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  • प्रकृति और शिक्षण का महत्व 

    प्रकृति और शिक्षण का महत्व 

    शुभेन्द्र त्यागी
    मारा समय प्रकृति और पर्यावरण से मनुष्य के पूर्ण संबंध विच्छेद का है। हमारे द्वारा बनाए जा रहे घरों में, हमारे बसाए जा रहे शहरों में, तरक्की और सौंदर्य की हमारी  कल्पनाओं में प्रकृति के लिए स्थान अब नहीं है। घरों में इतनी भी मिट्टी नहीं कि घास का तिनका भी उग सके, इतना भी सुराख नहीं कि सूरज की किरण भी आ सके। पक्षियो और जीव जंतुओं से तो हमने खुद को  बहुत पहले दूर कर लिया था। वे दिन बीत चुके जब हर घर मैं खुले आंगन और आंगन में नीम हुआ करते थे। ऐसे आवास की संकल्पना अब पिछड़ेपन का सूचक मानी जाएगी। मानवेतर प्रकृति के जीवित अंशो से हमारा संपर्क बिल्कुल टूट चुका है।
    इंसानों के कुदरत से इस अलगाव में न जाने कितनी मुसीबतों को जन्म दिया। स्वयं से अलगाव (self alienation) भी हमारे वर्तमान समय की ही उपज है। जब मनुष्य प्रकृति से अलग हुआ तो वह खुद से भी कैसे जुड़ा रह सकता था! लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि प्रकृति सिर्फ हमारी जरूरतों को पूरा करने के सामान मुहैया नहीं करती,ना ही वह केवल आरामदायक शरण स्थली है जहां अभिजन रोज के कामों से ऊबकर छुट्टियां मनाने  जाते हैं। उसका संबंध हमारे भावों से रहा है। उसके इर्द गिर्द हमारी सभ्यता, हमारा सांस्कृतिक जीवन संगठित हुआ। इसके रहस्यों को सुलझाने के प्रयास से विज्ञान का जन्म हुआ है। हमारे दर्शन का उद्देश्य भी प्रकृति के रहस्यों, उसके परिवर्तनों और उसके अस्तित्व की व्याख्या रहा है।
    प्रकृति से हमारे जीवन के अलगाव का अर्थ हुआ ज्ञान के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत से अलग हो जाना।
    अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए हम एक उदाहरण देंगे, जिससे स्पष्ट होगा कि कैसे हमारे पूर्वजों ने बिना उन्नत उपकरणों के ही प्राकृतिक घटनाओं को देखा परखा,उनकी व्याखाएं की, तर्कों का उपयोग किया, शिक्षित पूर्व कल्पनाएं की। जिनके निष्कर्ष सैकड़ों वर्ष बाद भी जांचे जाने पर सच निकले।यह इसलिए संभव हो सका क्योंकि उनका अपने परिवेश और प्रकृति से जीवंत संपर्क था जो आज टूट चुका है।
    अमेरिका के विज्ञान के लेखक आइजेक एसीमोव ( Isaac Asimov) ने छोटी-छोटी 29 पुस्तकें लिखी हैं। पुस्तकें अनेक विषयों पर हैं। मसलन हमें कैसे पता चला कि धरती गोल है, हमने रक्त के बारे में कैसे जाना, हमने गिनना कैसे सीखा, हमें विटामिंस के बारे में कैसे पता चला, हमने अंतरिक्ष के बारे में कैसे जाना इत्यादि। पुस्तकों में एसिमोव ने दिखाया है कि इन विषयों के बारे में हमारा ज्ञान धीरे-धीरे कैसे विकसित होता गया। सबसे पहले मनुष्यों ने किसी प्राकृतिक घटनाक्रम को ध्यानपूर्वक देखा, उनमें निहित क्रम  को पहचानने की कोशिश की, किसी घटनाक्रम के पीछे के कारणों का अनुमान लगाया, पहले से ज्ञात तथ्यों के आधार पर नवीन घटनाओं की व्याख्या की। यही सीखने का क्रम रहा है। इसी क्रम को बाद में सीखने के वैज्ञानिक ढंग के रूप में स्वीकार किया गया।
    प्रकृति के निकट सम्पर्क और उसमें होने वाले घटनाक्रमों के अवधानतापूर्वक अवलोकन के कारण ही बिना किसी उन्नत तकनीकि उपकरण की मदद से प्रकृति के रोचक रहस्यों और नियमों को जान सके और ऐसी पूर्व कल्पनाएं विकसित कर सके जो विज्ञान और तकनीकि के पूर्ण विकास के बाद परखे जाने पर सच निकलीं। इसमें सबसे रोचक है धरती के आकार और विस्तार में हमारी कल्पनाओं और धारणाओं का इतिहास। एसिमोव ने अपनी पुस्तक में कहानी की शैली में इसे बहुत रोचक ढंग से समझाया है। जिसे संक्षेप में बताना ठीक होगा। प्रकृति और ज्ञान के बीच का सम्बन्ध भी इससे स्पष्टत होगा।
    धरती के आकार और विस्तार के बारे में मनुष्य शुरू से ही जिसासु रहे है। हमारी धरती का विस्तार कितना है? क्या इसका कोई छोर है? यदि हम एक ही दिशा में लगातार चलते जाएँ तो क्या धरती के छोर पर पहुँच जाएंगे? धर्मग्रंथों मे ब्रह्माण्ड और धरती के बारे में अनेक चमत्कार पूर्ण कथाएँ हैं लेकिन जो मनुष्य जिज्ञासु थे उनके लिए इससे संतुष्ट होना मुश्किल था क्योंकि यह हमारे प्रेक्षणों और अनुभवों से मेल नहीं खाती थीं। इन प्रश्नों का कोई ऐसा उत्तर होना चाहिए जो प्रमाणों पर आधारित हो।
    अगर हम किसी समुद्र के बीचों-बीच या किसी बड़े मैदान के बीच में खड़े हो तो दूर देखने पर हमें धरती और आकाश मिलते दिखेंगे। जहां धरती और आकाश मिलते दिखाई देते हैं उसे हमारी भाषा में क्षितिज कहते हैं। समुद्र या मैदान के बीच खड़े होकर देखने पर हमें ऐसा लगेगा कि हमारी धरती एक सपाट थाली जैसी है और आसमान एक कटोरी की तरह उस पर औंधा हुआ है इस तरह धरती के आकार का एक अनुमान पुराने समय के मनुष्यों ने लगाया। लेकिन यह अनुमान गलत साबित हुआ क्योंकि पुराने समय में भी लोग दूर-दूर तक की यात्राएं किया करते थे। वे कितनी ही लंबी यात्रा क्यों ना करें कहीं भी वह स्थान नहीं आता था जहां धरती और आकाश एक दूसरे से मिलते हों। वे जितनी दूर चलते क्षितिज उनसे उतनी ही दूर होता जाता है शीघ्र ही उन्हें समझ आ गया कि धरती और आकाश कहीं नहीं मिलते क्षितिज हमारी दृष्टि का एक भ्रम है।
    सारे ब्रह्मांड में दो खगोलीय पिंड ऐसे हैं जिन्हें धरती से स्पष्ट देखा जा सकता है सूर्य और चंद्रमा. सूर्य हमेशा आग के गोले जैसा दमकता था परंतु चंद्रमा के साथ ऐसा नहीं था। चंद्रमा कभी प्रकाश का पूरा गोला तो कभी आधा गोला दिखाई देता था। कभी पूरे और आधे गोले के बीच के आकार का दिखता था. कभी चंद्रमा हंसुए के आकार का पतला गोल वक्र नजर आता था. यूनानियों ने चंद्रमा की स्थिति को सूर्य के सापेक्ष बदलता हुआ पाया उन्होंने देखा कि चंद्रमा अपनी स्थिति के साथ-साथ अपना आकार भी बदलता रहता है.चंद्रमा और सूर्य पृथ्वी से विपरीत दिशा में होते तब सूर्य का प्रकाश पृथ्वी से होता हुआ चंद्रमा पर पड़ता और और तब चंद्रमा पूरा गोल चमकता दिखता। जब चंद्रमा और सूर्य एक ही दिशा में होते तो हमें चंद्रमा बिल्कुल दिखाई नहीं देता इससे वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूर्य का तो अपना खुद का प्रकाश है जबकि चंद्रमा का अपना कोई प्रकाश न था. चंद्रमा सूर्य के प्रकाश को प्रतिबिम्बित करता था.  प्राचीन यूनान में ज्यामिति का अध्ययन शुरू हो चुका था ज्यामिति का संबंध चीजों के आकार से है। उन्होंने चमकते चंद्रमा की विभिन्न कलाओं को देखा अर्धचंद्र हंसीए जैसा चंद्र और अन्य आकृतियों का अध्ययन किया। उन्हें यह स्पष्ट लगा कि चंद्रमा की यह कलाएं अलग-अलग चमकने वाला आकार तभी दिखेंगे जब चंद्रमा का आकार एक गोल गेंद जैसा होगा ।
    सूर्य  और चंद्रमा का आकार यदि गोल है तो क्या पृथ्वी का आकार भी गोल हो सकता है? क्या वास्तव में पृथ्वी चपटी नहीं गोल ? इस पर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता था क्योंकि सूर्य और चंद्रमा पृथ्वी से काफी अलग दिखते थे केवल इनके गोल होने से पृथ्वी को गोल नहीं माना जा सकता। ऐसा मानने  लिए और प्रमाणों की आवश्यकता होती।
    इसका और प्रमाण मिला चन्द्रग्रहण की घटना से। चन्द्रग्रहण की घटना हमेशा पूर्णमासी के समय ही होती ।.प्राचीन यूनानी चंद्र ग्रहण के कारणों को समझते थे इसका कारण था सूर्य और चंद्रमा के बीच पृथ्वी का आ जाना जिससे सूर्य की किरणें चंद्रमा तक नहीं पहुंच पाती और चंद्रमा का उतना हिस्सा हमें दिखाई नहीं देता इसे हम चंद्रमा पर धरती की छाया पडना भी कह सकते हैं. पृथ्वी की चंद्रमा पर पड़ी परछाई से भी हम पृथ्वी के आकार के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते थे चंद्रमा पर पृथ्वी की परछाई की किनार हमेशा वक्राकार होती और देखने में एक गोल का हिस्सा नजर आती सिर्फ एक ही वस्तु की परछाई ऐसी पड सकती थी और उस वस्तु का आकार होता गोल गेंद जैसा.
    पृथ्वी के  वक्राकार होने के सबूत हमें और एक अन्य घटना से भी मिले. वह थे समुद्र में दूर जाते जहाज.मान लीजिए यदि पृथ्वी सपाट है और हम समुद्र के किनारे खड़े हैं और दूर जाते जहाज को देख रहे हैं तो वह जैसे जैसे हमसे दूर होता जाएगा हमें वह और छोटा और छोटा दिखाई देगा अंत में वह एक बिंदु की आकृति का दिखने लगेगा और फिर दिखाई देना बंद हो जाएगा. लेकिन ऐसा होता नहीं था। शुरु में तट से दूर जाता समूचा जहाज दीखता। फिर नीचे की ओर जहाज का पेटा (हल) और ऊपर जहाज का मस्तूल नजर आता। परन्तु कुछ देर बाद पेटा लुप्त हो जाता और मस्तूल नजर आता। ऐसा लगता जैसे पेटा पानी में डूब गया हो। अब सिर्फ जहाज का मस्तूल ही दिखाई देता। बाद में मस्तूल का केवल ऊपरी भाग दिखाई देता। अंत में जहाज पूरी तरह गायब हो जाता। शुरुआत में लोगों को लगा कि इसका कारण समुद्र में जलस्तर का बढ़ना हो, लेकिन यात्रा से लौटने वाले व्यक्ति बताते कि कहीं भी समुद्र का जल स्तर नहीं बढ़ा था। फिर इसका एक ही कारण हो सकता है शायद पृथ्वी की सतह एक वक्र में मुडती हो तो जहाज वक्र पर तैरेगा और धीरे धीरे करके वह वक्र के पीछे लुप्त हो जायगा। ऐसा करते समय उसका नीचे का भाग सबसे पहले लुप्त होगा। जहाज चाहे किसी भी दिशा में जाय वे इसी ढंग से लुप्त होते दीखते।इसका अर्थ हुआ धरती चारों ओर से एक वक्र की तरह मुड़ी हुई है. सिर्फ एक ही आकृति चारो ओर से एक जैसी वक्राकार होती है वह है गोल गेंद।
    सबसे अंतिम प्रमाण जिसने धरती के गोल होने की बात को पूरी तरह प्रमाणित कर दिया वह था एरोटस्थनीज का प्रयोग. उन्होंने न सिर्फ धरती के गोल होने को अंतिम रूप से प्रमाणित किया, बल्कि धरती की परिधि को भी ठीक ठीक माप दिया।
    इरेटोस्थनीज को यह बताया गया था कि 21 जून (सौर दिवस या साल का सबसे लम्बा दिन) को दक्षिणी मिस्त्र के शहर साइन में किसी छड़ को लम्बवत  गाढ़ा जाय तो उसकी परछाईं नहीं बनती है।उन्हें यह भी बताया गया कि इस दिन साइन शहर में सूरज की किरणें गहरे कुओं के तलों में भी पहुँच जाती हैं. मंदिरों और घरों की परछाइयां कुछ समय के लिए गायब हो जातीं है। इसका अर्थ हुआ कि इस दिन सूरज की किरणें धरती पर सीधी पड़ती है. अगर धरती की सतह सपाट है तो अन्य स्थानों पर भी वे लम्बवत पडेगीं और किसी वस्तु की कोई परछाईं नहीं बनेगी. इसे परखने के लिए एरोटस्थनीज ने अपने शहर में भी एक छड गाड़ी और पाया कि वहाँ उसकी परछाईं बन रही है। इसका अर्थ हुआ कि इस स्थान पर सूरज की किरणे सीधी न पड़कर तिरछी पड़ रही है. धरती के किसी स्थान पर सूरज की किरणे और किसी पर तिरछी पडे इसका अर्थ हुआ कि धरती की सतह सपाट न होकर वक्र है. यहाँ एरोटस्थनीज उसकी आकृति को लेकर निश्चिंत हुए. अब रही उसकी आकार को मापने की बात. इसके लिए उन्होने ज्यामिती का सहारा लिया. उन्होने देखा छड और परछाईं के बीच का कोण 7 अंश है. साईन में छड और परछाई के बीच का कोण 0 अंश था. दोनो शहरों के बीच की दूरी का उन्हे पता था. यह 500 मील थी। 500 मील की दूरी में 7 अंश का कोण यदि बन रहा है. वृत्त की परिधि का केन्द्र पर कोण 360 अंश का होता है. यदि 7 अंश का कोण 500 मील की दूरी में बन रहा है तब 360 अंश का कोण  2500 मील की दूरी में बनेगा। धरती की परिधि को इस गणना के आधार पर उन्होंने 2500 मील या 40000 कि.मी.माना। एरोटस्थनीज की यह गणना बिल्कुल सटीक निकली. 20वीं सदी में जब तकनीकी और उपग्रहों के विकास के बाद जब धरती की परिधि को मापा गया तो एरोटस्थनीज की गणना में 1% से भी कम की त्रुटि थी.
    यहाँ इतना विस्तृत उदाहरण इसलिए देना पड़ा ताकि हम अपने समय से एरोटस्थनीज के समय के प्रमुख अंतर को समझ सकें। हमें अपने समय में तकनीक के बेहद उन्नत उपकरण उपलब्ध हो गए है, लेकिन इस अंध दौड़ में जो महत्वपूर्ण चीज हमसे छूट गई है वह है हमारी बाह्य प्रकृति- जिसे ठीक से जाने बिना नए ज्ञान का सृजन सम्भव नहीं। कोई आश्चर्य नहीं कि इस कारण हमारा वर्तमान समय तकनीकि के आशातीत प्रसार लेकिन वैज्ञानिक चिंतन ह्रास का है ।   विशेषज्ञता की बहुलता लेकिन सहज बोध के लुप्त होने का है।
    यह सर्वविदित तथ्य है कि आधुनिक काल में शिक्षा का जितना प्रसार हुआ, उतना पहले कभी नहीं था। शिक्षा में सबकी भागीदारी के सायास प्रयत्न आधुनिक काल में ही हुए। आधुनिक काल में ही ज्ञान की खोज के सायास प्रयत्न शुरु हुए- जिसे हम शोध कहते है। लेकिन विडम्बना यह हुई कि इन प्रयासों ने सीखने की प्रक्रिया को बहुत कृत्रिम बना दिया। होना तो यह चाहिए था कि जैसे मनुष्य स्वाभाविक ढंग से प्रकृति से सीखता है, हमारे शिक्षण संस्थान उस स्वाभाविक ढंग को बनाए रखते और उसे प्रोत्साहित करते। लेकिन इन्होंने उल्टा हमें हमारे बाह्य जीवन से ही  काट दिया। बीसवीं सदी की महान शिक्षाविद् . और सहज शिक्षण की अवधारणा की प्रणेता सिल्विया एश्टन वार्नर इसे बहुत बड़ी त्रासदी मानती थी। एक ओर शिक्षा के लिए इतने व्यापक प्रयास हुए और अनेके विद्यालय विश्व विद्यालय खोले गए। दूसरी ओर इस आधुनिक जीवन पद्धति के कारण स्वाभाविक ढंग से हमारे सीखने की क्षमताएँ नष्ट हो गईं। उन्होंने लिखा है कि यह समस्या इतनी जटिल है कि इसका ठीक-ठीक चित्रण एक उपन्यास के द्वारा ही किया जा सकता है।
    इस स्थिति को और बदतर बना दिया देश के श्रेष्ठ माने जाने वाले निजी स्कूलों ने। विश्व स्तरीय सुविधाएं जुटाने के नाम पर स्कूलों को शो रूम और शॉपिंग माल का रुप दे दिया है। यदि आप इन स्कूलों में जाएँ तो उसके आलीशान दरवाजे से अन्दर जाते दी सुव्यवस्थित बगीचा होगा, जिसमें हर चीज व्यवस्थित ढंग से लगी हुई है, एक क्रम से फूलों की  क्यारियां, कीमती गमले, मशीन से कटी मखमली घास और झाडियाँ। कॉरिडोर में कीमती पत्थर लगे हैं। गैलरी में सभी कक्षाओं में चिकनी टाइल्से हैं। सभी कक्षाओं में फर्नीचर है, जिसके बारे में स्कूल की प्रधानाध्यापिका आपको बताएंगी की मेजे और कुर्सियाँ बच्चों की उम्र के हिसाब से अलग अलग आकार की हैं, जो बाजार में उपलब्ध सबसे महंगी तो हैं ही जिनकी गुणवत्ता भी विश्वस्तरीय है। हर कक्षा में एसी है। यहाँ तक कि बसों में भी ए.सी. है. ए.सी. को लेकर हमारे यहाँ निजी स्कूलों में एक उन्माद सा है। स्कूल में स्वीमिंग पूल भी है. प्रोजेक्टर है, स्मार्ट क्लासेस है और हाँ सुव्यवस्थित पुस्तकालय भी है. मंहगे कागजों पर स्कूल की मासिक पत्रिका छपती हैं, सत्र के शुरुआत में अखबारों में विज्ञापन निकलते हैं पूरे शहर में भीमाकाय विज्ञापन लगाए जाते हैं।
    इनके वार्षिक उत्सव और सांस्कृतिक कार्यक्रम तो मानो अपनी शान और रईसी के प्रदर्शन के लिए ही होते हैं।
    यह सब तो है लेकिन वह सादगी, शांति, प्रोत्साहन और बच्चों की जिज्ञासाओं को स्वाभाविक ढंग से बढ़ने देने की संस्कृति नहीं है, जो शिक्षा की बुनियादी शर्त हुआ करती है.  स्कूल में बगीचा है फिर भी उसकी निगरानी ऐसे होती है कि बच्चे उसे गंदा न कर दें। उसकी बच्चों से रखवाली की जाती है। न बच्चे उसमें स्वच्छन्दता से खेल सके न हाथ मैले कर सकें, प्रकृति से निकटता से सम्पर्क स्थापित कर सके इसलिए वह नहीं है.
    लेकिन यह हमें समझना होगा, कि शिक्षा के लिए बहुत से मंहगे उपकरण जुटाने का हमारा पागलपन, कठोर अनुशासन, बनावटी वातावरण कभी शिक्षण में सहायक नहीं हो सकते. बल्कि ये तो हमारी कल्पनाशक्ति को कुंठित कर देते हैं। सीखने के लिए सबसे जरूरी है बाह्य प्रकृति से हमारा निर्बाध संपर्क।यदि हम अपने बच्चों को यह उपलब्ध नहीं करा सकते तो कम से कम उनके जीवन में बनावटी और कृत्रिम चीजों का ढेर ना लगाएं। सीख तो वे स्वाभाविक ढंग से खुद लेंगे। टैगोर,मांटेसरी,एलकिंड का लेखन हमें यही बताता है।( नोट –  1.ऊपर एसिमोव की जिन पुस्तकों की चर्चा की गई है वे अरविन्द गुप्ता की बेहतरीन वेबसाईट arvindguptatoys.com पर उपलब्ध हैं। ऐसी ही विविध विषयों पर एसिमोव ने 29 पुस्तकें लिखीं हैं,जिनका हिंदी अनुवाद भी उपर्युक्त वेबसाइट पर उपलब्ध है।  कुछ अनुवाद अरविन्द गुप्ता ने खुद किए है,कुछ भारत ज्ञान विज्ञान प्रचार समिति के हैं। इन पुस्तकों को मूल में जरूर पढ़ना चाहिए।
    असिमोव विज्ञान की कठिन अवधारणाओं को सरल भाषा में समझाने के लिए प्रसिद्ध हैं। विज्ञान में कोई अवधारणा ऐतिहासिक रूप से कैसे विकसित हुई है इसे वह कहानी की रोचक शैली में समझाते हैं।विज्ञान के ऐतिहासिक विकास को भी उन्होंने कहानी की शैली में ही समझाया है)
    2. निजी स्कूल का यह विवरण प्रो कृष्ण कुमार के Education world में प्रकाशित  लेख The downside of beautiful schools से लिया है।