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“पहलगाम हमला: कब सीखेंगे सही दुश्मन पहचानना?”

“पहलगाम का सच: दुश्मन बाहर है, लड़ाई घर के भीतर”

पहलगाम हमला जिहादी मानसिकता का परिणाम है। मोदी सरकार ने हमेशा आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब दिया है।
राजनीतिक आलोचना आतंकवाद के असली स्रोत से ध्यान भटकाती है। जातियों में बंटा समाज आतंक से निपटने में अक्षम होगा। हमें आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट होकर खड़ा होना चाहिए।

प्रियंका सौरभ

एक ओर भारत जातियों, उपजातियों, विचारधाराओं और आस्थाओं के नाम पर खुद को खंड-खंड कर रहा है, दूसरी ओर हमारे दुश्मन संगठित होकर हमारी एकता पर प्रहार कर रहे हैं। अभी-अभी जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में जो आतंकवादी हमला हुआ, उसने फिर से हमें यह याद दिला दिया कि असली दुश्मन हमारे भीतर नहीं, सरहद पार बैठा है। यह हमला एक साज़िश नहीं, बल्कि जिहादी विचारधारा की वह रक्तरंजित अभिव्यक्ति है, जो बीते कई दशकों से भारत को खून में डुबोने की फिराक में है।

इस हमले में निर्दोष नागरिक मारे गए, सुरक्षा बल घायल हुए, और एक बार फिर टीवी चैनलों पर वही पुराने दृश्य लौट आए—रोती हुई आंखें, खून से सना ज़मीन का टुकड़ा और राजनीतिक दलों की रस्मी प्रतिक्रियाएं। परंतु सबसे चिंताजनक बात यह है कि इस बार भी कई बुद्धिजीवी, पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक आतंकवाद की जड़ों पर प्रहार करने की बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आक्षेप लगाने में जुट गए।

यह कौन सी राजनीति है?

क्या हम उस मानसिक दिवालियापन की ओर बढ़ चुके हैं जहाँ दुश्मन की गोलियों पर चुप्पी और देश के नेतृत्व पर तीखी टिप्पणियाँ फैशन बन चुका है? एक सवाल पूछना आवश्यक है—क्या मोदी आतंकवादियों को न्योता देकर पहलगाम लाए थे? क्या प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने ऐसे हमलों को प्रोत्साहन दिया?

दरअसल, नरेंद्र मोदी वही प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने पाकिस्तान की ज़मीन पर सर्जिकल और एयर स्ट्राइक कर भारत की नई सैन्य नीति की घोषणा की। यह वह प्रधानमंत्री हैं जिनकी सरकार ने सेना को खुली छूट दी—”गोली का जवाब गोली से” सिर्फ नारा नहीं, रणनीति बन गई।

राजनीतिक इच्छाशक्ति और सुरक्षा दृष्टिकोण

2016 में उरी हमले के बाद भारत की सर्जिकल स्ट्राइक, और 2019 में पुलवामा हमले के बाद बालाकोट एयर स्ट्राइक ने यह सिद्ध किया कि भारत अब केवल माफ़ी मांगने वाला देश नहीं, जवाब देने वाला देश बन चुका है। ये कार्रवाइयाँ केवल सैन्य कौशल नहीं, राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रमाण थीं। इसके बाद अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत की आतंकवाद के खिलाफ नीति को समर्थन मिला।

हाल ही में 26/11 हमले के मास्टरमाइंड तहव्वुर राणा को अमेरिका से प्रत्यर्पित करवाना भी इसी सरकार की कूटनीतिक जीत है। पाकिस्तान, जो पहले भारत को आंखें दिखाता था, आज आर्थिक दिवालियेपन के कगार पर खड़ा है और वैश्विक मंचों पर गिड़गिड़ा रहा है।

यह सब आकस्मिक नहीं हुआ। यह एक सुविचारित रणनीति, स्पष्ट लक्ष्य और कड़े फैसलों का परिणाम है।

लेकिन आलोचना फिर भी क्यों?

एक बड़ा वर्ग जो ‘सेकुलरिज़्म’ के नाम पर हर जिहादी हमले के बाद मौन साध लेता है, वह मोदी सरकार पर हमलावर हो जाता है। उसके लिए आतंकवादियों का मज़हब छिपाना जरूरी है, लेकिन सरकार को कठघरे में खड़ा करना भी ज़रूरी। इस विचारधारा को समझना होगा कि आतंकवाद का धर्म नहीं होता, लेकिन उसकी जड़ें किसी विचार में होती हैं। और उस विचार को नाम देने से डरना आत्महत्या के बराबर है।

1400 साल पुरानी एक किताब को हथियार बनाकर जो लोग काफ़िरों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़े हुए हैं, वे किसी भी धर्म का अपमान कर रहे हैं। यह जिहाद ‘आस्था’ नहीं, सत्ता की राजनीति है। और उसे केवल सेना नहीं, समाज को भी पहचानना और खारिज करना होगा।

जातियों में बंटा समाज, आतंक से अनजान देश

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक ओर हमारे युवा सोशल मीडिया पर रील्स और जातिवाद के बहसों में व्यस्त हैं, दूसरी ओर सीमा पर हमारे जवान आतंक की गोली से जूझ रहे हैं। एक तरफ ‘जाति पूछकर नौकरी’, ‘धर्म पूछकर रोटी’ की बहसें हैं, तो दूसरी तरफ आतंकवादी धर्म पूछकर गोली चला रहे हैं। यह विडंबना नहीं, चेतावनी है।

आज हमें तय करना है कि हम किसके साथ खड़े हैं—उनके, जो इस देश को टुकड़े-टुकड़े करना चाहते हैं, या उनके जो हर हमले का जवाब देने का साहस रखते हैं?

मोदी नहीं, मानसिकता दोषी है

आतंकवादी हमले के लिए मोदी को कोसना वैसा ही है जैसे डॉक्टर की सर्जरी से पहले ही उसे मरीज की मौत का दोषी ठहरा देना। सच्चाई यह है कि इस हमले के लिए जिम्मेदार है वह जिहादी मानसिकता, वह पाकिस्तान जो आतंक को पालता है, और वह वैश्विक मौन जो इस विचारधारा पर चुप्पी साधे हुए है।

मोदी ने न सिर्फ जवाब दिया है, बल्कि आतंकियों और उनके आकाओं को पाताल से भी निकालने की शपथ ली है। उनकी सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड यही कहता है। तो क्या अब हमें एकजुट होकर आतंक के खिलाफ खड़ा नहीं होना चाहिए?

एकजुट भारत ही समाधान है

पहलगाम का हमला हमें एक बार फिर झकझोर गया है। यह पहला हमला नहीं है, और शायद आखिरी भी नहीं। लेकिन अगर हम अब भी नहीं जागे, अगर हम अब भी आपस में लड़ते रहे, तो दुश्मन की जीत सुनिश्चित है। हमें एक ऐसे भारत की आवश्यकता है जो जातियों, धर्मों और मतभेदों से ऊपर उठकर आतंकवाद को पहचान सके और उसका सामना कर सके।

राजनीतिक मतभेद रखें, लेकिन राष्ट्रीय मुद्दों पर एकजुट रहें। आलोचना करें, पर लक्ष्य सही चुनें। आतंकवादी की गोलियों पर चुप्पी और प्रधानमंत्री पर शोर—यह आत्मघात है।

पहलगाम हमला हमारे लिए एक चेतावनी है—अगर अब भी हम नहीं जागे, तो अगला निशाना कोई और नहीं, हम स्वयं होंगे। और तब शायद हमें यह कहने का भी वक्त न मिले कि “काश हमने समय रहते सही दुश्मन पहचाना होता।”

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