देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
क्या आप भी बोलते हैं हैप्पी क्रिसमस डे?
क्या आप भी देते हैं बड़े दिन की बधाइयां?
यदि हां तो जानिए इसकी वास्तविकता।
ईश्वर ने मनुष्य को सृष्टि के प्रारंभ में वेद का ज्ञान दिया और मनुष्य से यह अपेक्षा की कि इस ज्ञान को आगे बढ़ना। उसी कड़ी में मैं अपना उत्तरदायित्व निर्वहन कर रहा हूं। जितना मैं जानता हूं उतना आपके समक्ष प्रस्तुत कर देता हूं। मैं उसे ज्ञान रूपी कड़ी को काफी अध्ययन के उपरांत जोड़-जोड़ कर प्रस्तुत करता हूं। इस प्रकार मैं केवल एक प्रस्तोता होता हूं।
बड़ा दिन या बढ़ा दिन!
क्या है इसका इतिहास?
क्या यह जीसस से जुड़ा हुआ है?
क्या यह santa-claus से जुड़ा हुआ है।
क्या यह भीष्म पितामह से संबंध रखता है?
वर्तमान काल से लगभग 5000 वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरव पांडवों के मध्य हुआ धर्म की स्थापना के लिए लड़ा गया महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। तथा तब धर्म संबंधी शास्त्रीय बातें और दान की विधि पितामह के श्रीमुख से सुदर्शन चक्रधारी श्री कृष्ण महाराज, पांडूनंदन नरेश युधिष्ठिर आदि ने सुन ली और जब सब शंकाओं का समाधान प्राप्त कर लिया अर्थात धर्म अर्थ के विषय में उठने वाले संपूर्ण संशय को मिटा लिया था और जब सब चुप हो गए उस समय सारा राजमंडल देर तक स्तब्ध होकर बैठा रहा तो महर्षि व्यास जी ने भीष्म पितामह से पूछा कि अब राजा युधिष्ठिर शांत हो चुके हैं ,इनके शोक और संदेह निवृत हो चुके हैं, यह अपने भाइयों, अनुगामी ,राजा और भगवान श्री कृष्ण के साथ आपके समीप बैठे हुए हैं। अब आप इन्हें हस्तिनापुर जाने की आज्ञा दीजिए।
ऐसा सुनकर महाराज युधिष्ठिर को हस्तिनापुर जाने की आज्ञा अपनी मधुर वाणी में भीष्म पितामह ने दी।
बेटा! जब सूर्यनारायण दक्षिणायन से निवृत्त होकर उत्तरायण पर आ जाएं उस समय फिर हमारे पास आना।
युधिष्ठिर ने’ बहुत अच्छा’ कहकर पितामह की आज्ञा स्वीकार की और प्रणाम करके परिवार सहित हस्तिनापुर की ओर चले।
तत्पश्चात राजा युधिष्ठिर ने 50 दिनों तक हस्तिनापुर में रहने के बाद जब सूर्य देव को दक्षिणायन से निवृत्त होकर उत्तरायण में आए देखा तो उन्हें कुरुश्रेष्ठ पितामह भीष्म जी की मृत्यु का स्मरण हो आया। तथा वे भीष्म पितामह की अंत्येष्टि यज्ञ कराने ब्राह्मणों के साथ हस्तिनापुर से कुरुक्षेत्र के मैदान में सरसैया पर लेटे हुए भीष्म पितामह के पास चलने को उद्यत हुए। लेकिन जाने से पहले उन्होंने भीष्म जी का अंत्येष्टि संस्कार करने के लिए घृत, माला, सुगंधित द्रव्य, रेशमी वस्त्र, चंदन, कालाअगुरु, अच्छे -अच्छे फूल तथा नाना प्रकार के रत्न आदि सामग्री भेज दी।
धृतराष्ट्र ,गांधारी, माता कुंती, सब भाई, भगवान श्रीकृष्ण, बुद्धिमान मंत्री काका विदुर और सात्यकी को साथ लेकर वह हस्तिनापुर नगर से बाहर निकले। उनके साथ रथ, हाथी, घोड़े आदि राजोचित उपकरण और वैभव का महान ठाठ बाट था ।महातेजस्वी युधिष्ठिर भीष्म जी के स्थापित किए हुए विविध अग्नियों को आगे रखकर स्वयं पीछे -पीछे चल रहे थे ।यथासमय में कुरुक्षेत्र में शांतनुनंदन पितामह भीष्म जी के पास जा पहुंचे ।उस समय वहां पराशरनंदन व्यास, देव ऋषि नारद और देवल ऋषि उनके पास बैठे थे। तथा महाभारत युद्ध में मरने से बचे हुए और अन्य -अन्य देशों से आए हुए बहुत से राजा उन महात्मा की सब ओर से रक्षा कर रहे थे। धर्मराज युधिष्ठिर दूर से ही वीरशैया पर लेटे हुए दादा भीष्म जी का दर्शन करके भाइयों सहित रथ से उतर और निकट जाकर उन्होंने भीष्म पितामह तथा व्यास आदि ऋषियों को ससत्कार प्रणाम किया ।इसके बाद उन ऋषियों ने भी उनका अभिनंदन किया। फिर ऋषियों से घिरे हुए पितामह के पास जाकर बोले दादा जी मैं युधिष्ठिर आपकी सेवा में उपस्थित हूं। आपके चरणों में प्रणाम करता हूं। यदि आपको मेरी बात सुनाई देती हो तो आज्ञा दीजिए मैं आपकी क्या सेवा करूं?
आपके बताए हुए समय पर अग्नियों को लेकर में उपस्थित हुआ हूं। आपके महातेजस्वी पुत्र राजा धृतराष्ट्र भी अपने मंत्रियों के साथ यहां पधारे हुए हैं। भगवान श्री कृष्ण तथा मरने से बचे हुए समस्त राजा और कुरुजांगल देश के लोग भी आए हुए हैं। आप आंखें खोलकर इन सब की ओर देखिए। आपके आदेश एवं कथनानुसार इस समय के लिए जो कुछ करना आवश्यक था वह सब प्रबंध कर लिया गया है। अर्थात सभी उपयोगी वस्तुओं का प्रबंध हो चुका है।
परम बुद्धिमान युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने पर गंगानंदन भीष्म जी ने आंखें खोल कर अपने चारों ओर खड़े हुए समस्त भरतवंशी राजाओं की ओर देखा । फिर युधिष्ठिर का हाथ पकड़कर मेघ के समान गंभीर वाणी में यह समयोचित वचन कहा।
बेटा! युधिष्ठिर तुम अपने मंत्रियों के साथ यहां आ गए यह बड़ी अच्छी बात हुई।
” भगवान सूर्य अब दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर आ गए ”
इन तीखे बाणों की शैया पर शयन करते हुए आज मुझे 58 दिन हो गए ।किंतु ये दिन मेरे लिए 100 वर्ष के समान बीते हैं। इस समय चंद्रमास के अनुसार माघ का महीना प्राप्त हुआ है। इसका यह शुक्ल पक्ष चल रहा है। जिसका एक भाग बीत चुका है और 3 भाग बाकी है।
बहुत सारा संबोधन करने के पश्चात अंत में भीष्म पितामह ने श्री कृष्ण जी से कहा कि आप मेरा उद्धार करें और मुझे जाने की आज्ञा दीजिए कृष्ण जी महाराज।
श्री कृष्ण जी ने कहा भीष्म जी मैं आपको सहर्ष आज्ञा देता हूं।
आप वसुलोक को जाइए। इस लोक में आपके द्वारा अनु मात्र भी पाप नहीं हुआ है ।राजऋषि आप दूसरे मार्कंडेय के समान पित्रभक्त हैं। इसलिए मृत्यु विनीत दासी की भांति आपके वश में हैं। भगवान के ऐसा कहने पर गंगानंदन भीष्म ने पांडवों तथा धृतराष्ट्र आदि सभी सुहृदों से कहा अब मैं प्राणों का त्याग करना चाहता हूं। तुम सब लोग मुझे इसलिए आज्ञा दो , ऐसा आशीर्वाद देते हुए चुप हो गए ।
तदनंतर वे मन सहित प्राणवायु को क्रमशः भिन्न भिन्न धारणाओं में स्थापित करने लगे। इस तरह योगिक क्रिया के द्वारा प्राण ऊपर चढ़ने लगे। अंततः मृत्यु को प्राप्त हुए।
महाभारत के अनुशासन पर्व से यह सब उल्लेख करने का हमारा दृष्टिकोण मात्र अपने सुविज्ञ पाठकों के समक्ष यह तथ्य स्थापित करना है कि माघ मास के शुक्ल पक्ष में जब सूर्य उत्तरायण हो गए थे तब भीष्म पितामह ने अपने योगिक क्रिया से प्राणों को त्यागा था।
अब इस समय की गणना करते हैं।
महाभारत का युद्ध 18 दिन चला था ।भीष्म पितामह ने 10 दिन तक युद्ध किया था और दसवें दिन बाणों की शैया पर लेट गए थे। उसके 8 दिन बाद तक युद्ध और चला। जब युधिष्ठिर आदि से वार्ता करने के पश्चात 50 दिन का समय युधिष्ठिर को लौट कर आने के लिए दिया कि 50 दिन बाद में आना । युधिष्ठिर जी जब निश्चित समय पर पहुंचते हैं तो उस समय भीष्म पितामह को सरशैया पर पड़े हुए 58 दिन व्यतीत हो चुके थे।
जो 2 दिन कम 2 माह का समय होता है। माघ से पहला महीना पौष होता है और पौष से पूर्व का महीना आश्विन ( अगहन)होता है। और आश्विन अथवा अगहन से पूर्व का महीना कार्तिक होता है। जिसका अर्थ होता है कि महाभारत के युद्ध के लिए दूर-दूर देशों की सेनाऐं कार्तिक माह के द्वितीय पक्ष में कुरुक्षेत्र के मैदान में आने शुरू हो गई थी। अपने तंबू आदि लगाने शुरू कर दिए थे शस्त्र- अस्त्र इकट्ठे करने शुरू कर दिए थे। इसको कभी-कभी गलती से हम कार्तिक माह से वास्तविक युद्ध होना प्रारंभ कह देते हैं समझ लेते हैं जबकि यह ऐसा कहना गलत है।
जब युधिष्ठिर जी भीष्म पितामह के पास पहुंचे तो वह माघ मास के शुक्ल पक्ष था। जिसका एक भाग बीत चुका था अर्थात 3 भाग शेष थे। इस प्रकार वह सप्तमी – अष्टमी का माघ मास का कृष्ण पक्ष का दिन रहा होगा।
अर्थात माघ मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भीष्म पितामह ने प्राण त्यागे थे। जब सूर्य दक्षिण गोलार्ध से उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश कर गए थे।
अभी इसको दूसरे दृष्टिकोण से देखते हैं। और वह दृष्टिकोण है हमारा कि भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने के बाद मरे थे और उनकी अंत्येष्टि उत्तरायण होने के बाद हुई थी।
वर्तमान समय में जो अंग्रेजी के महीने प्रचलित हैं उनमें 21 दिसंबर को सबसे छोटा दिन होता है और 22 दिसंबर की स्थिति भी 21 दिसंबर के समान रहती है। 23 को सूर्य उत्तरायण की ओर बढ़ना शुरू होते हैं तथा 24 और 25 को सूर्य उत्तरायण की ओर अग्रसर हो जाते हैं। इस प्रकार वह करीब 25 दिसंबर का समय था जिस समय भीष्म पितामह ने अपना शरीर त्यागा था।
भीष्म पितामह से जुड़ी हुई इस कथानक को जीसस या ईसा मसीह से जोड़ने का ईसाईयों ने प्रयास किया। भीष्म पितामह एक महापुरुष थे। भीष्म पितामह को उनके सिर पर सफेद बालों को एक नया आवरण पहना कर सैंटा क्लॉस बनाए जाने की प्रथा महाभारत के करीब 3000 वर्ष बाद अब से करीब 2000 वर्ष पहले ईसाई धर्म के प्रचलन पर चली। दो ढाई हजार वर्ष पहले और कोई धर्म इस धरा पर नहीं था। केवल एक ही वैदिक धर्म था।
सेन्टा क्लाज एक काल्पनिक चरित्र है। यह शब्द सेंटा नहीं बल्कि संत है। जिसका उच्चारण अंग्रेजी में सेंट करते हैं। उसी का अपभ्रंश होकर सेंटा बना। भीष्म पितामह जैसा महान संत और कौन हो सकता है?
जिन्होंने इतनी बड़ी तपस्या की तथा अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए पितृ भक्त होते हुए प्रण किया कि मैं शादी ही नहीं कराऊंगा।
इसलिए अपने प्राचीन और गौरवपूर्ण इतिहास के महापुरुषों को पहचानो ।अंग्रेजीयत और अंग्रेजों के एवं ईसाईयों के चक्कर में मत आओ। आपके महापुरुषों के चरित्र महान एवं धवल हैं। उनकी स्मृति करो। उनके चरित्र की पूजा करो। नकली santa-clause से अपने बच्चों को बचाओ। बच्चों को असली संत भीष्म पितामह की पहचान कराते हुए उनके स्मरण में नाटक करना शुरू करो । अपनी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति, इतिहास को बचाओ क्योंकि जिनकी सभ्यता, संस्कृति ,इतिहास मिट जाते हैं वह कौम मिट जाती। वर्तमान युग में जब हम अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजकर 25 दिसंबर से आगे- पीछे 10 दिन तक सैंटा- क्लॉस के लाल रंग के कपड़े पहना कर स्कूल में भेजना अपना गौरव मानते हैं तो मानो वहीं हम अपनी सभ्यता ,संस्कृति और इतिहास का विलूपीकरण विद्रूपीकरण तथा विनष्टिकरण करते हुए होते हैं। अपने बच्चों को, अपनी आगामी पीढ़ी को यह बताइए कि यह बढ़ा दिन अर्थात जो 21 दिसंबर में सबसे छोटा था जो 22 दिसंबर में भी 21 के बराबर था, वह 23 को बढ़ा, 24 को बढ़ा और फिर 25 दिसंबर को बढ़ा तो यह बढा दिन हुआ । जिस दिन महा तपस्वी संत पितामह भीष्म ने अपने प्राण त्यागे थे। उस बड़े तपस्वी के महानिर्वाण दिवस को बढा या बड़ा दिन भी कह सकते हैं।
मैं अपनी बात को कहने में कितना सफल हो पाया यह मैं आप सुबुद्ध,सुविज्ञ विद्वान पाठकों के ऊपर छोड़ता हूं। क्योंकि समझदार को तो इशारा ही पर्याप्त है।