प्रोफेसर बलवंत सिंह राजपूत
नियोग-संतानों का विज्ञान : भारत की महान ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा वैज्ञानिक धरोहर हैं। पर आयातित विचारो से युक्त एवम कुंठित मानसिकता से ग्रसित अनेक स्वघोषित बुद्धिमान व्यक्ति विज्ञान को गौरवशाली भारतीय धरोहर में सम्मिलित करने के विरोध में अनेक निराधार कुतर्क देने लगते हैं। विज्ञान को हमारी गौरवशाली प्राचीन धरोहर के रूप में स्वीकार करने में उदासीनता का मुख्य कारण हमारी विज्ञान की शिक्षा की त्रुटिपूर्ण पद्धति है जिसमें स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रारंभिक सत्तर वर्षो में वैदिक युग से ही प्राचीन भारत में किए गए वैज्ञानिक शोधों के आधार पर देशभक्ति पूर्ण वैज्ञानिक वातावरण का तैयार न किया जाना तथा छात्रों में तदनुसार मौलिक चिंतन की आदत का अभाव रहा है। यह मानने के अनेक अकाट्य प्रमाण हैं कि विज्ञान का विकास प्रत्यक्ष प्रकृति की विविधता एवम जटिलता में निहित सममिती के संदर्भ में प्राचीन भारतीय ऋषियों की जिज्ञासा के साथ प्रारंभ हो गया था।
प्रकृति को घटकों एवम प्रक्रमो को मौलिक आधार पर समझने के ये प्रयास उन्हें प्रत्यक्ष परीक्षणों के क्षेत्र से बहुत आगे ले गए थे तथा तार्किक विश्लेषण के आधार पर वे परमाणु (पदार्थ संरचना का मुख्य घटक) तथा गणित में शून्य, अनंत, स्वतंत्र नौ अंको, ज्यामिति, त्रिकोणमिति, सममिति, बीजगणित, गति के नियमो, गुरत्वाकर्षण तथा ग्रहगति, एवम अति सूक्ष्म वस्तुओ के मापन में अनिश्चितता को समझने में पूर्ण रूप से सफल हुए थे। उन्होंने विज्ञान, प्रद्योगिकी , तथा विभिन्न दर्शनों को वेदांग एवम उपांग में सम्मिलित किया था जिनके आधार पर वैदिक ज्ञान को आत्मसात किया गया था। वेद ज्ञान के अक्षय श्रोत है तथा वेद वाक्य स्वयं में ही प्रमाण होता है। पुरुषसूक्त के द्वारा वेद ऋचाओ में निहित विज्ञान के सिद्धांतो को समझा जा सकता है। प्राचीन भारतीय ऋषि परम ज्ञानी, विज्ञानवेता तथा तत्वदर्शी थे तथा प्राचीन भारत में इन्ही के आश्रमों में इन्ही के निर्देशन में विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में मौलिक शोध किए जाते थे। प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में अनेक वैज्ञानिक जिज्ञासाएं एवम उनके समाधान उल्लेखित हैं। इसी प्रकार अथर्वेद में चिकित्सा विज्ञान के अद्भुत ज्ञान का श्रोत है जिसके कारण आयुर्वेद को अथर्वेद का उपवेद माना जाता है। यजुर्वेद में भी विज्ञान एवम गणित के विभिन्न क्षेत्रों में अद्भुत शोध के संकेत मिलते है। चारो उपवेद( आयुर्वेद, धनुर्वेद, स्थापत्यवेद तथा गन्धर्व वेद) विज्ञान की विभिन्न शाखाएं ही हैं तथा सभी वेदिक दर्शन ( सांख्य, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, योग एवम वेदांत) प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक शोध के भंडार है। चारो अवैदिक दर्शनों ( चार्वाक, जैन, बौद्ध तथा तंत्र ) की भी मूलतः वैज्ञानिक प्रकृति ही है। प्राचीन भारतीय विज्ञान उन अनेक तथ्यों एवम प्रक्रमों के अकाट्य स्पष्टीकरण भी प्रदान करता है जिन्हे समझने में अभी तक आधुनिक विज्ञान समर्थ नहीं हो पाया है क्योंकि आधुनिक विज्ञान अभी शैशव अवस्था में है।
प्राचीन भारतीय विज्ञान में शोध के आधार पर भारतीय सनातन समाज में स्थापित परंपराओं की आधुनिक विज्ञान में हुई प्रगति के आधार पर व्याख्या करने का प्रयास वैसा हास्यपद है जैसा किसी शिशु के हाथ की उंगलियों द्वारा सागर की गहराई की नापना।साधारण मनुष्यों की जीवों ( जंतुओं तथा बनस्पतियों) की उत्पत्ति के संदर्भ में ये धारणा है कि: नर मादा मिल करे विहारा । तब उपजे ये सब संसारा ।।किंतु प्राचीन भारतीय विज्ञान में अपिंशती ( क्लोनिंग) संतानों, अयोनिजा ( बिना प्रसव) संतानों, तथा निर्संग ( बिना नर -मादा संसर्ग) संतानों की उत्पत्ति के सिद्धांतो की विस्तृत विवेचना मिलती है तथा तदनुसार प्राचीन काल में इन वैज्ञानिक परीक्षणों के परिणाम उदाहरण स्वरूप समाज में मिलते थे। उक्त तीनों विधाओं को यहां संक्षेप में उल्लेख करूंगा:अपिंशती संताने:वेदों में वर्णित मूल स्वास्थ्य विज्ञान आयुर्वेद से भी कहीं अधिक श्रेष्ठ था। इस विज्ञान को वैदिक युग में मनु संवत ( 24000 ईसा पूर्व) से युधिष्ठिर संवत (5560 ईसा पूर्व) तक के काल में विकसित किया गया था। ऋग्वेद में ये उल्लेख है कि एक अश्व को दूसरे अश्व से तथा एक गाय को दूसरे गाय की त्वचा से अपिंशत (क्लोन) किया गया था । इस चमत्कार को रुभुस नाम के 3 भाइयों द्वारा किया गया था। ऋग्वेद (1 -110-2,4) के अनुसार उन्ही रुभूस बंधुओं द्वारा उनके माता-पिता को पुनः युवा बना दिया गया था। ऋग्वेद( 1-116-10) में अश्वनि कुमारों द्वारा वृद्ध ऋषि च्यवन को पुनः युवा बनाने का उल्लेख है।
ऋग्वेद (1-120-8)में उल्लेख है कि रुभुसो द्वारा एक गाय की त्वचा से दूसरी गाय उत्पन्न की गई थी तथा फिर इस से एक बछिया का जन्म कराया गया था तथा ये गाय बहुत अधिक मात्रा में और बहुत अच्छी गुणवत्ता युक्त दूध देती थी। ऋग्वेद (4 -33-8) के अनुसार इस गाय का नाम विश्वरूपा रखा गया था। ऋग्वेद ( 1-161-6)में उल्लेख है कि इस गाय को रुभूसो द्वारा बृहस्पति को भेंट किया गया था जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया था। ऋग्वेद (3-60-2) के अनुसार रुभूसो ने बहुत बुद्धिमत्ता द्वारा एक अश्व को अपिंशत द्वारा उत्पन्न किया था जिसका नाम हरि रखा गया था तथा उन्होंने उसे इंद्र को भेंट किया था जिसे इंद्र ने सहर्ष स्वीकार किया था। ऋग्वेद में कई स्थानों पर उल्लेखित है कि कितने व्यवस्थित ढंग से रुभूसो द्वारा अपिन्षत विधि से गाय की उत्तम नश्लो हेतु सतत प्रयास किए गए थे। ऋग्वेद (1-161-3) में कहा गया है की रुभूस अपने इस शोध में इतनी तन्मयता से व्यस्त थे कि उन्होंने श्रेष्ठ ऋषियों द्वारा किए जा रहे यज्ञ में भाग लेने को भी मना कर दिया था। ऋग्वेद (4-33-4) में उल्लेखित है कि अपने इस शोध में रुभुस गायों की सेवा और सुरक्षा ऐसे करते थे जैसी कोई मातृभक्त पुत्र उसकी माता की करता है। ऋग्वेद में यह भी उल्लेखित है कि गाय की अचानक मृत्यु हो जाने पर उसके अनाथ बछड़े को दूध देती नई मां प्रदान करने की लिए रुभूसो द्वारा अपिंशत ( क्लोन) मां गाय को उत्पन्न किया जाता था।ऋग्वेद (1-30-6; 1-110-5; 4-33-4; 4-35-3,4; 4-36-4) के अनुसार उन्ही रुभूस बंधुओं ने चमस ( चार सीमाओं में संचित एक जीव द्रव्य) में उपस्थित एक जीव कोशिका (त्वस्था) को एक बहुत उत्तम कोटि के तीक्ष्ण यंत्र द्वारा चार भागों में विभाजित करके चार अलग विशिष्ट पात्रों में विकसित चार पशुओं को उत्पन्न किया था। चमस को विभाजित करने की इसी विधि द्वारा महर्षि वेद व्यास ने सौ कौरव कुमारों तथा एक कन्या दुशला को उत्पन्न किया था जैसा महाभारत में उल्लेख है। जिसके अनुसार महारानी कुंती द्वारा युधिस्ठिर को जन्म दिए जाने का समाचार पाकर धृतराष्ट्र की कुंठाग्रस्त रानी गांधारी ने क्रोधित होकर अपने गर्भ के पिंड को गिरा दिया था जो बिना किसी स्वरूप के जीवित कोशिकाओं का समूह था जिस में से महर्षि व्यास ने जीवित कोशिकाओं को अलग करके विशिष्ट घृत कुम्भो में स्थापित किया था और कुछ समय उपरांत इनमे से 101शिशुओं को उत्पन्न किया था। विष्णु पुराण (1-13-8,9; 33,36,39) के अनुसारअपिंशांतन के वैदिक सिद्धांत को प्रयोग करके मृत नरेश वेन के शरीर से प्रथु नाम के नरेश को उत्पन्न किया था ( एक मृत अत्याचारी नरेश से अति उत्तम प्रकृति के नरेश को उत्पन्न किया था)।
श्रीमद भागवत( 4/5) के अनुसार ऋषियों ने मृत नरेश वेन के शरीर से अपिन्शत विधि द्वारा एक कन्या को भी उत्पन्न किया था। इस प्रकार वैदिक काल में एक ही मृत पुरुष शरीर से बालक एवम बालिका की उत्पत्ति सभी को विस्मित करने का प्रसंग था। परम शक्ति पार्वती के मल ( त्वचा की बाह्य परत) से गणपति गणेश की उत्पत्ति भी अपिंशत क्रिया से ही हुई थी। इसी प्रकार दुर्गा सप्तशती (5/87) के अनुसार असुर शुंभ तथा निशुंभ का विनाश करने के लिए देवी पार्वती ने अपने शरीर से देवी कौशिकी को उत्पन्न किया था:शरीर कोषाद्यत्स्य पार्वत्या निः स्रतांबिका।कौशीकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते।।यह भी अपिंशत विधि (क्लोनिंग)का उदाहरण है। इसी प्रकार दुर्गा सप्तशती (7/6) के अनुसार देवी अंबिका की भवों से महाकाली की उत्पत्ति हुई थी:भृकुटी कुटिलात्त्स्य ललाट फल काद्दृत्तम।काली करालवदना विनिषकांता सिपाशिनी।।इसी प्रकार दुर्गा सप्तशती (8/41) में असुर रक्तबीज के रक्त की बूंदों से अनेक असुरों की उत्पत्ति का उल्लेख किया गया है: रक्त बिंदुर्यदा भूमोपत्त्यास्य शरीरतह। समुत्पत तिमेडिन्या तत्प्रमाणस्तासुरः ।।।विष्णुपुराण में भी ये वर्णित है कि एक अति प्राचीन वैज्ञानिक परीक्षण में एक अति असाधारण मानव निषाद को अपिंशत विधि द्वारा निर्मित किया गया था जिसका सर बहुत छोटा और शेष शरीर बहुत विशाल था। असाधारण क्लोन होते हुवे भी ये निषाद दीर्घायु हुए तथा इन्होंने संताने भी उत्पन्न की थी। अयोनिजा संतान उत्पत्ति:ऋग्वेद(7-33-13) में उल्लेख है कि महर्षि अगस्थ्य तथा ब्रह्मऋषि वशिष्ठ की उत्पत्ति एक विशिष्ट जलपात्र (कलश) पुष्कर से क्रमशः मित्र एवम वरुण के तेज से हुई थी। उनकी कोई जननी (मां) नही थी। उनके जन्म किसी पुरुष एवम स्त्री के संसर्ग के परिणाम नही थे। उनकी उत्पत्ति के कारण केवल नर (मेल्स) थे। इसी लिए इन्हे कलशसुत कहा जाता था। इसी प्रकार अयोनिजा सीता को धरा सुता ( पृथ्वी पुत्री) कहा जाता था। इसी प्रकार महाभारत में द्रोपदी तथा धृष्टद्युमन की यज्ञ में प्रयुक्त पात्र से द्रुपद के वीर्य से उत्पत्ति के कारण द्रोपदी को अग्निसुता कहा गया है। उनकी भी कोई जननी नही थी। इसी प्रकार महाभारत में द्रोणाचार्य की उत्पत्ति एक विशिष्ट पात्र (द्रोण) से महऋषि भारद्वाज के वीर्य से होने का उल्लेख है उनकी भी कोई जननी नही थी। इन सभी वैज्ञानिक पर्रेक्षणों को वित्रो ( बिना नारी शरीर) में किया गया था। अतः इन सभी संतानों को अयोनिजा उल्लेखित किया गया था। महाभारतकाल में ही एक अन्य परीक्षण में अयोनिज पुरुष द्रोण का विवाह अयोनिजा स्त्री कृपि से करके इस जोड़े के व्यवहार का अध्ययन किया गया था तथा पाया गया था कि इनका वैवाहिक जीवन पूर्णतः सफल था तथा इन्होंने एक स्वस्थ एवम बुद्धिमान चिरंजीवी पुत्र अश्वत्थामा को उत्पन्न किया था। निर्संग ( बिना स्त्री पुरुष संसर्ग ) संताने:प्रथा -जेनेसिस प्रक्रिया का प्राचीन जीव विज्ञान में विस्तृत वर्णन है जिसके अनुसार रानी मधुमक्खी सूर्य की ओर करके गर्भाशय के छिद्र को खोलकर अंडो का सृजन करती है जिन से बिना किसी नर मक्खी द्वारा सिंचन के ही संताने ( मधु मखियां) उत्पन्न हो जाती हैं। ये तथ्य साधारण मनुष्य के लिए रहस्य हो सकता है ।परंतु ये वैज्ञानिक परीक्षण सम्मत है। महाभारत काल में इसी तकनीक का ज्ञान महऋषि दुर्वासा ने कुंती (प्रथा) को दिया था जिस से किसी भी दिव्य प्राकृतिक शक्ति स्रोत से ऊर्जा लेकर बिना स्त्री पुरुष संसर्ग के संताने उत्पन्न की जा सकती थी।
इस तकनीक के परीक्षण करने के लिए कोतुहल वश कुंती ने विवाह पूर्व ही सूर्य की ऊर्जा हेतु प्रयोग कर दिया जिसके फल स्वरूप कर्ण का जन्म हुआ था ।इस तकनीक को मानव हेतु महऋषि दुर्वासा ने ही विकसित किया था तथा इसका ज्ञान जन साधारण को नही था। इस कारण लोक लाज हेतु कुंती द्वारा कर्ण का जन्म होते ही त्याग करना पड़ा था जिसका वर्णन महाभारत्के आदि पर्व-111 में किया गया है। इसी तकनीक द्वारा कुंती ने उसके पति वीर पांडु के अनुरोध पर तीन अतिश्रेष्ठ पुत्रों (युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन) को उत्पन किया तथा दो अन्य श्रेष्ठ पुत्रों (सहदेव तथा नकुल) को पांडु की दूसरी पत्नी माद्री द्वारा उत्पन्न कराया था। इसी तकनीक द्वारा महऋषि व्यास ने विचित्रवीर्य की विधवा पत्नियों अंबिका और अंबालिका से बिना शारीरिक संबंध बनाए नियोग द्वारा पांडु और धृतराष्ट्र को उत्पन्न किया था। महाभारत काल में इस तकनीक का ज्ञान महऋषि व्यास, भीष्म पितामह तथा श्रीकृष्ण को था और इसी कारण धृतराष्ट्र और पांडु को कुरुवंश साम्राज्य की विरासत मिली और पांचों पांडवों को कुरूवंश के सम्मानित राजकुमारों तथा ज्येष्ठ पांडव राजकुमार युधिष्ठिर को हस्तिनापुर के युवराज पद का सम्मान मिला था।अपिंशत (क्लोनिंग) , अयोनिजा एवम निर्संग जैसी नियोग संतान की उत्पत्ति की प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक पद्धति का मेरी नव प्रकाशित पुस्तक “Historical, Cultural and Scientific Heritages of India”में विस्तार से विश्लेषण किया गया है जिसे प्रगति प्रकाशन मेरठ द्वारा प्रकाशित किया गया है। पुस्तक की प्रति हेतु प्रकाशक से सीधे संपर्क किया जा सकता है:प्रगति प्रकाशन240 वेस्ट कचहरी रोड मेरठ
(लेखक पूर्व कुलपति तथा उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा परिषद के अध्यक्ष हैं)