती रहेगी । देश कोई भी हो आम नागरिक का अपराध बस इतना है कि वह उस देश का निवासी है। उसे अपनी चिता ख़ुद जलानी है और जलते जाना है । जलते हुए ख़ुद को देखना और उसकी तड़प को महसूस करना है । उसकी आह की परवाह किसी को नहीं। युद्ध की विभीषिका और उसका अंतहीन परिणाम।
    आकाश को चीरती आतिशबाज़ी आग उगलती हुई लपटों का भरा समंदर है । आग की लपटें सबको झुलसाती जाती हैं इस सीमा से उस सीमा तक। धरती, समुद्र, आकाश सबको अपनी प्रलयंकारी आवाज़ों से थरथरा देने वाली, कंपकपा देने वाली गर्जनाएं। तोपों से निकलते वाले गोले, चीथड़े उड़ा देने के लिए, रौद्र रूप लिए सबकी इहलीला समाप्त  कर रहे हैं।
    नवजात, मासूम, नन्हीं जानों के  थिरकने, उड़ने, तितलियों के परों पर आसमानी ख़्वाबों को सजाने के पल क्षण में ही टूट कर बिखर गए। माता-पिता ख़ुद असहाय- बेबस से, हालातों के वशीभूत , सब कुछ गंवाने को तैयार ,आने वाले समय की बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। माएं न जाने कितने आशीषों से बच्चों की सारी बलाएं हर लेना चाहती हैं। पर कहां इन सारी नाज़ुकता -कोमलता -भावनाओं- संवेदनाओं की पूछ और कदर है। इनके मर्म को आज मरहम नहीं मिलेगा। नश्तर- ख़ंजर से सीना छलनी कर दिया जाएगा। बेगुनाह गुनहगार साबित होंगे , बेमौत मारे जाएंगे, युद्ध कहां दरियादिली दिखाएगा । मशीनें बस निर्देश जानती हैं। रिश्ते, बंधन, दिल के जज़्बात नहीं पढ़ कोई भी हो, चाल किसी ने चली हो, चौरस बिछ जाने पर प्यादे ही मोहरे बन जाते हैं।  शह और मात की परंपरा जारी है। पर चाल तो पैदल की ही चलेगा उसकी ही बिछी बिसात पर दांव लगाई जाएगी। नहीं है कोई दर्द न दवा है। बस ज़ुल्म की बेड़ियां हर पल दस्तक दे रही हैं। मानवता की नृशंस हत्या करते, युद्ध में कोई शर्मिंदगी नहीं।  यह क्रम चलता रहेगा ख़ुद को क़ाबिज़ करने के लिए। विकास की अंधी दौड़ में न जाने कितने ऐसे यंत्र बनते जाएंगे जो इंसानियत को ख़त्म करके ग