अनिल जैन
मधु लिमये….ऐसे समय में जब आज संसद नाकारा और सरकार आवारा होकर पूरी तरह जनद्रोही हो चुकी है तो मधु लिमये बहुत याद आते हैं। स्वाधीनता सेनानी, गोवा मुक्ति आंदोलन के योद्धा, भारतीय समाजवादी आंदोलन के चमकदार नायक, प्रखर संसदविद और नैतिकता के प्रतीक पुरुष मधु लिमये का आज 27वां निर्वाण दिवस है।
मधु लिमये का जन्म 1 मई, 1922 को महाराष्ट्र के पूना में हुआ था। अपनी स्कूली शिक्षा के बाद मधु लिमये ने 1937 में पूना के फर्ग्युसन कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए दाखिला लिया और तभी से उन्होंने छात्र आंदोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया। इसके बाद मधु लिमये एसएम जोशी, एनजी गोरे वगैरह के संपर्क में आए और अपने समकालीनों के साथ राष्ट्रीय आंदोलन और समाजवादी विचारधारा के प्रति आकर्षित हुए।
वे समाजवादी आंदोलन में जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया के करीबी सहयोगी रहे। एक प्रबुद्ध समाजवादी नेता के रूप में उन्होंने 1948 से लेकर 1982 तक विभिन्न चरणों में और अलग-अलग भूमिकाओं में समाजवादी आंदोलन का नेतृत्व और मार्गदर्शन किया।
मधु लिमये एक महान संसदविद् ही नहीं बल्कि चिंतक, विद्वान लेखक और भारतीय शास्त्रीय संगीत के दीवाने भी थे। इस सबके अलावा उनके व्यक्तित्व की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी- ईमानदारी और नैतिक मूल्यों में गहरी आस्था। यह विशेषता उन्हें अपने समकालीन राजनेताओं की जमात से एकदम अलग, विशिष्ट और बहुत ऊंचे स्थान पर खड़ा करती थी।
मधु लिमये के संसदीय कौशल का आलम यह था कि जब वे दस्तावेजों का पुलिंदा और किताबों का गट्ठर लेकर सदन में प्रवेश करते थे तो सरकारी बैंचों पर बैठे लोगों के चेहरों पर यह सोच कर हवाइयां उड़ने लगती थीं कि पता नहीं आज किसकी शामत आने वाली है। संसदीय परंपराओं और नियमों का उनका ज्ञान भी इतना जबरदस्त था कि कई बार वे स्पीकर या उसकी आसंदी पर बैठे अन्य पीठासीन अध्यक्ष को भी अपनी दलीलों से लाजवाब कर देते थे।
मधु लिमये को अगर संसदीय नियमों और परंपराओं के ज्ञान का चैंपियन कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। लोकसभा में उनके समय सोशलिस्ट पार्टी को कुल 7-8 सदस्य ही होते थे लेकिन इसके बावजूद वे अपने संसदीय कौशल से भारी-भरकम बहुमत वाली सरकार पर बहुत भारी पड़ते थे।
इस सिलसिले में साठ के दशक एक वाकया बेहद दिलचस्प और उल्लेखनीय है। उस समय वित्त मंत्रालय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पास ही था और उन्होंने लोकसभा में बजट पेश किया था जो वस्तुत: लेखानुदान था। उनका भाषण खत्म होते ही मधु लिमये ने व्यवस्था का प्रश्न उठाना चाहा, लेकिन स्पीकर ने अनुमति नहीं दी और सदन कार्यवाही को अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दिया।
मधु लिमये झल्लाते हुए स्पीकर के चैम्बर में गए और कहा, ”आज बहुत बड़ा अनर्थ हो गया है। आप आज की सारी प्रोसिडिंग मंगवा कर देखिए। मनी बिल तो पेश ही किया गया है और अगर मनी बिल पारित नहीं हुआ तो आज रात 12 बजे के बाद सरकार का सारा काम रूक जाएगा और कोई भी सरकारी महकमा एक भी पैसा खर्च नहीं कर पाएगा।’’
मधु लिमये की यह बात सुनकर स्पीकर भी हैरान रह गए। उन्होंने सारी प्रोसिडिंग्स मंगवा कर देखी तो पता चला कि मनी बिल तो वाकई पेश ही नहीं हुआ। वे घबरा गए, क्योंकि सदन तो स्थगित हो चुका था। उन्होंने मधु लिमये से ही पूछा कि अब क्या किया जा सकता है?
मधु लिमये ने कहा, ”यह अब भी पेश हो सकता है। आप तत्काल विपक्षी दलों के नेताओं की बैठक बुला कर उन्हें विश्वास में लें और रात में ही सदन की बैठक बुलवाएं।’’ स्पीकर ने ऐसा ही किया और उसी समय रेडियो पर घोषणा करवाई गई कि संसद की आपात बैठक बुलाई गई है, जो सदस्य जहां भी है, तुरंत संसद भवन पहुंच जाए। इस तरह रात में संसद की बैठक हुई मनी बिल पारित हो सका।
नैतिकता के प्रति मधु लिमये का आग्रह कितना प्रबल था, इसे एक ही उदाहरण से समझा जा सकता है। बात आपातकाल के दौर की है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1976 में संविधान संशोधन के जरिए लोकसभा का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया था। उस समय मधु लिमये भी सोशलिस्ट पार्टी से लोकसभा के सदस्य थे और जेल में बंद थे।
जयप्रकाश नारायण (जेपी) मुंबई के जसलोक अस्पताल में अपना इलाज करा रहे थे। उन्होंने अस्पताल के बिस्तर से ही विपक्षी दलों के सभी लोकसभा सदस्यों के नाम एक अपील जारी कर इंदिरा सरकार के इस अनैतिक और अलोकतांत्रिक फैसले के विरोधस्वरूप लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने का अनुरोध किया।
जेपी की इस अपील पर मधु लिमये ने बगैर कोई देरी किए मध्य प्रदेश की नरसिंहगढ़ जेल से अपना इस्तीफा लोकसभा स्पीकर को भेज दिया। उनका अनुसरण करते हुए इंदौर जेल में बंद शरद यादव ने भी अपना इस्तीफा स्पीकर के पास पहुंचा दिया। उस समय शरद यादव को लोकसभा में आए महज 16 महीने ही हुए थे। वे मध्य प्रदेश के जबलपुर से उपचुनाव में जेपी के जनता उम्मीदवार के तौर पर जीत कर लोकसभा में पहुंचे थे। पूरे विपक्ष में महज ये दो सांसद मधु लिमये और शरद यादव ही इस्तीफा देने वाले रहे।
उस समय लोकसभा में जनसंघ (आज की भाजपा) की नैतिकता के शीर्ष पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी सहित जनसंघ के 22 सदस्य थे, लेकिन उनमें से किसी ने भी इस्तीफा नहीं दिया था। यानी वे सभी अनैतिक तरीके से बढ़ाई गई लोकसभा की अवधि के दौरान भी सांसद बने रहे और वेतन-भत्ते तथा अन्य सुविधाएं लेते रहे।
वाजपेयी उस समय इलाज के लिए पैरोल पर जेल से बाहर थे (वैसे भी 19 महीने के आपातकाल के शुरुआती दौर में कुछ ही दिनों के लिए जेल गए थे और बाकी पूरा समय इलाज के बहाने जेल से बाहर रहे थे। खैर, यह एक अलग ही कहानी है)। वाजपेयी ने दलीय अनुशासन से बंधे होने की दुहाई देते हुए इस्तीफा देने से इनकार कर दिया था।
मधु लिमये ने सिर्फU लोकसभा की सदस्यता से ही इस्तीफा नहीं दिया, बल्कि कई मौकों पर उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता भी ठुकराई। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई चाहते थे कि मधु लिमये भी सरकार में शामिल हों लेकिन मधु लिमये ने मंत्री बनने के बजाय संगठन में बने रहने को प्राथमिकता दी।
यही नहीं, उन्होंने स्वाधीनता सेनानियों और पूर्व सांसद को मिलने वाली पेंशन भी कभी नहीं ली। मधु लिमये का स्पष्ट मानना था कि सांसदों और विधायकों को पेंशन नहीं मिलनी चाहिए। उन्होंने न सिर्फ स्वाधीनता सेनानी और सांसद की पेंशन नहीं ली, बल्कि अपनी पत्नी चम्पा लिमये को भी कह दिया था कि उनकी मृत्यु के बाद वे पेंशन के रूप में एक भी पैसा न लें।
हालांकि वे ऐसा नहीं कहते तो भी उनकी मृत्यु के बाद चम्पा जी पेंशन स्वीकार नहीं करतीं, क्योंकि वे भी अपने पति की तरह ही सादगी और समता के मूल्यों को जीने वाली महिला थीं। वैसे भी चम्पा जी प्राध्यापिका होने के नाते आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थीं और मधु जी को परिवार की आर्थिक चिंता से मुक्त रखने में उनका भी बड़ा योगदान था।
सक्रिय और संसदीय राजनीति से निवृत्त होने के बाद वे अपनी किताबों की रायल्टी और अखबारी लेखन से मिलने वाले मानदेय से ही अपना रोजमर्रा का खर्च चलाते थे। उनकी सादगी का आलम यह था कि उनके घर में न तो फ़्रिज था, न एसी और न ही कूलर। कार भी नहीं थी उनके पास। हमेशा ऑटो या बस से चला करते थे।
भीषण गरमी में कूलर या एयरकंडीशनर की जगह पंखे से निकलती गरम हवा में सोना या खुद चाय, कॉफ़ी या खिचड़ी बनाना न तो उनकी मजबूरी थी और न ही नियति। यह उनकी पसंद थी। उनके लिए संक्षिप्त में यही कहा जा सकता है कि अधिकतम दिया, न्यूनतम लिया, मधु लिमये सा कौन जिया!
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अधिकतम दिया, न्यूनतम लिया, मधु लिमये सा कौन जिया!
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सलमान खुर्शीद की किताब पर क्यों बरपा है हिंदुत्व का हंगामा?
अनिल जैन
कुछ महीनों बाद उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव होना है, जिसे लेकर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से अयोध्या, मथुरा और काशी के साथ ही जिन्नाह, तालिबान, पाकिस्तान आदि के नाम पर माहौल गरमाने का खेल पहले ही शुरू हो चुका है। इसी कड़ी में अब कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद और हाल ही में जारी हुई उनकी किताब ‘सनराइज ओवर अयोध्या’ (Sunrise Over Ayodhya-Nationhood In Our Time) को भी शामिल कर लिया गया है। भाजपा अमूमन हर चुनाव ऐसे ही मुद्दों पर लड़ती है और फिर उत्तर प्रदेश में तो इस बार माहौल उसके बेहद खिलाफ है। ऐसे में उसने अपने ढिंढोरची मीडिया के जरिए इन्हीं सब मुद्दों को गरमा रखा है। अगर वह ऐसा नहीं करती है तो फिर उसे महंगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, किसान और बढते अपराध जैसे मुद्दों पर बात करनी होगी, जो उसे बहुत भारी पड़ेगी।
हालांकि यह किताब बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्मभूमि विवाद और उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर केंद्रित है और इसमें फैसले को देश के मौजूदा हालात के मद्देनजर उचित बताया गया है। सलमान खुर्शीद ने 364 पेज की किताब में विभिन्न धर्मों और खासकर हिंदू याकि सनातन धर्म के बारे में भी चर्चा करते हुए उसकी विशेषताओं का उल्लेख किया है। यानी उन्होंने काफी अध्ययन और शोध के बाद यह किताब लिखी है। अंदाजा तो यह था कि इस किताब के आने के बाद वे लोग और वे राजनीतिक दल इस किताब के लिए और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को महिमामंडित करने के लिए सलमान खुर्शीद की आलोचना करेंगे, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के भी आलोचक रहे हैं। लेकिन हो बिल्कुल उलटा रहा है। फैसले के आलोचक तो कुछ नहीं कह रहे हैं लेकिन फैसले पर जश्न मनाने वाली राजनीतिक जमात ने अपने खास अंदाज में सलमान खुर्शीद को निशाने पर ले लिया है।
किताब के ‘द सैफ्रन स्काई’ (The Saffron Sky) नामक अध्याय में हिंदू धर्म की प्राचीनता और उसकी विशेषताओं का जिक्र करते हुए सलमान खुर्शीद ने लिखा है कि हिंदुत्व की विचारधारा इस धर्म के मूल स्वरूप को नष्ट कर रही है और इस विचारधारा के राजनीतिक संगठन बोको हरम और आईएसआईएस जैसे आतंकवादी जमातों की तरह काम कर रहे हैं। बस इसी एक वाक्य को लेकर भाजपा और उसके बगल बच्चा संगठनों ने हंगामा शुरू कर दिया है। दरअसल उन्हें सलमान खुर्शीद के रूप में एक मनचाहा टारगेट मिल गया है- एक तो कांग्रेसी और वह भी मुसलमान। और क्या चाहिए?
भाजपा नेताओं के सुर में सुर मिलाते हुए कांग्रेस के कुछ लिजलिजे नेता भी अपने-अपने कारणों से हिंदुत्ववादी बिग्रेड के सुर में सुर मिलाते हुए सलमान खुर्शीद लानत-मलामत कर रहे हैं। हालांकि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने वर्धा में अपनी पार्टी के एक कार्यक्रम में सलमान खुर्शीद की किताब का जिक्र किए बगैर कहा कि हिंदू और हिंदुत्व दोनों अलग-अलग है। हिंदू धर्म किसी दूसरे धर्म के लोगों को सताने की बात नहीं करता है, लेकिन हिंदुत्व यही काम करता है।
भाजपा यानी हिंदुत्ववादी ब्रिगेड ने हमेशा की तरह हिंदू धर्म के साथ हिंदुत्व को गड्डमड्ड करते हुए और अपने को पूरे हिंदू समाज का ठेकेदार मानते हुए राहुल गांधी और खासकर सलमान खुर्शीद के खिलाफ लगभग वैसे ही तेवर अपना लिए हैं, जैसे एक समय सलमान रश्दी के खिलाफ उनकी किताब सैटेनिक वर्सेज को लेकर दुनिया भर के कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों ने अपना लिए थे। नैनीताल में उनके घर में आग लगा दी गई है। फर्क इतना ही है कि अभी तक किसी ने सलमान खुर्शीद के सिर पर कोई इनाम घोषित नहीं किया है या उन्हें फांसी देने की मांग नहीं की है। दिल्ली सहित कई शहरों में सलमान खुर्शीद के खिलाफ मुकदमे जरूर दर्ज करा दिए गए हैं।
सवाल है कि सलमान खुर्शीद का आईएसआईएस और बोको हरम से हिंदुत्व की तुलना करना क्या वाकई गलत है? क्या हिंदू धर्म का पर्याय या समानार्थी है हिंदुत्व? यदि वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, गीता आदि तमाम प्राचीन धर्मग्रंथों को देखें तो उनमें हिंदुत्व शब्द और यहां तक कि हिंदू शब्द का जिक्र भी नहीं मिलता है। बीसवीं सदी के सबसे बडे हिंदू संन्यासी और वैदिक या सनतान धर्म के निर्विवाद व्याख्याकार विवेकानंद ने भी कभी हिंदुत्व शब्द का इस्तेमाल नहीं किया।
दरअसल यह एक स्थापित तथ्य है कि हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है, जिसका प्रतिपादन विनायक दामोदर सावरकर ने 1923 में किया था और बताया था कि हिंदू कौन है। गौरतलब है कि सावरकर पूरी तरह नास्तिक थे, लिहाजा उन्होंने खुद स्पष्ट किया था कि हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है और इसका हिंदू धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने हिंदुत्व नामक अपनी पुस्तक में कहा था कि जिनकी पितृभूमि और पुण्यभूमि सप्त सिंधु यानी हिंदुस्तान में हो, वही हिंदू है और हिंदू राष्ट्र में रहने का अधिकारी है।
सावरकर ने अपनी इसी विचारधारा के आधार पर 1937 में हिंदू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन मे औपचारिक तौर पर द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत पेश किया था और कहा था कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र हैं जो कभी साथ नहीं रह सकते। मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट को हिंदुत्व का दुश्मन मानते सावरकर का लक्ष्य हिंदुओं का सैन्यीकरण करना था। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि आरएसएस आज भले ही सावरकर को अपना मानता हो, मगर सावरकर ने आरएसएस को कभी अपना नहीं माना। गोहत्या, धार्मिक कर्मकांड और जातिगत छूआछूत को लेकर आरएसएस से उनके गंभीर मतभेद थे।
जो भी हो, कुल मिलाकर स्वतंत्र भारत या राष्ट्रीय आंदोलन का विचार सावरकर की हिंदुत्व की अवधारणा को पूरी तरह खारिज करता है। महात्मा गांधी से लेकर नेहरू, सरदार पटेल, आंबेडकर और लोहिया तक ने हिंदू राष्ट्र के विचार को खारिज ही नहीं किया बल्कि इसकी तीखी आलोचना भी की। राष्ट्रीय आंदोलन के इन नायकों के विचारों की रोशनी में पूछा जाना चाहिए कि बोको हरम और आईएसआईएस से हिंदुत्व की तुलना करने में क्या गलत है? अगर गलत है तो फिर हिंदुत्ववादियों की हिंसक कार्रवाइयों की तुलना किस कट्टरपंथी संगठन से की जानी चाहिए?
बोको हरम और आईएसआईएस से हिंदुत्व की तुलना पर भाजपा और आरएसएस का बिफरना तो स्वाभाविक है, क्योंकि उन्हें तो अपना हर काम मानवता से भारतीय संस्कृति से प्रेरित लगता है और इसीलिए वे अपने कार्यकर्ताओं की ओर से धर्म और संप्रदाय के नाम किए जाने वाले खूनखराबे की निंदा तक नहीं करते बल्कि अगर-मगर के साथ उसे जायज ठहराने की कोशिश करते हैं। लेकिन यह समझ से परे हैं कि हिंदुत्वादियों के कुछ आलोचक भी यह क्यों कह रहे हैं कि बोको हरम और आईएसआईएस से हिंदुत्व की तुलना करके सलमान खुर्शीद ने थोड़ी अति कर दी है, जो कि उचित नहीं है। उनकी दलील है कि हमारे यहां हिंदुत्ववादी ताकतें एक लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रक्रिया के तहत सत्ता में हैं। केंद्र सहित कई राज्यों में उनकी सरकार है, जबकि बोको हरम और आईएसआईएस अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित संगठन हैं। लेकिन ऐसी दलील देने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि हिंदुत्व के सबसे बड़े प्रवक्ता आरएसएस पर भी उसकी उग्रवादी और विभाजनकारी गतिविधियों के चलते आजाद भारत में तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। अमेरिका और यूरोपीय देशों के कई थिंक टैंक और मीडिया संस्थान आरएसएस और भाजपा को अतिवादी और हिंदू राष्ट्रवादी संगठन मानते हैं और उनकी गतिविधियों की आलोचना करते हैं।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आजाद भारत में सबसे बडी आतंकवादी घटना महात्मा गांधी की नृशंस हत्या के रूप में घटित हुई थी, जिसे हिंदुत्ववादियों ने ही अंजाम दिया था। यह भी जगजाहिर है कि गांधी के हत्यारों और हत्याकांड के सूत्रधार रहे उन हिंदुत्वादियों को महिमामंडित करने का काम पिछले छह-सात साल से कौन लोग कर रहे हैं और किसकी शह पर कर रहे हैं।
पिछले तीन दशकों के दौरान ओडिशा, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में चर्चों, पादरियों और ननों पर हमले स्पष्ट तौर पर हिंदुत्ववादी संगठनों ने किए हैं। ओडिशा में बूढ़े पादरी ग्राहम स्टैंस और उसके बच्चों को जिंदा जलाने वाला दारा सिंह नामक व्यक्ति तो घोषित रूप से आरएसएस का कार्यकर्ता और बजरंग दल का पदाधिकारी था।
इसी सिलसिले में गुजरात का जिक्र करना भी लाजिमी है, जहां इसी सदी के शुरुआती दौर में ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ के नाम पर मुसलमानों का संगठित कत्लेआम हुआ था और उसी दौरान मुस्लिम समुदाय की कई गर्भवती स्त्रियों के गर्भ पर लातें मार-मार कर उनकी और उनके गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर उनके शव त्रिशूल पर टांग कर लहराए गए थे। वह कृत्य किस तरह के मानव धर्म या राष्टभक्ति से प्रेरित था? उसी हिंसा में एक सौ अधिक लोगों की हत्या के लिए जिम्मेदार बाबू बजंरगी को क्या आतंकवादी नहीं माना जाएगा, जो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का करीबी सहयोगी हुआ करता था और जिसे अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुना रखी है।
यूपीए सरकार के दौर में मालेगांव, अजमेर और समझौता एक्सप्रेस में बम के धमाके करने के आरोपी तो आरएसएस द्वारा प्रमाणित हिंदू ही हैं और उनमें से एक प्रज्ञा ठाकुर अब संसद की सदस्य है और अपनी कथित बीमारी के नाम पर जेल से बाहर जमानत पर है। अल्पसंख्यक समुदाय की औरतों को कब्र से निकाल कर उनके साथ बलात्कार करने का सार्वजनिक सभा में ऐलान करने, गोली मारो….और…काटे जाएंगे जैसे हिंसक नारे लगाने और सडकों पर त्रिशूल, तलवार और तमंचे लहराने वालों को आतंकवादी नहीं तो क्या कहेंगे?
जिस तरह बोको हरम, आईएसआईएस और तालिबान जैसे संगठन इसलाम के नाम पर लोगों की हत्या करते हैं? उसी तर्ज पर हमारे यहां हिंदुत्ववादी भी पिछले छह सात सालों से मुसलमानों, दलितों, बुद्धिजीवियों और लेखकों पर हिंसक हमले कर रहे हैं, उनकी हत्याएं कर रहे हैं। नरेंद्र दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी, गोविंद पानसरे, गौरी लंकेश जैसे जनपक्षधर साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के हत्यारे कौन हैं और क्यों आज तक कानून की पकड़ से दूर हैं? हिंदुत्व के नाम पर खुलेआम हिंसा का तांडव हो रहा है। मॉब लिंचिंग में ‘जय श्रीराम’ ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम’ के नारे लगाने के लिए बाध्य किया जाता है। मंदिर में घुसने, घोड़ी पर बैठने और गांव के कुएं से पानी भरने पर दलितों की पिटाई होती है। गोहत्या का आरोप लगा कर मुसलमानों को मारे जाने की कई घटनाएं हाल के वर्षों में हो चुकी हैं। इस समय त्रिपुरा में सरकार के संरक्षण में मुसलमानों हिंसक हमले हो रहे हैं और उनके घरों में आग लगाई जा रही है। यह सारी घटनाएं आतंकवाद नहीं है तो फिर क्या है और इन घटनाओं के आधार पर हिंदुत्ववादी विचारधारा की तुलना बोको हरम और आईएसआईएस से न करें तो फिर किससे करें?
अगर सलमान खुर्शीद हिंदुत्व की तुलना इस्लामी कट्टरपंथी या आतंकवादी तंजीमों से न करते हुए हिटलर, मुसोलिनी या किसी अन्य गैर इस्लामी आतंकवादी तंजीम की विचारधारा से करते तो यही हिंदुत्ववादी कहते कि सलमान खुर्शीद मुसलमान होने की वजह से इस्लामी कट्टरपंथी या आतंकवादी संगठनों की निंदा नहीं करते हैं। वैसे भी यह आरोप मुस्लिम राजनेताओं और बुद्धिजीवियों पर आमतौर पर लगता ही रहता है। इसलिए सलमान खुर्शीद की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने आतंकवाद के संदर्भ में बोको हरम और आईएसआईएस का नाम लेकर अपने साहस और उदारता का परिचय दिया है।