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बालमन को लुभाने वाली मनोरंजक एवं संवेदनशील कविताओं से सजी पठनीय कृति ‘प्रज्ञान’

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(प्रज्ञान, बाल साहित्यकार डॉ. सत्यवान सौरभ जी की इक्यावन बाल कविताओं का सुन्दर संग्रह है। इन कविताओं में जीवन के विविध रंग देखने को मिलते हैं। सन् 1989 में हरियाणा में जन्मे डॉ. सत्यवान सौरभ बालसाहित्य के एक सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। साहित्यकार, पत्रकार और अनुवादक डॉ. सत्यवान ‘सौरभ’ ने बच्चों के साथ ही बड़ों के लिए भी विपुल साहित्य सृजन किया है। बाल कविता की पुस्तकों के साथ ही प्रौढ़ साहित्य में दोहा, कथा, कविता, अनुवाद, रूपान्तर, सम्पादन की कई कृतियों का सृजन कर उन्होंने हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। बीस वर्षों से स्वतंत्र रूप से लेखन कर साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं।)

सुरेश चन्द्र ‘सर्वहारा’

‘प्रज्ञान’ संग्रह की पहली कविता ‘बने संतान आदर्श हमारी’ है इसमें एक माता-पिता अपने आने वाले बच्चे के लिए सपने संजोते है। माता-पिता अपना बच्चा कैसा चाहते है। अपने आने वाले बच्चे के बारे में कवि सोचता है। हमारे नायकों का उदाहरण देते हुए कवि का कहना है कि उनका बच्चा भी जीवन में उनके अच्छे गुणों का समावेश करें और उनके बताये रास्ते पर चले। इस कविता में हमारे वीर-वीरांगनाओं का स्वाभाविक चित्रण हुआ है। कवि का मानना है कि हर आम बच्चे में हमारे आदर्शों का होना जरुरी है –

पुत्र हो तो प्रह्लाद-सा, राह धर्म की चलता जाये।
ध्रुव तारा-सा अटल बने वो, सबको सत्य पथ दिखलाये।।
पुत्री जनकर मैत्रियी, गार्गी, ज्ञान की ज्योत जलवा दूँ मैं।
बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।।

बालसाहित्य बच्चों का साहित्य है। इसमें बच्चों की कोमल भावनाओं का ध्यान रखा जाता है। बच्चे मनोरंजन पसन्द करते हैं, लेकिन कवि चाहता है कि बच्चे जीवन के विषय में भी जानकारी प्राप्त करें। आसपास जो विसंगतियाँ फैली हुई हैं उनसे बच्चों को अवगत कराना भी कवि अपना धर्म समझता है। वह बच्चों की संवेदनशीलता को सम्पूर्ण समाज तक विस्तृत करना चाहता है। ‘गूगल की आगोश में ‘ कविता में कवि की यह भावप्रवण संवेदना मर्मस्पर्शी है –

छीन लिए हैं फ़ोन ने, बचपन से सब चाव।
दादी बैठी देखती, पीढ़ी में बदलाव।।
मन बातों को तरसता, समझे घर में कौन ।
दामन थामे फ़ोन का, बैठे हैं सब मौन।।

आज के बच्चे ही कल के कर्णधार हैं। बड़े होकर ये ही देश की बागडोर सँभालेंगे। बच्चों में प्रारम्भ से ही देशप्रेम की भावना भरना आवश्यक है, जिससे कि बड़े होकर वे अच्छे नागरिक बन सकें और देश के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वाहन भली -भाँति कर सकें। ‘उड़े तिरंगा बीच नभ’ कविता में कवि ने अपने देश के प्रति बालकों के मन में गौरव का भाव जगाते हुए कहा है –

देश प्रेम वो प्रेम है, खींचे अपनी ओर।
उड़े तिरंगा बीच नभ, उठती खूब हिलोर।।
शान तिरंगा की रहे, दिल में लो ये ठान।
हर घर, हर दिल में रहे, बन जाए पहचान।।

बचपन का समय जीवन का स्वर्ण काल होता है। यह समय ही व्यक्ति के भविष्य की दशा एवं दिशा निर्धारित करता है। बचपन ही वह नींव है जिस पर बालक के भविष्य की इमारत का निर्माण होता है। बचपन में पड़े संस्कारों का प्रभाव जीवन भर बना रहता है। कवि चाहता है कि बच्चे अपने समय का सदुपयोग कर जीवन को सुन्दर बनाएँ। ‘नैतिकता की राह’ कविता के माध्यम से कवि समय के साथ चलने का संदेश देते हुए कहता है –

कभी न भूलें हम सभी, शिक्षक का उपकार।
रचकर नव कीर्तिमान दे, गुरु दक्षिणा उपहार।।
नैतिकता की राह से, दे जीवन सोपान।
उनके आशीर्वाद से, बनते हम इंसान।।

पर्यावरण संरक्षण आज के समय की बहुत बड़ी आवश्यकता है। बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण आज साँस लेना भी दूभर होता जा रहा है। पेड़ हमें प्राणवायु देते हैं और वातावरण में नमी बनाए रखकर तापमान भी नियंत्रित करते हैं। पेड़ों की सघनता वर्षा लाने में सहायक होती है । कवि ‘ओजोन’ कविता के माध्यम से बच्चों को पेड़ों का महत्त्व समझाते हुए वृक्षारोपण के लिए प्रेरित करता है –

आज बिषैली गैस पर, नज़र रखेगा कौन।
आग उगलती चिमनियाँ, चीर रही ओजोन।।
बढ़े प्रदूषण या घटे, हमको क्या है आज।
लूट रहे है मिल सभी, हम धरा की लाज।।

बच्चों के जीवन में मम्मी-पापा का स्थान सर्वोपरि होता है। वे अपनी हर आवश्यकता की पूर्ति के लिए मम्मी-पापा पर निर्भर रहते हैं। बिना मम्मी-पापा के बच्चों के सुखमय जीवन और विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस काव्य संग्रह के शीर्षक की आधार बनी कविता ‘रिश्ते’ में कवि ने बच्चे के जीवन में मम्मी और पापा की भूमिकाओं का चित्रण करते हुए कहा है –

पाई-पाई जोड़ता, पिता यहाँ दिन रात।
देता हैं औलाद को, खुशियों की सौगात।।
माँ बच्चो की पीर को, समझे अपनी पीर।
सिर्फ इसी के पास है, ऐसी ये तासीर।।

जीवन में हमेशा गतिशील बने रहने से निराशा और उदासी नहीं रहती है। हमें बाधाओं से बिना डरे निरन्तर आगे बढ़ने के प्रयास करते रहना चाहिए। कवि नदी के उदाहरण के द्वारा बच्चों को बिना घबराए अपना निर्धारित काम करते रहने का सकारात्मक संदेश देते हुए ‘समय सिंधु’ कविता में कहता है –

पथ के शूलों से डरे,यदि राही के पाँव।
कैसे पहुंचेगा भला,वह प्रियतम के गाँव।।
रुको नहीं चलते रहो, जीवन है संघर्ष।
नीलकंठ होकर जियो, विष तुम पियो सहर्ष।।

बचपन मधुर कल्पनाओं का समय होता है। हर बच्चा अपने बचपन में बड़े – बड़े सपने देखता है। ये सपने ही बच्चों की आशाओं के सुन्दर गहने हैं। जीवन के प्रति यह आशावादी दृष्टिकोण बच्चों के जीवन में उत्साह और उमंग के रंग भर देता है। बाल मनोविज्ञान पर आधारित कविता ‘बचपन के गीत’ में कवि ने बच्चों की इन्हीं भावनाओं को शब्द देते हुए कहा है –

बचपन में भी खूब थे,कैसे-कैसे खेल ।
नाव चलाते रेत में, उड़ती नभ में रेल ।।
यादों में बसता रहा, बचपन का वो गाँव ।
कच्चे घर का आँगना, और नीम की छाँव ।

बच्चे प्रकृति से अपनापन अनुभव करते हैं। प्राकृतिक दृश्य उन्हें बहुत लुभाते हैं। कवि के अन्दर का नन्हा बच्चा भी प्रकृति के इन मनोरम दृश्यों को मुग्ध होकर देखता है। ‘बचपन के वो गीत’ एक ऐसी ही कविता है जिसमें कवि ने बचपन का मानवीकरण करते हुए इसके क्षण-क्षण परिवर्तित रूप का बड़ा ही मनोहारी चित्रण किया है। प्रतीकात्मक और लाक्षणिक शैली का प्रयोग देखते ही बनता है –

बैठे-बैठे जब कभी, आता बचपन याद ।
मन चंचल करने लगे, परियों से संवाद ।।
छीन लिए हैं फ़ोन ने, बचपन से सब चाव ।
दादी बैठी देखती, पीढ़ी में बदलाव ।।

कवि का मानना है कि हमें परिवर्तनों को सहज स्वीकार करना चाहिए। बड़े – बुजुर्ग लोग हर समय परिवार के लिए मजबूत स्तम्भ रहें हैं। कवि को उनका जाना पसन्द नहीं है। दादा -दादी के जाने के बाद कवि का जीवन सूना हो गया है, कवि तरह – तरह की कल्पना करता है जिससे कि हर समय उसे उनकी याद आती है। ‘दादा-दादी ‘ कविता में कवि की कल्पना की ताजगी द्रष्टव्य है –

दादा-दादी बिन हुआ, सूना-सूना द्वार |
कौन कहानी अब कहे, दे लोरी का प्यार ।।
दादा-दादी बन गए, केवल अब फरियाद।
खुशियां आँगन की करे, रह-रह उनको याद।।

कवि की संवेदनशीलता का हाल यह है कि वह पुराने हो चुके झाड़ू में भी वृद्ध लोगों की छवि देखता है। कवि का हृदय वृद्धों की उपेक्षा से व्यथित है। ‘काम लेकर फेंक देने की प्रवृत्ति’, स्वार्थ और संकीर्णता पर आधारित है। वृद्धों का सम्मान करने की सीख देती कविता ‘वृद्धों की हर बात का’ अद्भुत है –

वृद्धों की हर बात का, रखता कौन खयाल।
आधुनिकता की आड़ में, हर घर है बेहाल।।
यश वैभव सुख शांति के, यही सिद्ध सोपान।
घर है बिना बुजुर्ग के, खाली एक मकान।।

उक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि प्रज्ञान बाल संग्रह की रचनाओं का प्रमुख स्वर मानवीय संवेदना और करुणा है। पर्यावरण, मौसम, धूप, सुबह, चिड़िया, तितली, गिलहरी, पत्ते, घास, हाथी, बादल,झील, चाँद, सूरज, बचपन, मम्मी, पापा, दीया, चिठ्ठी-पत्री, बेटियां, नया साल, देश, त्यौहार, नैतिकता, क्षमा भाव, हमारे शहीद, ट्यूशन, गूगल, तिरंगा, किताब, स्कूल, पुलिस, नाना-नानी और अन्य रिश्तों आदि विषयों पर बालमनोविज्ञान के अनुरूप सुन्दर रचनाओं का सृजन पूरी गम्भीरता के साथ किया गया है। भाषा बालमन के अनुरूप सरल, सरस और सहज बोधगम्य है। मुद्रण सुन्दर एवं त्रुटिरहित है। फैलते आकाश के साथ कवि के पुत्र ‘प्रज्ञान’ के मनमोहक चित्र से सजा आवरण अत्यन्त आकर्षक है। बालमन को लुभाने वाले मनोरंजक एवं संवेदनशील कविताओं से सजी पठनीय कृति ‘प्रज्ञान’ के सृजन के लिए डॉ. सत्यवान सौरभ जी को हार्दिक बधाई।

-सुरेश चन्द्र ‘सर्वहारा’