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मालदह की शान्ति

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रितिका सिन्हा  

बिहार के मालदह गांव की शांति एक रूढ़िवादी, क्रांतिकारी महिला थी। 10वीं पास शांति की शादी बहुत कम उम्र में हो गई  थी। लोग कहते हैं कि संस्थानों के बिना शिक्षा ग्रहण नहीं की जा सकती है पर शान्ति लोगों की इस धारणा को बदलते हुए नई कहानी लिखी। हममें से कितनी लड़कियां ऐसी हैं जिन्होंने लड़की होने का दंश झेला है। जब हम किसी व्यक्ति के बारे में कुछ हटकर बताते हैं तो लोग कहने लगते हैं कि यह  किताबें बाते हैं। शांति ने वह कुछ कर दिखाया जो कहीं न कहीं प्रेरणादायक था। दरअसल शांति अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। उनके पिता के दो भाई-बहन थे, एक छोटी बहन और एक छोटा भाई, दोनों अच्छी तरह से बसे हुए थे। शांति की शादी एक अमीर घर-खानदान में एक मददगार व्यक्ति से हुई थी। जैसा कि हर परिवार में बंटवारा होता है ऐसा ही शांति के परिवार में भी हुआ। शांति के यहां 16  बीघे ज़मीन का बंटवारा शांति के पिता के छोटे भाई के 5 बेटों और शांति के बीच होने वाला था। जैसा कि कहा जाता है काल चक्र एवं घटना क्रम अपनी दिशा अवश्य बदलते हैं। अब वह समय आया जब शांति के पिता को भ्राता मोह ने घेर लिया। उनका कहना था कि अब जब शांति अच्छी तरह से घर-गृहस्थी में बस गई है और खुश है तो पुश्तैनी भूमि में से उसका हिस्सा परिवार के बेटों को मिलना चाहिए। यही सबसे उत्तम है। इससे शांति क्रोधित हो गई और ये काफी वास्तविक भी था।
यह जानते हुए कि यह हक की लड़ाई उसे उसके परिवार और जन्म स्थान-एक ऐसी भूमि जिसे कोई नहीं छोड़ना चाहता। एक ऐसी भूमि जिसमें आपके सुनहरे दिनों की खिलखिलाहट सदैव मिश्रित होती है से कोसों दूर ले जा सकती है, उसने इसका सामना दृढ़तापूर्वक करने की ठानी।
रिश्तेदारों के लंबे पत्र उसके दरवाजे पर आते थे। उसके पिता के आग्रह से भरे शब्द अब सामान्य हो गये थे। लेकिन उसने दृढ़ आत्मा के साथ सब कुछ सह लिया। पिता ने धीरे-धीरे अपने मन की बात कहना बंद कर दिया। दिन बीतते गए, पारिवारिक तनाव बढ़ता गया। एक सज्जन व्यक्ति, जो किंकर्तव्यविमूढ़ हो कोई रास्ता न निकाल पाए, चुप हो गये। हमेशा के लिए। एक बहुत ही सामान्य दिन एक खबर आई जो असामान्य थी। उन्होंने खुद को फांसी लगा ली। परन्तु शांति ने अब भी अपना अधिकार नहीं छोड़ा, उन्होंने उसका उपयोग अपने उद्देश्य के लिए नहीं किया अपितु वह उसे दान करने में सफल रहीं। उसने खुद को साबित किया एक सशक्त महिला के रूप में तथा अपने कार्य को एक अनुकरणीय कार्य के रूप में। एक ऐसी महिला जिसे अपने जनक की मौत भी हिला न सकी। दरअसल शांति ने लोगों की उन धारणा को बदला जो बेटी के हक़ को अपने परिवार में बांट देते हैं।
इस क्रांतिकारी कदम से उन्होंने न केवल रूढ़िवादिता को तोड़ा बल्कि अपनी मायके के प्रति एक बच्चे की जन्मजात जिम्मेदारियां भी निभाईं शांति अपनी मां को अपने घर ले गईं और उनके अंतिम क्षण तक उन्हें दुलारती रहीं। उन्होंने अपनी मां का अंतिम अनुष्ठान भी किया, लेकिन आज तक कुछ भी समाज के आरोपों को कहां संतुष्ट कर पाया है, उसे अपना सिर मुंडवाने के लिए कहा गया क्योंकि उसने अपनी मां को मुखाग्नी दी थी और एक मजबूत व्यक्ति की तरह उसने ऐसा किया।
किसी के भाई, किसी के चाचा और किसी के दोस्त की मौत के लिए उसे जिम्मेदार ठहराकर सभी ने उससे रिश्ता तोड़ लिया।
चमकती आंखों के साथ आंसुओं से नहीं अपितु स्वीकृति, महिमा और गर्व के साथ उन्होंने अपनी जन्मभूमि को अंतिम अलविदा कहा। वह कभी वापस नहीं आई लेकिन उनके कार्य हर उस लड़की के हृदय में गूंजते हैं जो अपने हक की लड़ाई लड़ना जानती है।