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चुनाव के बाद मंहगाईः कुछ हकीकत, कुछ फसाना

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 जयंत कुमार 

रियाणा के किसान ड्रम लेकर डीजल की खरीद कर रहे हैं। वे गेहूं की फसल की लागत को कम रखना चाह रहे हैं। ऐसा सिर्फ हरियाणा में हुआ हो, ऐसा नहीं है। यह कहानी पंजाब और पश्चिमी यूपी में भी हरियाणा जैसी ही है। लोगों को अर्थव्यवस्था की इतनी समझ तो आ ही गई है कि मोदी सरकार ने तेल के दाम बढ़ने से रोक रखा है। पांच राज्यों के चुनाव खत्म होते ही दाम एक बार मनमाना रूप अख्तियार कर लेंगे। मंहगाई बढ़ेगी ही, इस बात के लिए यूक्रेन में युद्ध को एक तर्क की तरह इस्तेमाल किया जाएगा।

यहां एक बात समझना जरूरी है कि चुनाव के दौरान तेल के दामों पर मोदी सरकार ने नियंत्रण रखा। यह इस बात का सबूत है कि महंगाई पर सरकार नियंत्रण रख सकती है। बाजार बेलगाम घोड़े नहीं होते हैं और न ही जंगली कुत्ते जो झुंड बनाकर कभी यहां, कभी वहां शिकार करते हुए मांस नोच नोचकर खाएं। बाजार प्राचीनतम अवधारणाओं में से एक है। इसे गढ़ा, बनाया गया था। और आज भी यह गढ़ा, बनाया ही जा रहा है। बाजार में महंगाई यानी वस्तुओं के दाम में बढ़ोत्तरी कत्तई प्राकृतिक नहीं होती है। सरकारें चाहती हैं, तो महंगाई बढ़ती है, न चाहें तो नहीं बढ़ेंगी। जैसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम के एक ही दाम पर बाजार में उसकी बिक्री मूल्य में लगभग दूने का फर्क आ जाने के पीछे सरकार की नियंत्रणकारी भूमिका ही है। जैसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक समान मूल्य होने पर भी मनमोहन सिंह सरकार के समय पेट्रोल 50 रूपये प्रति लीटर था, तो मोदी सरकार के समय यह लगभग 100 रूपये है। दोनों सरकारों के बीच की दूरी लगभग 7 साल की है।

ऐसी ही स्थिति जीएसटी के संदर्भ में है। आवश्यक वस्तुओं पर, जिसमें खाद्य पदार्थ और जीवन रक्षक दवाएं शामिल हैं, पर कर 5 प्रतिशत निर्धारित किया गया था। अब उसे 8 प्रतिशत करने का प्रस्ताव किया जा चुका है। स्वाभाविक है कि इससे आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ेंगे। लेकिन क्या इस कर बढ़ोत्तरी से किसानों द्वारा बेचे जाने वाले अनाज के दामों में वृद्धि होगी? नहीं। किसान अपने उत्पाद का उचित यानि लागत मूल्य के अनुरूप दाम चाहते हैं। इसमें उनका श्रम, खेत की उर्वरता और खाद, बिजली, पानी, बीज आदि शामिल हैं। किसान घाटे के सौदे में हैं। ऐसे में 3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी का निर्णय बाजार के किन लोगों के हित में होगा? साफ है किसान और मध्यम और गरीब लोगों के पक्ष में तो कत्तई नहीं है।

आइए, थोड़ी मुद्रा व्यवस्था को देखते हैं। उच्च-मध्य, मध्य और निम्नमध्यवर्ग के परिवार अपनी बचत का बड़ा हिस्सा बैंकों में रखते हैं। सरकार ने बाजार में मुद्रा परिचालन को बढ़ाने के लिए बैंकों में जमा पैसे पर ब्याज की दर कम करना शुरू किया। तर्क था बाजार में निवेश की संभावना बढ़ेगी। इसने बाजार में मुद्रास्फित को बढ़ाया। और सापेक्षिक श्रम मूल्य यानी तनख्वाह को गिरा दिया। बाजार में सामानों के दाम को बढ़ाया। इसने एक चक्रीय गति में घूमना शुरू किया और मुद्रा और पूंजी के संकेंद्रण को बढ़ावा दिया। बैंकों को रूपये के परिचालन के लिए लोन लेने और देने में छूट दी गई। फिर क्या था, एनपीए, बैंकों से लोन के नाम पर लूट और ब्लैक मनी की बाढ़ आ गई। इसे रोकने के नाम पर बाजार में मुद्रा परिचालन के लिए प्रयोग में लाई जा रही मुद्राओं को वापस बैंकों में लाया गया। यही नोटबंदी था। लेकिन, मुद्रा नीति में कोई बदलाव नहीं लाया गया।

यह एक ऐसी तबाही थी जिसने बचत अर्थव्यवस्था और श्रम आधारित उद्यम खासकर मैन्युफैक्चरिंग को बर्बादी की ओर ठेल दिया। ऐसे में बचत अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा बैंकों से निकलकर शेयर बाजार में पहुंचा। इसका एक और हिस्सा डिजिटल करेंसी में उतरा। अभी संसद में पेश हुए बजट के दौरान सरकार ने डिजिटल करेंसी पर नियंत्रण लगाने को लेकर बयान दिया। इस करेंसी का मूल्य औंधे मुंह गिरा। इस कथित गुप्त दुनिया में जो तबाही आई, उसे गिनना अभी बाकी है। लेकिन, शेयर बाजार में कोरोना महामारी के दौरान जो उछाल आ रहा था, वह भी एक सीमा से आगे जाने से पीछे इंकार कर दिया। इसके पीछे विदेशी निवेशकों द्वारा अधिक ब्याज की मांग का मसला है।

1 अक्टूबर 2021 से मार्च के पहले हफ्ते के अंत तक विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक 2 लाख करोड़ रूपये से अधिक निकाल चुके थे। बाजार में जैसे ही उपभोक्ता समानों का मूल्य बढ़ने लगता है, सामान्य रूप से सारे ही तरह के निवेशक उधर की ओर भागते हैं। मसलन, युद्ध के माहौल में तेल के दामों की वृद्धि निवेशकों को खींच उधर ले जाती है। इसी तरह, खेती और उसके उत्पाद को सीधे बाजार से जोड़ने और खेती में मुद्रा व्यवस्था को मनमाना छोड़ देने की वजह से निवेशकों का रूझान इस तरफ बढ़ा। इस तरह खेती के उत्पादों और कर्ज पर ब्याज वसूली में रूपये का बाजार मूल्य भी भूमिका निभाने लगा।

रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध से बाजार का कौन सा हिस्सा प्रभावित होगा, इसे देखने के बजाय यह मान लिया जाता है कि इससे भारत की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी ही, महंगाई बढ़ेगी ही, आदि। जबकि बहुत सारे संकट ऐसे हैं जिसका इस युद्ध से कोई लेना देना नहीं है। खासकर, मुद्रा नीति और बाजार में उत्पादों के मूल्य निर्धारण की व्यवस्था। यहां मैं उत्पादों में श्रम को भी जोड़ रहा हूं। बाजार में उतर रहे उत्पादक श्रम को जिस तरह से बाहर किया जा रहा है और श्रम मूल्यों को जिस तरह गिराया जा रहा है उससे पूंजी बाजार को चाहे जितना तात्कालिक लाभ हो लेकिन लंबी अवधि में यह बाजार के आयतन को सिकोड़ता जायेगा। पांच किलो या बीस किलो अनाज को बांट देने से वोट का आयतन चाहे जितना बढ़ जाये, मुनाफे के पैरों के लकवाग्रस्त होने से कौन रोक सकेगा। बाजार की विभीषिका को चुनाव या युद्ध के चादर में छुपा ले जाने से क्रूर हकीकतें गुमनाम नहीं रह जायेंगी। वे बार-बार अपनी शक्ल दिखाने आयेंगी। वे दिख ही जायेंगी। लेकिन, इसके लिए जरूरी है यह जानना कि देश का अर्थ देश ही होता है बाजार नहीं।