मुठ्ठी भर थे वो,
फिर भी सदियों राज किया,
अपनों की कमज़ोरी से,
उन्होंने ये खेल रचा।
स्वर्ण भूमि पर,
स्वार्थ का जाल बिछाया,
लालच की जंजीरों से,
हमको गुलाम बनाया।
जब जयचंद ने हारा स्वाभिमान,
पृथ्वीराज का टूटा अभिमान,
मीर जाफर ने बेची इज़्ज़त,
और बिछा दी पराधीनता की शमशीर।
कारगिल की चोटें ताज़ा हैं,
आज भी कुछ बेचते हैं ईमान,
मुठ्ठी भर सिक्कों में,
रखते हैं देश का स्वाभिमान।
अभी भी गद्दारों का साया है,
अपने ही बने हैं बेगाने,
कभी सीमा पर, कभी संसद में,
हर कोने में हैं ये अनजाने।
मगर याद रहे,
कभी झुकी थी, पर मिटी नहीं ये धरती,
गद्दारी की हर साज़िश को,
आखिर मिट्टी में मिलाया है।
प्रियंका सौरभ