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  • सत्ता के लिए अब श्रम कानून में संशोधन भी होगा वापस!

    सत्ता के लिए अब श्रम कानून में संशोधन भी होगा वापस!

    सी.एस. राजपूत  

    ले ही लोग ज्यादा चुनाव होने को फिजूल खर्ची मानते हों पर यह भी जमीनी हकीकत है कि चुनाव ही हैं जिनकी वजह से लोगों का भला हो जाता है। मोदी सरकार की कार्यप्रणाली का जीता-जागता उदाहरण सामने है। जो मोदी सरकार देश के किसी भी आंदोलन को कोई त्वज्जो न दे रही थी। हर आंंदोलन को बदनाम कर दबा दे रही थी। वही मोदी सरकार अब उप चुनाव में भाजपा की हार के बाद अगले साल पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में हार के अंदेश के चलते न केवल किसानों के सामने झुक गई है वहीं मजदूरों को भी रिझाने जा रही है। मोदी सरकार के नये किसान कानून वापस लेने के बाद अब श्रम कानून में हुए संशोधन को टालने की तैयारी है। मतलब कारपोरेट घरानों के दबाव में किसान-मजदूरों की बर्बादी की पटकथा लिखने वाली मोदी सरकार को किसान और मजदूरों की चिंता सताने लगी है। नये कृषि कानूनों के वापस लेने के बाद अब श्रम कानून में किये गये संशोधन को टालने की खबरें आ रही हैं। मतलब जिन किसानों और मजदूरों को मोदी सरकार और उनके समर्थकों ने नक्सली, आतंकवादी, देशद्रोही न जाने क्या-क्या कहा उन किसानों और मजदूरों के लिए मोदी सरकार अब अपनी गलती मानते हुए उनके हित की सोचने का ड़ामा कर रही है। जो प्रधानमंत्री किसान आंदोलन में ६०० से अधिक किसानों के दम तोड़ने के बाद भी चुप्पी साधे रहे। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में केंद्रीय राज्यमंत्री अजय मिश्रा के किसानों को सुधर जाओ नहीं तो सुधार दिये जााओगे कहने पर चुप रहे। उनके बेटे आशीष के अपनी गाड़ी से कुचलकर तीन किसानों की हत्या करने पर चुप रहे। अजय मिश्रा को न पद से हटाया और न ही पार्टी से। जो प्रधानमंत्री विदेश से इतना ब्लैक मनी ला रहे थे कि हर भारतीय के खाते में पंद्रह लाख रुपये चले जाते। हर साल २ करोड़ युवाअेां को रोजगार देने की बात कर रहे थे। किसानों की फसल की लागत का डेढ़ गुना मूल्य दिलवा रहे थे पर कुछ न कर पाये। जो प्रधानमंत्री किसानों को जानकारी न होने की बात कर नये किसान कानून उनके हित में बता रहे थे। आंदोलित किसानों को किसान मान ही नहीं रहे थे। आखिर क्या हुआ कि उन्होंने न केवल नये कृषि कानून वापस ले लिये बल्कि श्रम कानून में हुए संशोधन को भी टालने जा रहे हैं। दरअसल यह सब सत्ता के लिए हो रहा है। उप चुनाव में हार के बाद अब जब पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में भाजपा को हार का अंदेशा जताने लगा तो अब किसानों और मजूदरों को साधने की रणनीति अपनाई है। दरअसल मोदी सरकार पर किसान और मजदूर विरोधी नीतियां लागू करने के आरोप लगाया जा रहा है। इसकी बड़ी वजह यह थी कि किसानों की बिना सहमति के तीन नए कानून बना दिए गए थे। साथ ही कॉर्पोरेट घरानों के दबाव में श्रम कानून में संसोधन कर दिया गया था। जहां किसान संगठन कृषि कानूनों को वापस करने को लेकर एक साल से आंदोलित हैं वहीं श्रम कानून के संसोधन के विरोध में ट्रेड यूनियनें सड़कों पर हैं। अब जब उप चुनाव में बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी वहीं अगले साल होने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में हार का डर सता रहा है। यही वजह है कि मोदी सरकार ने नए कृषि कानूनों को वापस लेने के बाद श्रम कानून में किये गए संशोधन को वापस लेने की रणनीति बनाई है।
    दरअसल मोदी सरकार को किसान और मजदूर के नाराजगी से चुनाव में हारने का अंदेशा होने लगा है। विपक्ष को भले ही मोदी सरकार ने डरा रखा था पर किसान आंदोलन की मजबूती और नए कृषि कानून की वापसी के बाद विपक्ष आक्रामक मूड में आ गया है। जहां कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगातार मोदी सरकार पर निशाना साध रहे हैं वहीं उत्तर प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को टारगेट कर रहे हैं। हरियाणा और पंजाब में तो बीजेपी नेताओं का निकलना मुश्किल हो गया है। विरोध-प्रदर्शन से विपक्ष को हो रही मजबूती रोकने के लिए किसान कानून के बाद अब मोदी सरकार श्रम कानून में संशोधन के होने वाले नुकसान से बचने पर मंथन कर रही है। श्रम मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि नए श्रम कानून टालने को लेकर सरकार ने चार बार समय सीमा बढ़ाई है। हालांकि पहले तीन बार टालने के वक्त इसकी अगली तारीख भी बताई जाती रही लेकिन चौथी बार टालने के दौरान अगली तारीख की घोषणा नहीं की गई है। ऐसे में अब श्रम कानून कब तक लागू होगा उसकी कोई स्पष्ट तारीख सामने नहीं आई है। इसको देखते हुए संकेत मिल रहे हैं कि सरकार कृषि कानून की तरह श्रम कानून को भी टालने के मूड में है। मतलब श्रम कानून में संशोधन वापस होगा। दरअसल अगले साल के शुरुआत में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में सरकार चुनाव बाद ही कानूनों को लागू करने पर विचार करेगी। ज्ञात हो कि  2019 और 2020 में सरकार ने  श्रम कानून को लेकर विधेयक पारित किये गए थे। सरकार के इस रुख के खिलाफ 10 ट्रेड यूनियनें  मैदान में हैं।
    कृषि कानून वापसी के बाद नई पेंशन योजना वापस लेने की मांग भी जोर पकड़ रही है।  यूनियन ने उन नियमों पर आपत्ति जताई है जिसमें कर्मचारी की नियुक्ति और बर्खास्तगी के नियम कंपनी के लिए आसान हैं। विरोध के स्वर उठने और चुनावी माहौल को देखते हुए सरकार अभी श्रम कानून को लागू से बचती नजर आ रही है। दरअसल किसान आंदोलन के चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को आक्रामक विरोध देखने को मिल रहा है। ऐसे में कृषि कानूनों की वापसी के ऐलान से पहले माना जा रहा था कि पार्टी को चुनावी राज्यों में तगड़ा नुकसान झेलना पड़ सकता है।

  • उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बड़ा उलटफेर करेंगे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान!

    उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बड़ा उलटफेर करेंगे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान!

    सी.एस. राजपूत  
    त्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। सभी राजनीतिक दल चुनावी दंगल में उतर चुके हैं। चाहे सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी हो, विपक्ष में बैठी सपा हो, बसपा हो, कांग्रेस हो या फिर छोटे-छोटे दल सभी ने अपने दांव पेंच आजमाने शुरू कर दिए हैं, वैसे तो पूरे उत्तर प्रदेश के सभी मतदाताओं की भूमिका इन चुनाव में महत्वपूर्ण है पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों पर बड़ा दांव लगा है। नए कृषि कानूनों के विरोध और गन्ने के बकाया भुगतान को लेकर संघर्षरत ये किसान मोदी और योगी सरकार पर बड़े आक्रामक हैं। केंद्र सरकार के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन में अग्रिम मोर्चे पर हैं। इस बात को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी भली भांति समझ रहे हैं। यही वजह है कि उनके राज में भले ही चार से साल से गन्ने का मूल्य न बढ़ा हो पर चुनाव के करीब आते देख योगी आदित्यनाथ ने एक मुश्त गन्ने का मूल्य 25 रुपए बढ़ाया है।
    किसान आंदोलन का चेहरा बन चुके राकेश टिकैत के आंसू प्रकरण के बाद गाजीपुर बॉर्डर पर  उन्होंने बुनियादी सुविधाएँ भी उपलब्ध कराई हैं। लखीमपुर कांड में राकेश टिकैत के योगी सरकार के साथ किये गए सहयोग को भले ही उनके मैनेज होने के रूप में देखा गया हो पर टिकैत फिर से भाजपा पर आक्रामक हैं। वह जहां 22 नवम्बर को अपने संगठन भाकियू को साथ लेकर लखनऊ में योगी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने जा रहे हैं वहीं 29 नवम्बर को ट्रैक्टर मार्च निकालने जा रहे हैं वह भी बिना अनुमति के। मतलब यदि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले कृषि कानूनों और गन्ना किसानों के बारे में मोदी और योगी सरकार ने कुछ न किया तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान चुनाव में योगी बड़ा उलटफेर कर सकते हैं।
    दरअसल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों पर कभी चौधरी चरण सिंह की पकड़ थी। उनके बाद काफी हद तक उन बेटे अजित सिंह की पकड़ रही।  2012 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से 38 सीटें हासिल करने वाली बीजेपी ने  मुजफ्फरनगर दंगों के बाद बदले राजनीतिक माहौल की वजह से साल 2014 के आम चुनाव में क्लीन स्वीप किया था। इसके बाद साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने 88 सीटों पर जीत हासिल की। 2019 में भी इस क्षेत्र में बीजेपी ने अच्छा प्रदर्शन किया।   लेकिन इस बार किसान विशेषकर जाट समुदाय बीजेपी से नाराज़ नज़र आ रहा है। बता दें कि 2019 के आम चुनाव तक बीजेपी को किसानों का समर्थन मिला था. लेकिन पिछले दो सालों से जाट समुदाय धीरे-धीरे बीजेपी से दूर हटता दिख रहा है।

    पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों में जाट समुदाय राजनीतिक रूप से काफ़ी प्रभावशाली माना जाता है और बीजेपी साल 2013 के बाद से लगातार इस समुदाय को अपने साथ रखने की कोशिशें करती रही है। इन्हीं कोशिशों के दम पर बीजेपी ने साल 2017 के विधानसभा चुनाव में 2012 की अपेक्षा बेहतरीन प्रदर्शन किया। लेकिन गन्ना किसानों की समस्याओं और किसान आंदोलन की वजह से अब यह समुदाय बीजेपी से दूरी बनाता हुआ दिख रहा है।