चरण सिंह राजपूत
इस बार का उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव सत्ता पक्ष और विपक्ष के लिए के लिए जीने और मरने का चुनाव है। यह चुनाव 2024 के लोकसभा चुनाव की दशा और दिशा तय करेगा। ऐसे में इन चुनाव में साम, दाम, दंड भेद सब कुछ हथकंडे इस्तेमाल होने वाले हैं। भाजपा से टूटकर आये ओबीसी नेताओं के अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद के साथ गठबंधन के चलते किसान नेताओं का वोट मिलने की उम्मीद लगाए बैठे अखिलेश यादव के लिए यह चुनाव करो या मरो का है। अखिलेश यादव के लिए बीजेपी से टूटकर आये नेता और रालोद जहां मजबूती बने हुए हैं वहीं चुनाव परिणाम में कम सीटें आने पर कमजोरी भी साबित हो सकते हैं। अखिलेश यादव को यह समझकर चलना होगा कि जो स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्मवीर सैनी, दारा सिंह जैसे नेता बसपा सरकार की मलाई चाटकर भी बसपा के न हुए, भाजपा सरकार की मलाई चाटकर भाजपा के न हुए। वे सपा के कैसे हो सकते हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि भाजपा ने ही इन नेताओं को चुनावी फायदे के लिए भेजा हो। जिन स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी संघमित्रा मौर्य भाजपा की सांसद के तौेर पर भाजपा में ही टिकी हुई हैं। योगी सरकार के फिर से आने की बात कर रही हैं। वह मौर्य अखिलेश यादव के प्रति वफादार बनकर रह सकते हैं, इसकी क्या गारंटी है ? अखिलेश यादव को यह सोचकर चलना होगा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों भाजपा के हैं।
अखिलेश यादव की ताकत समाजवादी पार्टी है न कि बीजेपी से आये नेता और रालोद । न ही गठबंधन करने वाले दूसरे छोटे-छोटे दल। अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी से जीतकर आने वाले विधायकों से मजबूत होंगे न कि दूसरे दलों से आने वाले नेताओं से। और न ही रालोद के जीते विधायकों से। अखिलेश यादव को याद करना होगा कि १९९९ में जब मायावती सरकार में नरेश अग्रवाल की अगुआई में कांग्रेस से टूटे विधायक 2003 में सपा की सरकार बनाने में नेताजी के साथ आ गए थे। अखिलेश यादव को यह सोचकर चलना होगा कि भाजपा को समर्थन देने के लिए बसपा तैयार बैठी है। अब जिस तरह से अखिलेश यादव के खिलाफ आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद आग उगल रहे हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि चंद्रशेखर आजाद भी अखिलेश यादव का साथ नहीं देंगे। हो सकता है कि चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा के पाले में चले जाएं। वैसे भी आजकल उनकी बसपा मुखिया मायावती से करीबियां बढ़ रही हैं। समय आने पर मायावती चंद्रशेखर आजाद को भाजपा के पक्ष में मना सकती है। वैसे भी आज की तारीख में नेताओं में खामियों का भंडार है और भाजपा के पास खामियों को उजागर कर नेताओं पर शिकंजा कसने वाले तंत्र। योगी आदित्यनाथ ने मायावती से बंगला खाली कराकर शिवपाल यादव को दिया था। अखिलेश यादव को यह भी याद रखना होगा कि चौधरी अजित सिंह के समय से ही रालोद की छवि सत्तालोलुपता की रही है। रालोद 1999 भाजपा समर्थन से बनी मायावती सरकार में भी शामिल रहा है।
दरअसल अखिलेश यादव को रालोद को करीब 29, सुभासपा को 13, महान दल, जनवादी पार्टी, अपना दल को 3-3 सीटें और चाचा शिवपाल यादव को 6 सीटें देने जा रहे हैं। ये सब सीटें ऐसी हैं जो जीतने के बाद कहीं भी जा सकती हैं। मतलब यदि अखिलेश यादव को प्रचंड बहुमत न मिला तो सत्तारूढ़ भाजपा बना हुआ खेल भी बिगाड़ सकती है। वैसे भी अभी पर्चा दाखिल करने और वापस लेने में बहुत खेल होना है। दरअसल 403 सीटों वाली 18वीं विधानसभा के लिए फरवरी से मार्च के बीच चुनाव होने जा रहे हैं।
बता दें इससे पहले 17वीं विधानसभा के लिए 403 सीटों पर चुनाव 11 फरवरी से 8 मार्च 2017 तक 7 चरणों में हुए थे। इनमें लगभग 61 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इनमें 63 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं थीं, जबकि पुरुषों का प्रतिशत करीब 60 फीसदी रहा। चुनाव में बीजेपी ने 312 सीटें जीतकर पहली बार यूपी विधानसभा में तीन चौथाई बहुमत हासिल किया। वहीं अखिलेश यादव की अगुवाई में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन 54 सीटें जीत सका था। इसमें सपा को 47 सीटें मिली थी। इसके अलावा प्रदेश में कई बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती की बीएसपी 19 सीटों पर सिमट गई थी। इस बार सीधा मुकाबला समाजवादी पार्टी और भाजपा के बीच माना जा रहा है। बीजेपी योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ रही है तो सपा अखिलेश यादव के। अखिलेश यादव के साथ रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी, ओमप्रकाश राजभर, अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव, संजय चौहान के अलावा एनसीपी और टीएमसी भी आ गए हैं।