मृत्यु दंड एक ऐसी सजा है जो एक बहोत ही गंभीर अपराध करने पर उस इंसान को दी जाती है, लेकिन सजा देने से पहले ये देखना बहोत जरूरी होता है कि उस जुर्म पर मृत्यु दंड देने का आधार क्या है? क्या उस जुर्म के लिए उस इंसान को मृत्यु दंड के अलावा कोई और दंड दिया जा सकता है? और अब तक कितने सारे मामले ऐसे भी हैं जिनके आधार सामने आने पर भी उनका फैसला नहीं हो पाया है, क्योंकी बहोत सी जगाहों पर मृत्यु दंड को Human Rights के खिलाफ बताया है। और इसी विषय पर बहोत समय से ये विवाद भी चल रहें हैं कि मृत्यु दंड को समाप्त करना चाहिए और इस बात पर गौर करना चाहिए कि मृत्यु दंड की जगह अपराधी को क्या सजा दी जा सकती है।
बहोत सी जगाहों में मृत्यु दंड को Human Rights का उलँघन करने जैसा माना जाता है, जैसे की United Nations, Amnesty International और इस नियम को समाप्त करने वाले देशों का मानना है, या ‘दुर्लभ से दुर्लभतम’ मामलों में ऐसा दंड दिया जाना सही है, इस गंभीर मुद्दे पर विचार किया जाना चाहिए। पर सवाल ये आ जाता है कि जब कोई इंसान अपराध करने से नहीं डरता तो फिर उसे मृत्यु दंड देने के लिए इतना सोचना क्यों?
Supreme Court में दर्ज याचिका
Supreme Court का कहना है कि किसी भी मामले में जमानत देने के सवाल पर एक Approach और Clarity होना बहोत ही जरूरी है। इसी वजह से Supreme Court ने एक फैसला लिया और कहा कि जिन Courts को मृत्यु दंड देने की Power है, उन सभी की जांच होगी कि वो किस प्रकार से उसका इस्तेमाल करती हैं। किन किन आधारों पर किसी को वो मृत्यु दंड देते हैं। अब ये खबर आई है कि Constitutional Bench द्वारा एक मीटिंग रखी जाएगी जिसमे मृत्यु दंड को लागू करते समय उसे कम करने वाली Possible Circumstances पर विचार करने के संबंध में Guidelines का Assessment किया जाएगा।
दरअसल ये बात तब से चल रही है जब National Law University, दिल्ली के मृत्युदंड विरोधी निकाय, प्रोजेक्ट 39ए द्वारा ये याचिका दर्ज हुई थी। उस याचिका में ये कहा गया था कि मृत्यु दंड के योग्य मामलों के संदर्भ में शमन, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत कारकों या कोई भी और Relevant Factors जैसी सूचनाओं के Extensive Collection, Documentation और Analysis का अभ्यास हो जो किसी व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करता है।
2013 में एक Amendment आया था कानून में जिसमे ये जाहिर किया गया था कि अब उन मामलों में भी मृत्यु दंड की अनुमति दे दी है, जहां कोई भी अपराधी पीड़िता की मृत्यु का कारण बना हो या पीड़िता को मरणासन्न की स्थिति में डाल दिया हो।
1973– Jagmohan Banam Case
Death Penalty की Validity के परीक्षण का विषय सबसे पहले Supreme Court के सामने 1973 में Uttar Pradesh राज्य के Jagmohan Banam मामले में लाया गया था, जिसमें Court ने स्पष्ट किया कि मृत्यु दंड या आजीवन कारावास के बीच चुनाव करते समय Facts, Circumstances और किए गए अपराध की प्रकृति की जांच Judge द्वारा की जाएगी।
इसी तरह, 1979 में Uttar Pradesh के Rajendra Prasad Banam मामले में न्यायालय ने यह कहा कि Death Penalty सफेदपोश अपराधों, समाज-विरोधी अपराधों में और उस व्यक्ति को दिया जाना चाहिए जो पूरे समाज के लिए खतरा बन गया हो।
भारत में सही है ये दंड?
जहां तक Death Penalty की तार्किकता का सवाल है, भारत में इसके प्रचलन को गलत नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि यह नियमों द्वारा स्थापित Process से नियमित है और Legal Positivism की Theory के अनुरूप है। लेकिन हाँ इस बात को भी नहीं भूला जा सकता है कि अपराधी को भी अपनी बात कहने का पूरा मौका दिया जाता है, उसे अपना अपने आपको निर्दोष साबित करने के लिए सभी सुविधाएं दी जाती हैं।
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– Ishita Tyagi