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जिम्मेदारी का एहसास और फर्ज अदायगी

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(भाग—5)
कर्पूरी ठाकुर हरावल दस्ते के सोशलिस्ट थे!

प्रोफेसर राजकुमार जैन

कर्पूरी जी जहां एक और विधानसभा में समसामयिक प्रश्नों पर रोजमर्रा की बहस में हिस्सा लेकर सोशलिस्ट नजरिए को पेश करते थे वहीं पूरे बिहार में उन दिनों सोशलिस्टों द्वारा अन्याय, जुल्म, गैरबराबरी के खिलाफ संघर्ष, धरना प्रदर्शन, सत्याग्रह, प्रतिकार होता रहता था। पुलिसिया जुल्म को भी वे सदन में उठाते रहते थे। 10 अगस्त 1965 को गांधी मैदान में सोशलिस्टों द्वारा हुए प्रदर्शन पर पुलिस का भीष्म लाठी प्रहार हुआ। उस पर मुख्यमंत्री ने अपने बयान में कहा कि श्री रामानंद तिवारी, कर्पूरी ठाकुर रामचरण सिंह व अन्य व्यक्तियों पर लाठी -प्रहार के परिणाम स्वरूप जो जख्म आए थे वह साधारण थे। कर्पूरी जी ने इसका खंडन करते हुए कहा, अध्यक्ष महोदय, मुख्यमंत्री का उक्त बयान सच्चाई से कोसों दूर है। यह प्रामाणिक तथ्य है कि चंद्रशेखर सिंह के माथे पर इतना निर्मम प्रहार हुआ था कि वे अब तक पटना अस्पताल में जीवन और मृत्यु के झूले के बीच झूल रहे हैं। उनकी जिंदगी अभी भी खतरे से खाली नहीं कहीं जा सकती। रामचरण सिंह एमएलए पर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता श्री योगेंद्र ठाकुर पर और मेरे ऊपर अंधाधुंध इतना लाठी का प्रहार हुआ था कि दूसरे जख्मों के अलावे श्री राम चरण सिंह का दाहिना हाथ टूट गया है (फैक्चर हो गया है) श्री योगेंद्र ठाकुर के दाहिने हाथ का निचला हिस्सा टूट गया मेरा बायां हाथ टूट गया, फ्रैक्चर हो गया। डॉक्टरो के कथनानुसार उन जख्मों के ठीक होने में महीनो का समय लगेगा। श्री रामानंद तिवारी पर इतनी गहरी मार पड़ी कि जेल में कई दिनों का उनके मुंह से खून आता था। अत्यंत दर्द के कारण में अभी तक किसी दूसरे का सहारा लिए बिना ठीक से चलने फिरने में असमर्थ है। अध्यक्ष महोदय, स्वयं डॉक्टरी- परीक्षा और एक्स-रे रिपोर्ट से साफ है कि हममें से कितनों के जख्म साधारण नहीं, बल्कि सख्त हैं। सिंपुल नहीं ग्रिवीयस
है।)
. कर्पूरी जी सोशलिस्ट तहरीक के रहनुमाओ के लिए खास इज्जत, मुकाम रखते थे। सूरज नारायण सिंह जिन्होंने हजारीबाग जेल से जयप्रकाश नारायण को अपने कंधे पर बैठाकर फरार कराया था। उस महान सोशलिस्ट की हत्या पर सदन में बहुत ही मार्मिक प्रतिक्रिया, रोष व्यक्त करते हुए कहा, जहां तक सूरज भाई का सवाल है हम लोग शुरू से कह रहे हैं उनकी स्वाभाविक मृत्यु नहीं हुई, उनकी हत्या की गई। आज इसे दोहराना चाहता हूं कि जानबूझकर उनको मार दिया गया, और मार दिया बहुत बेरहमी के साथ, जिस तरह से जानवरों को लाठी से मारा जाता है, उसी तरह से उनको मार दिया गया। उनकी लाश को मैंने रांची अस्पताल में देखा। उनके शरीर में कोई हड्डी नहीं थी जो लाठी के प्रहार से बची हुई थ जिनको स्वतंत्रता के सेनानी मानते हैं, जिनको सेनापति मानते हैं, जिनको देशभक्त मानते हैं, त्यागी मानते हैं.और जिनको हम जान देने वाला मानते हैं. ऐसे व्यक्ति को इस तरह से मार दिया जाए,यह कोई साधन बात नहीं है, सचमुच असाधारण बात है। बांस घाट पर उनकी लाश चिता पर जली, उनकी लाश ही नहीं जली, बल्कि प्रजातंत्र और समाजवाद चिता पर जला। अध्यक्ष महोदय, जब देश में प्रजातंत्र समाजवाद का डंका बज रहा है तो मजदूरो का संगठन करना जुर्म है? कहा जाएगा, नहीं। क्या मजदूरो का आंदोलन करना जुर्म है? कहा जाएगा, नहीं। क्या शांतिपूर्ण ढंग से उनकी समस्याओं का समाधान खोजना जुर्म है,? कहा जाएगा नही। क्या अनशन करना, जिसे महात्मा गांधी ने अपना अस्त्र मान लिया था, ऐसे अस्त्र का सहारा लेना, मजदूरों की समस्याओं का समाधान करने के लिए जुर्म है? कहा जाएगा नहीं। अगर कहा जाएगा की जुर्म नहीं है, तो क्या अनशन पर बैठे हुए शांत और संकल्पशील श्री सूरज नारायण सिंह को लाठी के प्रहार से मार देना अपराध नहीं है, पाप नहीं है जुर्म नहीं है ?कहना पड़ेगा कि यह अपराध है,यह पाप है और जुर्म है। मगर”” अध्यक्ष महोदय इस सरकार ने आज तक इसको अपराध नहीं माना पाप नहीं माना। आप जानते हैं कि वे (सूरज नारायण सिंह) अहिंसक क्रांतिकारी नहीं थे, वे हिंसक क्रांतिकारी थे। वे बम, पिस्टौल, राइफल, बंदूक के साथ भगत सिंह के साथ पंजाब की तरफ, बंगाल की तरफ, उत्तर प्रदेश की तरफ, भगत सिंह के साथ अंग्रेजों के खिलाफ काम किए, लेकिन अंग्रेजी राज ने उनकी हत्या नहीं की। अंग्रेजी राज ने उन पर गोली नहीं चलाई। अध्यक्ष महोदय, आपको पता है की हिंदुस्तान का सबसे बड़ा जमीदार दरभंगा महाराज के खिलाफ 1933 और 1938 ईस्वी में सत्याग्रह आंदोलन संचालित किया, तो इतना बड़ा जमीदार अपने लट्ठेतो से सूरज बाबू की हत्या नहीं करवा सका। हजारीबाग जेल से निकल भागने के बाद नेपाल जेल को तोड़ने के बाद सूरज बाबू जब गिरफ्तार हुए तो उस समय की खूंखार अंग्रेजी सरकार ने लाठी और गोली चलाकर उनकी हत्या नहीं की। उनके त्याग और बलिदान से ही इस देश को आजादी मिली और सूरज भाई की हड्डी की बनी हुई इस कांग्रेस सरकार ने उनकी जान ले ली। वे मर गए लड़ते-लड़ते मर गए। उन्होंने देश के लिए लड़ाई लड़ी। वे मजदूरों के लिए मरे, समाजवाद के लिए मरे, फख्र है
हम लोगों को, गौरव है, हम लोगों को। हम लोगों को यहां एक चुनौती भी है, उस चुनौती को स्वीकार करने की तमन्ना जरूर है।उस महान व्यक्ति को जितनी श्रद्धांजलि अर्पित की जाए, व थोड़ी होगी। उनके शोक- संतप्त परिवार के लिए जो कुछ भी कहा जाए थोड़ा होगा। हमको, आपको, सबकों इस चुनौती को स्वीकार करना पड़ेगा और चुनौती का जवाब देना पड़ेगा, इन्हीं शब्दों के साथ में अपना स्थान ग्रहण करता हूं।
एक दूसरे घटनाक्रम में समस्तीपुर कें. एस डीं ओ ने एक जमींदार की शिकायत पर सोशलिस्ट विधायक वशिष्ठ नारायण सिंह के नाम वार्निंग नोटिस जारी कर दिया। जिसमें लिखा था आप और आपकी सोशलिस्ट पार्टी इकट्ठा होकर लूटपाट करते हैं, मजमा करके जायदाद को लूटपाट करते हैं और बार-बार करते हैं। जिसमें नुकसान होता है। आप इस तरह की बेजा हरकत करने नहीं जाएंगे, ताकीद जानिए। कर्पूरी ठाकुर ने जवाब दिया अध्यक्ष महोदय, हमारी सोशलिस्ट पार्टी बुज्जदिलों की जमात नहीं है। हम अगर लूटपाट करेंगे तो बहादुरों की तरह से कबूल करेंगे कि हमने ऐसा किया है।
अपनी सारी व्यस्तता के बावजूद कर्पूरी जी, महान देशभक्तों, सोशलिस्ट नेताओं, कार्यकर्ताओं को कभी विस्मित नहीं करते थे। सदन में अनेको भुला दी गई हस्तियों को वह हमेशा खिराज-ए अकीदत, पेश करते थे, आदर सम्मान देते थे। जयप्रकाश बाबू की पत्नी प्रभावती जी को श्रद्धांजलि देते उन्होंने कहा। प्रभावती जी इसी बिहार की मिट्टी में जन्मी, पली और मरीं। कहना नहीं होगा की प्रभावती जी एक महान बाप की बेटी थी। कांग्रेस के संगठन को जिस व्यक्ति ने सारे प्रदेश में फैलाया था आजादी की लड़ाई की, सन 1920 – 21 ई के असहयोग आंदोलन की जब दूंदुभी बजी थी,तो जिस व्यक्ति ने उसमें जबरदस्त हिस्सा लिया था, जिसका संबंध सिर्फ सारण से ही नहीं था दरभंगा से भी था, वे केवल उस बाप की बेटी ही नहीं थी बल्कि इस देश के महान स्वतंत्रता सेनानी, श्री जयप्रकाश नारायण की धर्मपत्नी तो थी। इसके साथ-साथ स्वयं प्रभावती जी ने आजादी की लड़ाई में बहुत बड़ा हिस्सा लिया था। महात्मा गांधी के आश्रम में रहकर और अलग रहकर वे बार-बार जेल जाती थी। अनेक राजनीति के कार्यों में हाथ बंटाया, रचनात्मक कार्यों में न केवल भाग लिया था, बल्कि इन्होंने अनेक रचनात्मक संस्थाओं को जन्म भी दिया था। उनकी मृत्यु हो गई लेकिन सदन में उनके प्रति शोक प्रस्ताव नहीं आया। मैं मानता हूं कि यह भूल हुई है, किसी ने जानबूझकर ऐसा किया हो, ऐसी बात नहीं है। मैं समझता हूं कि आज नहीं आया तो इसे कल आना चाहिए और आपकी ओर से उनके प्रति भी सदन में श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए। उनकी सेवाओं का समर्थन करना चाहिए।
.. . जारी है,