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“हमारी मेहनत, हमारा हक़”

पसीने की चादर ओढ़े जो,
वो सूरज से पहले जागे हैं।
ईंटों में बाँध के सपने,
शहरों के कंधे भागे हैं।

न पर्ची, न पहचान कोई,
न तनख्वाह का भरोसा है।
हर दिन सौदा जिस्म का होता,
हर साँस में एक रोषा है।

छालों में जलते फर्श मिले,
छायाएँ भी साथ न चलतीं।
फुटपाथों पर नींदे टूटीं,
रातें भी अब भाषण चलतीं।

हक़ माँगा तो थप्पड़ आया,
चुप रहना ही नियम बना।
मजदूर दिवस आया-गया,
पर जीवन कब बहार बना?

जो थामे हैं इस देश को,
वो झुककर ही क्यों जियें सदा?
अब गीत नहीं, उद्घोष करो —
“हम निर्माणकर्ता, भीख नहीं चाहते,
बस हक़ और दुआ!”

 प्रियंका सौरभ

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