अरुण श्रीवास्तव
यूँ तो बहुत से पेशे हैं, पर शायद एकमात्र पत्रकारिता ही ऐसा पेशा है जिसे दोहरे संकट का सामना करना पड़ता है।
एक तरफ मालिक का शोषण-उत्पीड़न तो वहीं दूसरी ओर सत्ता प्रतिष्ठान का दमन और यह सब कुछ नया भी नहीं है। सदियों से चला आ रहा है पर क्या सदियों तक चलेगा???
बहुत पीछे न भी जाएं तो देश की आजादी के बाद से आजाद भारत की पत्रकारिता पर ही एक निगाह डालें तो कुछ खास अंतर नहीं दिखाई देता। पहले गोरे अंग्रेज गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकारों का दमन-उत्पीड़न करते थे और आज काले अंग्रेज कर रहे हैं। पर यह सवाल तो लाजिमी है कि पत्रकारों पर ही हमले क्यों ? ताज्जुब तो तब होता है कि, पत्रकारों पर हमलों की निंदा करने वाली पार्टी व उसकी सोच के लोग भी जब सत्ता में आते हैं वे भी पत्रकारों के उत्पीड़न में उसी तरह से शामिल हो जाते हैं जैसे पहले की सोच वाली पार्टियों के लोग शामिल होते थे।
मसलन…आपातकाल में तत्कालीन इंदिरा गांधी जी की सरकार ने जिस तरह से लोकतंत्र का गला घोटा था, प्रेस की आजादी की हत्या की थी उससे ज्यादा नहीं तो उससे कम भी नहीं उसके बाद की सरकारों ने की है। फिलहाल मई 2019 से अगस्त 2019 को ही उदाहरण के लिए लें तो विश्वगुरु के मुहाने पर खड़े अपने देश भारत में ही पत्रकारों पर 256 हमले हुए। न्यूयॉर्क स्थित पोलीस प्रोजेक्ट के एक ताजा शोध के अनुसार भारत में तथाकथित चौथे खंबे के अलंबरदारों पर जान लेवा हमले ही नहीं हुए बल्कि उन्हें फर्जी मुकदमों में फंसाया भी गया।
पत्रकारों पर होने वाले दमन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि, उन पर ऐसी-ऐसी धाराएं लगाई जा रही हैं कि वे आसानी से छूट न सकें। हाल-फिलहाल का मामला केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन का है। कप्पन का गुनाह क्या था? वे अपने संस्थान के लिए रिपोर्टिंग करने हाथरस जा रहे थे। उ.प्र.के हाथरस में एक दलित युवती के साथ बलातकार हुआ और जब मामला तूल पकड़ने लगा तो स्थानीय प्रशासन ने बिना घर वालों की अनुमति के रात में ही उसके शव को जला दिया। उक्त पत्रकार कप्पन इसे ही तो कवर करने के लिए जा रहे थे। उन्होंने घटना की रिपोर्ट फाइल करने की छोड़िए तैयार भी नहीं की होगी। ऐसा ही एक मामला इसी सूबे के मिर्जापुर का है। यहां के एक पत्रकार ने मिड डे मील में बच्चों को नमक-रोटी देने की खबर छाप दी। उस पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया गया।
ताजा मामला उत्तर प्रदेश जिसे सत्ता में आने को आतुर हर राजनीतिक दल “उत्तम प्रदेश” बनाने का सपना दिखाता है। इस प्रदेश के बलिया जिले में इंटर की परीक्षा का प्रश्नपत्र लीक हो गया। इसको यहां के अमर उजाला नामक अखबार ने प्रकाशित कर दिया। बस क्या जिला प्रशासन ने अपनी खाल बचाने के लिए गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया। किसान आंदोलन के दौरान आंदोलन कवर कर रहे स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पूनिया को सिंघु बार्डर से पकड़ लिया गया।
केरल के पत्रकार कप्पन दो साल तक जेल में रहे। किसान आंदोलन के दौरान आंदोलनकारी किसानों को अपनी गाड़ी से रौंदकर उनकी हत्या करने वाले को जमानत मिल गई पर कप्पन को दो साल बाद मिली। हजारों निवेशकों के जीवन भर की कमाई हड़प लेने के आरोपी सुब्रत राय माँ की बीमारी के नाम पर पेरोल पर रिहा हुए फिर अंतिम सांस तक जेल नहीं गये पर कप्पन को तब भी रिहा नहीं किया गया जब उनकी 90 वर्षीय मां का देहांत हो गया।
ऐसे ही भारत को पत्रकारिता के लिए दुनिया भर के सबसे खतरनाक देशों में शामिल नहीं किया गया है। अपना भारत विश्व के सबसे पांच खतरनाक देशों की सूची में शामिल है। रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार वर्ड्स फ्रीडम इंडेक्स की 180 देशों की सूची में 159वें नंबर पर विश्वगुरु के मुहाने पर खड़ा अपना देश भारत है।
एक अन्य रिपोर्ट से यह तथ्य उजागर हुआ कि 2023 में पूरे विश्व में 320 पत्रकार जेल में बंद थे। भारत में सात मीडियाकर्मी जेल में बंद हैं जिनमें चार जम्मू-कश्मीर के हैं। हम विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश हैं फिर भी पत्रकारों का मुंह बंद करने के लिए सबसे ख़तरनाक धारा यूएपीए लगाते हैं। ताज़ा मामला न्यूज क्लिक के प्रवीण पुरकायस्थ का है जिन्हें कोर्ट ने गिरफ्तारी अवैध बताते हुए इसी माह भी 24 में रिहा कर दिया।
आर एस एफ के मुताबिक इस साल भारत में चार पत्रकारों की मौत हुई है और पांच सालों में 18 पत्रकारों की मौत हुई है। अक्टूबर 23 में शुरू हुए फिलीस्तीनी
-इस्रायली युद्ध में गांजा में इस्रायली सेना ने लगभग 100 पत्रकारों की हत्या कर दी 22 तो अपने काम के दौरान मारे गए थे।
इस समय पूरे विश्व में 60 महिला पत्रकार जेल में हैं जिसमें चीन सबसे आगे है। वहां 19 महिला पत्रकार इस समय जेल में बंद हैं। यही नहीं दुनिया के उन 37 नेताओं की सूची में अपने-अपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी भी हैं जो पत्रकारों (सुधीर चौधरी,दीपक चौरसिया, अंजना ओम कश्यप, श्वेता सिंह, प्रसून जोशी आदि नहीं) पर हमलावर रहते हैं। पोलीस प्रोजेक्ट की सुचित्रा विजयन कहतीं हैं कि, जो पत्रकार सरकार से सवाल करते हैं उनके खिलाफ़ सोशल मीडिया पर हमले करने जैसा अभियान चलाया जाता है। रवीश कुमार, आरफा खानम शेरवानी, पुण्य प्रसून बाजपेयी, अभिसार शर्मा, अजीत अंजुम व संकेत उपाध्याय आदि इसके उदाहरण हैं। बाबा रामदेव से कड़े सवाल करने पर पुण्य प्रसून बाजपेयी को नौकरी से हाथ गंवानी पड़ी। अब तक उन्हें किसी चैनल ने नौकरी नहीं दी। जिस चैनल के लिए वे काम करते थे उसकी इतनी हिम्मत नहीं कि रामदेव का सामना कर सके।
सामना करने की स्थिति तो कभी भी किसी भी मीडिया संस्थान की नहीं रही। आपातकाल के दौरान इंडियन एक्सप्रेस की भूमिका को और टेलीग्राफ के दुस्साहस को अपवाद मान लें तो।
इस बारे में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में लाॅ के डीन तरुनाभ खेतान का कहना है कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मिला संरक्षण कभी मजबूत नहीं रहा। हालांकि इसकी संवैधानिक गारंटी दी गई है लेकिन 1951 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में पहला संसोधन कर इसके दायरे को काफी सीमित कर दिया गया था। इसी तरह त्रिपुरदमन सिंह ने अपनी किताब ” सिक्सटीन स्टार्मी डेज ” में लिखा कि, तब भारत सरकार ने पाया कि नागरिक स्वतंत्रता की बातें करना एक बात थी और उन्हें सिद्धांतों के तौर पर बनाए रखना अलग बात”।
प्रेस की आजादी, पत्रकारों का उत्पीड़न बढ़ते जाने के लिए पत्रकार और उनका संगठन भी कम जिम्मेदार नहीं है। जहां एक ओर सोवियत संघ के टूटने से ट्रेड यूनियनें कमजोर हुईं हैं और निजीकरण मजबूत हुआ है उसका शिकार श्रमिक और कर्मचारी वर्ग हुआ है। अन्य वर्गों की ही तरह पत्रकारों का शोषण बढ़ा है। काम के घंटे बढ़ें हैं, असुरक्षा की भावना बढ़ी है, वेतन कम हुआ है। सालों साल काम करने वाला नियमित पत्रकार एक झटके में ” दूध में पड़ी मक्खी की तरह फेंक दिया जा रहा है और कहीं भी कोई सुगबुगाहट तक नहीं होती। सरकार की सेवा नियमावली श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम 1955 के तहत काम करने वाला नियमित पत्रकार मिनटों में संविदा पर कर दिया जाता है। तो वहीं मजीठिया वेजबोर्ड की रिपोर्ट कानूनी तरीके से लागू होने के बाद हिंदी के 99% अखबारों ने धीरे-धीरे कर बड़ी संख्या में कर्मचारियों की छंटनी कर दी। चूंकि पहले से ही बड़ी संख्या में नियमित रूप से काम कर रहे कर्मचारी जबरन संविदा पर ला दिये गए थे इसलिए उनकी कमर लगभग टूट चुकी थी। रही-सही कसर नये श्रम कानूनों में प्रस्तावित धाराओं की आशंका ने तोड़ दी। आज तथाकथित लोकतंत्र का चौथा स्तंभ का गुमान पाले पत्रकार की हैसियत ” कागजी शेर” बनकर रह गई है। कब तक रहेगी यह तो वक्त के गर्भ में है।