अंग्रेजी हुकूमत के कहर की दास्तां समेटे पत्थगरढ़ किला

चरण सिंह राजपूत 

ताया जाता है कि पत्थरगढ़ किले का निर्माण नजीबाबाद के नवाब नजीबुद्दौला ने कराया था। यह किला 40 एकड़ भूमि पर बना था। इसके निर्माण में मोरध्वज से लाए गए पत्थरों का भी इस्तेमाल हुआ था। यही वजह है कि लोग इसे मोरध्वज किले के नाम से भी जानते हैं। सुल्ताना डाकू के इस किले सभी गतिविधियां संचालित करने की वजह से यह किला सुल्ताना डाकू के किले के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अंग्रेजी हुकूमत में भले ही सुल्ताना जैसे लोगों को डाकूओं की संज्ञा दी गई हो पर असल में ये लोग अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचार से तंग आकर हुकूमत के खिलाफ बागी बने थे। इन लोगों ने अंग्रेजों व जमींदारों और साहूकारों के अत्याचारों से तंग आकर गलत रास्ता अख्तियार किया था।
जनपद बिजनौर ऐसा स्थान है जहां पर महाभारत व मुगलकालीन तक की धरोहर अपनी उपस्थिति का एहसास कराती रहती हैं। यहां पर जहां विदुरकुटी महाभारत की यादें ताजा करती है वहीं कण्व ऋषि के आश्रम की निशानियां राजा दुष्यंत, शकुंतला उनके पुत्र सम्राट भरत के इतिहास की गवाही देती प्रतीत होती है। शायर दुष्यंत की जन्मस्थली रहे इस जिले में इतिहास के पन्नों में अपनी अनगिनत कहानियों को स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज कराने वाला पत्थरगढ़ किला ऐसी धरोहर है जो नवाबी शौक, अंग्रेजों के कहर  और  सुल्ताना के प्रतिशोध की दास्तां समेटे हुए है।
नजीबाबाद शहर से लगभग दो किलोमीटर दूर बने इस किले को लोग सुल्ताना डाकू के किले के रूप में जानते हैं। किले का निर्माण 1755 में नजीबाबाद के नवाब नजीबुद्दौला ने कराया था  और  उन्होंने ही अपने नाम पर नजीजाबाद शहर बसाया। असल में नजीबुद्दौला का नाम नजीब  खां था। नजीबुद्दौला का खिताब उन्हें मुगलों के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर के दरबार से मिला था।
बात किले के स्वरूप की जाए तो यह किला लगभग 40 एकड़ भूमि पर बना है। इस किले के निर्माण में मोरध्वज से लाए गए पत्थरों का भी इस्तेमाल हुआ था। इसलिए इसे मोरध्वज किले के नाम से भी जानते हैं। किला कितनी मजबूती धारण किए हुआ था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसकी दीवारों की चौड़ाई दस फुट से भी अधिक है। इन दीवारों के बीच कुएं बने हुए हैं। इन कुओं की खासियत यह थी कि इनसे किले के अंदर से दीवारों के सहारे ऐसे पानी खींचा जा सकता था कि बाहरी आदमी को पता न चल सके। यह किला लखौरी इंटों व पत्थरों से बना है। किले के दो द्वार हैं, इन पर ऊपर  और  नीचे दो-दो सीढि़यां बनी हुई हैं। इसमें 16 फुट चौड़े व 26 फुट लम्बे कमरों की छतें बिल्कुल समतल हैं। दिलचस्प बात यह है कि इसमें कहीं पर भी लौहे के गटर या स्तम्भ नहीं हैं। इस किले का मुख्य द्वार नजीबाबाद शहर की ओर है। कहा जाता है कि इसमें बड़े-बड़े दो दरवाजे लगे हुए थे। ये दरवाजे उतरवाकर हल्दौर रियासत में लगा दिए गए थे, जहां पर ये आज भी मौजूद हैं। मुख्य द्वार की ऊंचाई लगभग 60 फुट है। इसके ऊपर कमल के फूल पर चार छोटी अष्ट भुजाकार बुर्जियां भी बनी हुई हैं। इन बुर्जियों पर लोहा लगा था। किले में सुरक्षा की दृष्टि से चारों ओर बुर्ज भी बने हुए थे, जो अब टूट गए हैं। किले के चारों ओर गहरी खाई भी खुदी हुई थीं, जो अब भर गई हैं। किले के बाहर सुरक्षा चौकियां बनी हुई थीं, जो अब खंडहर हैं। बताया जाता है कि इस किले के अंदर से दो सुरंगें भी निकाली गई थीं, जो कहीं दूर जंगल में जाकर निकलती थीं। इस किले के अंदर एक सदाबहार तालाब भी है। इस तालाब का पानी आज तक नहीं सूखा है। इसकी गहराई के विषय में अनेक मत हैं। कुछ लोग तो इसे पाताल तक बताते हैं।
सुल्ताना डाकू के इस पर कब्जा करने के बाद इस किले ने देश ही नहीं बल्कि विदेश में प्रसिद्धि पाई। नाटकों, नौटंकी  और  कहानी में सुल्ताना को बिजनौर का  बताया जाता है पर वह  और  उसका गिरोह मुरादाबाद जिले का था। अंग्रजी हुकूमत के समय लगभग 155 साल पहले भांतू जाति का एक गिरोह मुरादाबाद में सक्रिय था, जिसमें सुल्ताना भी था। इस गिरोह ने सीधे अंग्रेजों हुकूमत को चुनौती दे रखी थी। गिरोह से छुटकारा पाने के लिए अंग्रेजों ने पत्थरगढ़ किले को कब्जे में लेकर इस गिरोह के लोगों को पत्थरगढ़ किले में लाकर डाल दिया तथा उन्हें काम पर लगाने के लिए यहां पर एक कपड़े का एक कारखाना स्थापित कर दिया। इन लोगों को काम पर लगा दिया गया। यहां पर गिरोह बनने का कारण इन लोगों का पीछा नहीं छोड़ रहे थे। इन लोगों की मजदूरी इतनी कम थी कि इनके परिवार का पालन-पोषण नहीं हो पाता था। हां इनको सप्ताह में एक दिन नजीबाबाद शहर में जाने की इजाजत मिलती थी। जेलनुमा जिंदगी से परेशान तथा आर्थिक तंगी के चलते इन लोगों ने चोरी छिपे फिर से एक गिरोह बना लिया, जिसका सरगना बालमुकुंद को बनाया गया। कुछ समय बाद बालमुकुंद नजीबाबाद के पठानपुरा मोहल्ले के मोहम्मद मालूक खां की गोली का शिकार हो गया। बालमुकुंद के मरते ही गिरोह की बागडोर सुल्ताना के हाथ में आ गई, जिसने अपने जज्बे  और  चालाकी से अंग्रेजों को छकाकर नजीबाबाद के पास ही कंजली बन में डेरा डाल दिया। सुल्ताना का गिरोह इस वन में कितना सुरक्षित था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कंजली वन का विस्तार कई सौ किलोमीटर था। कहा जाता है कि भावर के खूनी बड़गांव में एक बड़ा सा पेड़ था. सुल्ताना लोगों को मार कर उसी बड़ के पेड़ पर लटका दिया करता था, ताकि लोगों में उसका डर बना रहे. इसीलिए उस गांव का नाम खूनी बड़ गांव पड़ गया, क्योंकि उस बड़ के पेड़ पर सुल्ताना लोगों को मारकर लटका दिया करता था.
  सुल्ताना ने नजीबाबाद के आसपास के गरीबों को विश्वास में लेकर जमींदारों व साहूकारों के घरों में डकैती डालनी शुरू कर दी। हर जगह अंग्रेजों व जमीदारों को चुनौती पेश करने वाले इस डाकू के चर्चे पूरे हिन्दुस्तान में होने लगे। सुल्ताना गरीबों में इसलिए भी ज्यादा लोकप्रिय था कि क्योंकि उसका कहर जमींदारों तथा साहूकारों पर ही टूटता था आैर उनसे लूटकर वह सब कुछ गरीबों में बांट देता था। कहा जाता है कि उसने कई गरीब बेटियों की शादी भी कराई। सुल्ताना की विशेष बात यह भी थी कि डाकू होने के बावजूद वह महिलाओं की इज्जत करता था तथा उनके द्वारा पहने जेवर को लूटने की इजाजत अपने लोगों को नहीं देता था। सुल्ताना के बारे में कहा जाता है कि डकैती डालने से पहले वह डकैती के दिन व समय का इश्तहार उस मकान पर चिपका देता था। इस बात में इतना दम नहीं, जितनी मजबूती के रूप में यह पेश की गई। हां, इतना जरूर था कि उसने बदले की भावना से कुछ जमींदारों के घर पर इश्तहार जरूर लगाए थे तथा इश्तहार लगाने कुछ ही समय बाद डकैती भी डाल दी थी। सुल्ताना ने नजीबाबाद के पास जहां डकैती डाली, उनमें जालपुर आैर अकबरपुर प्रमुख हैं। नजीबाबाद से लगभग 10 किलो दूर जालपुर में शुब्बा सिंह जाट जमींदार था, वह गरीबों पर बहुत अत्याचार करता था। किसी गरीब ने उससे छुटकारा पाने की गुहार सुल्ताना से लगाई तो उसने शुब्बा सिंह को सबक सिखाने की योजना बना ली। जमींदार ने अपनी हिफाजत के लिए कई गोरखा सिपाही भी रखे हुए थे, जो 24 घंटे उसे घर पर पहरा देते थे लेकिन वह भी सुल्ताना को नहीं रोक सके। सुल्ताना के गिरोह तथा गोरखा के बीच कई घंटे तक गालियां चलीं। इसी बीच सुब्बा सिंह घर से फरार हो गया। बाद में सुल्ताना सुब्बा सिंह को पकड़ तो न सका पर उसने वहां डकैती जरूर डाली। कहा जाता है कि सुल्ताना के पास एक घोड़ी थी, जिस पर सवार होकर वह एक से बढ़कर एक निशाना साध सकता था। अक्सर डकैती डालते समय वह इस घोड़ी को किसी दीवार से सटाकर खड़ा कर फायरिंग करता था।
सुल्ताना का कहर जब साहूकारों तथा जमींदारों पर टूटने लगा तो उन्होंने अंग्रेज हुकूमत से सुल्ताना को गिरफ्तार करने की गुहार लगाई। अंग्रेजी हुकुमत ने तेज तरार अधिकारी यंगसाहब को इंग्लैंड से बुलाया तथा सुल्ताना को गिरफ्तार करने की जिम्मेदारी सौंपी। यंग साहब ने नजीबाबद आकर सुल्ताना के करीबी रहे गफ्फूर खां से सुल्ताना की गिरफ्तारी में मदद करने को कहा। पहले तो गप्फूर खां ने आना-कानी की पर बाद में यंग साहब के समझाने पर वह तैयार हो गए। नजीबाबाद से लगभग 10 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम मेमन सादात के रहने वाले डिप्टी सुपरिटेंडेंट अब्दुल कासिम के संबंध नजीबाबाद के लोगों से अच्छे थे। अब्दुल कासिम की वजह से ही नजीबाबाद के कुछ लोग सुल्ताना की गिरफ्तारी के लिए यंगसाहब का साथ देने को तैयार हो गए। सुल्ताना की मुखबिरी इतनी जबर्दस्त थी। यंगसाहब की हर योजना का पता उसे तुरंत चल जाता था। इसकी वजह से कई साल तक जूझने के बाद भी यंग साहब उसे नहीं पकड़ पाए। आखिरकार थककर वह आगरा हेड क्वार्टर चले गए।
आखिरकार वह हुआ जो हिन्दुस्तान में होता आया है। नजीबाबाद के मुंशी की मुखबरी पर यंग साहब नजीबाबाद आए  और  खेडि़यों के जंगल में बेफिक्र पड़े सुल्ताना को चारों ओर से घेर लिया पर किसी थानेदार के गोली चलाने पर सुल्ताना अपने साथियों के साथ भाग निकलने में सफल हो गया। यंगसाहब सिर पटक कर रह गए। कहा जाता है कि सुल्ताना वहां लाखों के जेवरात छोड़कर गया था। यंगसाहब ने झुंझलाकर थानेदार को नौकरी से निकाल दिया। अगले दिन जट्टीवाला में मुंशी की मुलाकात सुल्ताना से हुई, जिसमें उसने गैंडीखाता न जाने की सलाह दी। गैंडीखाता उस समय साहनपुर रियासत (जाटों की रियासत) का एक गांव था। कहा जाता है कि सुल्ताना महिलाओं से बहुत दूर रहता था। यह सही नहीं है। बताया जाता है कि सुल्ताना गैंडीखाता स्थित एक स्कूल के चपरासी की पत्नी की सुंदरता पर मोहित था, वह उसकी कमजोरी थी, जिसका फायदा यंग साहब ने उठाया। मुंशी के मिलने के तीन-चार दिन बाद अपने साथियों के साथ सुल्ताना गैंडीखाता पहुंचा। यंगसाहब नजीबाबाद रुके हुए थे। पल-पल की खबर उन्हें थी। सुल्ताना और उसके दो साथी उस महिला के घर चले गए  और  अन्य साथी गैंडीखाता के बाग में ठहर गए। योजना के अनुसार सुल्ताना तथा उसके दोनों साथियों की वहां खूब खातिर हुई, उन्हें खूब शराब पिलाई गई।
यंग साहब अपने जवानों के साथ उस महिला के घर में घुस गए  और  सुल्तान जिलेदार तथा गांव के चौकीदार मिथरादास ने पूरी ताकत से सुल्ताना को दबोच लिया, जब सुल्ताना ने राइफल पर डाथ डाला तो वह पहले ही हटा दी गई थी। गठीला व नाटा सुल्ताना इतना ताकतवर था कि शराब के नशे में भी वह दोनों को घसीटता हुआ बाहर की ओर भागा। एक सिपाही के उसके पैरों पर राइफल की बट मारने से वह गिर गया। अब सुल्ताना और उसके दोनों साथी पुलिस हिरासत में थे । सुल्ताना वह उसके साथियों को हरिद्वार स्टेशन पर ले जाया गया तथा स्पेशल ट्रेन से नजीबाबाद लाया गया। यह सुल्ताना की गरीबों में लोकप्रियता ही थी कि उसकी एक झलक के लिए पूरा नजीबाबाद तथा आसपास के गांवों के लोग स्टेशन पर मौजूद थे। सुल्ताना  और  उसके दोनों साथियों को आगरा जेल भेज दिया गया। धीरे-धीरे उसके गिरोह के 130 बदमाश भी गिरफ्तार कर लिए गए। उनमें से एक सरकारी गवाह बन गया, जिसने उन तमाम लोगों की शिनाख्त की जिनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सुल्ताना से संबंध था। सुल्ताना के गिरोह पर मुकदमा चलाया गया। यह केस इतिहास में ‘गन केस” के नाम से मशहूर है। बाद में सुल्ताना समेत तीन को सजा-एक मौत हुई तथा उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया। उसके अन्य साथियों में से कुछ को उम्र कैद तथा कुछ को अन्य अवधि की सजा दी गई। सुल्ताना के हाथ की तीन अंगुलियां कटी हुई थी, जिनसे उसकी शिनाख्त हुई थी।

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