तो चंद महीने ही अपना ताप बिखेरेंगी आतिशी!

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New Delhi: Delhi Education Minister and AAP leader Atishi Singh addresses a press conference, in New Delhi, Tuesday, April 2, 2024. (PTI Photo/Vijay Verma)(PTI04_02_2024_000015A)
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अरुण श्रीवास्तव 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से केजरीवाल को लेना ही पड़ा मुख्यमंत्री पद छोड़ने का फैसला। राजनीतिक ‘रहट’ बने केजरीवाल ने आतिशी को दिल्ली की बागडोर सौंप कर अपने विरोधियों खासकर भाजपाइयों के हाथों परिवारवादी होने का मुद्दा जाने नहीं दिया। वर्ना होने वाले हरियाणा विधानसभा चुनाव व फरवरी में दिल्ली विधानसभा के लिए होने वाले चुनाव में उन पर परिवारवादी होने का आरोप चस्पा किया जाता यदि वो भी लालू यादव व हेमंत सोरेन की तरह परिवारीजन को सत्ता की “खड़ाऊं’ सौंपते। केजरीवाल ने दो दिन पहले सीएम पद छोड़ने की ऐलान किया और समय रहते छोड़ भी दिया। उन्होंने सत्ता की डोर का अंतिम सिरा गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि से आयी आतिशी मर्लेना को सौंप दिया।
अब यह अलग बात है कि सत्ता की बागडोर का अंतिम सिरा 43 वर्षीय आईटीसी को उस समय सौंपा जब सुप्रीम कोर्ट ने रिहाई के लिए ढेर सारी शर्तें जमानत के साथ शामिल कर दीं। हालांकि इस तरह की शर्तें जमानत पर रिहा होने वाले हर आरोपी के साथ होती हैं। देर में त्यागपत्र देने के लिए अब केजरीवाल चाहे जो भी तर्क दें लेकिन उच्च राजनीतिक आदर्शों का तकाजा था कि वह भी अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह आरोप लगते या गिरफ्तारी होने के पहले ही अपनी कुर्सी छोड़ देते क्योंकि छोड़ना ही पड़ा न ! किस राजनीतिक सलाहकार ने उन्हें पद न छोड़ने की सलाह दी ये पार्टी या केजरीवाल ही जानते होंगे। हो सकता है कि सलाहकारों को यह अनुमान रहा हो कि कुछ ही महीने में केजरीवाल बाइज्जत बरी हो जाएंगे या जमानत देते समय उन पर उस तरह की शर्तें नहीं थोपीं जाएंगी जो आमतौर पर अपराधियों पर थोपी जाती है। हालांकि इसका अंदेशा सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी के बाद ही दे दिया था। जेल में रहते हुए केजरीवाल न कोई फाइल पर साइन करते थे, न ही कोई बैठक करते थे और न कोई नीतिगत फैसला ले सकते थे। जबकि जेल में रहते सुब्रत राय को मीटिंग करने के लिए वातानुकूलित हॉल उपलब्ध कराया गया था। इसका पूरा खर्च सहारा वहन करती थी। इसी आधार पर केजरीवाल को भी इस तरह की सुविधाएं दी जा सकती थीं जो कि नहीं मिली। यदि सुब्रत रॉय को जेल में रहते ऑफिशल फाइलें देखने की, बैठकें करने की सुविधा दी जा सकती थी तो केजरीवाल को क्यों नहीं? केजरीवाल ने तो जनता का पैसा भी नहीं हड़पा था जबकि सहारा इंडिया पर जनता के जमाधान और उस पर देने वाले ब्याज को हड़पने का आरोप था। यहां यह भी बताते चलें कि जब सुब्रत राय को जमानत दी गई तो उन पर ऐसी कोई शर्त नहीं थोपी गई कि वो निकट के थाने पर जाकर हाजिरी देंगे शहर के किसी भी कार्यालय में नहीं जाएंगे खासकर उस कार्यालय में तो बिल्कुल नहीं जिसका मामला सेबी के सम्मुख विचाराधीन हो। इसका नतीजा यह रहा कि सुब्रतो राय छुट्टे सांड की तरह बिना किसी रोक-टोक के अपना काम करते रहे।
केजरीवाल की बातों से ही यह ज्ञात हुआ कि जब उन्होंने एक बार दिल्ली के उपराज्यपाल को 15 अगस्त के मौके पर आतिशी द्वारा झंडा फहराने के लिए चिट्ठी लिखी उसके बाद उनको नोटिस मिली कि अगर वह इस तरह की हरकत फिर करेंगे कि कड़ी कार्रवाई की जाएगी। यहां पर यह बताना भी उचित है कि जेल में रहते हुए भी सहारा इंडिया के मुखिया
वातानुकूलित हॉल में विभिन्न विभागों के अधिकारियों के साथ बैठकें करते थे और व्यवसायिक गतिविधियां जारी रखते थे। जबकि केजरीवाल को तय समय पर ही परिवार से मिलने की इजाजत थी।
यहां यह भी मौजू है कि सहारा प्रमुख सुब्रत राय को मां के निधन के बाद जमानत मिली तो उसके बाद उन्होंने पलट कर जेल की ओर देखा ही नहीं जबकि लोकसभा चुनाव के दौरान केजरीवाल को जमानत दी गई थी तो तय समय के बाद उनको वापस जेल में आना ही था।
ध्यान देने वाली बात यह भी कि केजरीवाल के ऊपर कोई देनदारी नहीं थी शराब घोटाले में आरोपी बनाए गए थे जबकि सुब्रत राय के कंपनी के मुखिया थे उन पर अपने निवेशकों का 25000 करोड़ 15% ब्याज के देने के आदेश के उलंघन का आरोप था। यदि केजरीवाल एड के द्वारा कई बार संबंध जारी करने के बाद भी आगे नहीं हुई तो सुब्रतो राय ने भी कई बार अदालत में हाजिर होने के आदेश का उलंघन किया था।
बात मुद्दे कि, केजरीवाल ने दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के जेल में जाने के बाद उनका कामकाज देखने वाली उनकी सलाहकार रह चुकी आतिशी को उप मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी सौंपी थी। हालांकि आतिशी के पास दिल्ली की जनता के लिए बहुत कुछ करने को है नहीं। एक तो पहले से ही तमाम अध्यादेशों के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट कर केंद्र सरकार ने दिल्ली के उप राज्यपाल को ‘थोक’ में अधिकार सौंप दिए। दूसरे फरवरी के अंत तक दिल्ली की जनता को नई सरकार मिलनी चाहिए क्योंकि इस सरकार का कार्यकाल फरवरी में समाप्त हो जाएगा। अब इतने कम समय में आतिशी कर क्या पाएंगी यह भी ध्यान देने वाली बात है। आतिशी को पार्टी के अंदर भी बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। सतही तौर पर तो पार्टी के अंदर गुटबाज़ी नहीं दिखाई देती पर मानव स्वभाव को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कई मंत्री व विधायक उनसे काफी वरिष्ठ हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता से मंत्री बने सौरभ भारद्वाज से भी कई विभाग लेकर आतिशी को केजरीवाल ने सौंपे थे। ऐसे में सबको एक साथ लेकर चलना भी ‘टेढ़ी खीर’ है फिर क़दम क़दम पर एलजी के रोड़े का भी आतिशी को सामना करना पड़ेगा और केजरीवाल को भी इस पर नज़र रखनी पड़ेगी कि आतिशी जीतन राम मांझी या चंपई सोरेन न बन जाएं।

 

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