तीन पेंशन वाले देश में एक चुनाव

0
10
Spread the love

अरुण श्रीवास्तव 

फिर निकला ‘एक देश एक चुनाव’ जिन्न’। यह जिन्न जिसे वक्त ने देश की आजादी के साथ ही कुछ वर्षों तक बोतल में कैद कर रखा था। आजादी मिलने के क ई बार लोक सभा चुनाव ही विधानसभा चुनाव भी होते रहे पर बीच में विधानसभा भंग होने के साथ ही एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होने का सिलसिला भी भंग हो गया। अपने तीसरे कार्यकाल के पहले स्वाधीनता दिवस समारोह के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से देश संबोधित करते हुए करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी जी ने कहा था कि,’ अब समय आ गया है कि एक देश एक चुनाव’ की ओर हमें आगे बढ़ना चाहिए। हालांकि इसके तुरंत बाद ही हमारे चुनाव आयोग ने दो राज्यों में विधानसभा चुनाव कराने की मुनादी कर दी जबकि होने चार राज्यों में चाहिए। मतलब यह विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का चुनाव आयोग एक साथ चार राज्यों में चुनाव नहीं कर सकता प्रधानमंत्री जी लाल किले से एक देश एक चुनाव की बात करते हैं। यानी पूरे देश में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने की सिफारिश करते हैं। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि लोकसभा का चुनाव और यदि इसके साथ ही किसी प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव पड़ गए तो तमाम तरह की व्यवस्थाएं देखने को मिलती हैं। चुनाव आयोग चुनाव की प्रक्रिया को द्रोपदी के चीर की तरह खिंचता जाता है। मतलब दो-दो महीने तक चुनाव की प्रक्रिया चलती है। एक छोटी से राज्य में भी कई चरणों में चुनाव कराने का फैशन सा हो गया है ऐसे में एक देश एक चुनाव की बात अव्यावहारिक लगती है। यहां पर यह भी ध्यान देने वाली बात है कि एक देश एक चुनाव की परंपरा टूटी क्यों? वह कौन सी दिक्कत या मुसीबत आ गई थी कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव भविष्य में एक साथ नहीं हो पाए।
बताते चलें कि यह विविधताओं का देश है। जितने प्रदेश हैं उससे ज्यादा बोली, पढ़ी और समझी जाने वाली भाषाएं हैं। एक प्रदेश में ही कई-कई भाषाएं और बोलियों को लिखने-पढ़ने और समझने वाले लोग मिल जाएंगे। देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो यहां पर भोजपुरी, अवधी बोलने वालों की संख्या काफी ज्यादा है। यही नहीं अन्य प्रदेशों से लगे जिलों में उन प्रदेशों की भाषा बोली ही माध्यम है। जैसे मथुरा की ओर बढ़ें तो वहां की बोली खड़ी बोली से बिल्कुल अलग है तो मेरठ और सहारनपुर की बोली बिल्कुल अलग। मध्य प्रदेश से लगा उत्तर प्रदेश का जिला बांदा की बोली का रींवा की बोली का काफी प्रभाव है। वैसे भी एक कहावत है ‘कोस कोस में बदले पानी, चार कोस पर वाणी’। एक देसी कहावत है ‘बनारस की ऐली-गैली मिर्जापुर के रे इलाहाबाद की ऐसी बोली बाप को काहें बे’। इलाहाबाद से लगे वाराणसी में भोजपुरी बोली जाती है तो इलाहाबाद से ही लगे प्रतापगढ़ में अवधी। कहने का मतलब यह कि जब एक जिले में इतनी विविधता है तो एक देश में क्यों नहीं होगी? फिर उत्तर भारत और दक्षिण भारत में तो अनुलोम विलोम का का रिश्ता रहता है ऐसे में क्या एक देश एक इलेक्शन कामयाब रहेगा?
किसी भी देश में एकरूपता अच्छी बात है, पर जब एक ही देश में एक ही प्रदेश में या एक ही विभाग में भिन्नता रहे तब ये सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि ऐसा क्यों?
बात मुद्दे की, कैबिनेट ने एक देश एक इलेक्शन पर मुहर लग गई वह भी इस स्थिति में की सरकार का दोनों सदनों में दो तिहाई क्या पूर्ण बहुमत भी नहीं है फिर इस तरह के मुद्दे लोकसभा और राज्यसभा से ही पास नहीं होते प्रदेश की विधानसभाओं में भी इन्हें पारित कराना पड़ता है। कैबिनेट की मुहर लगने से पहले क्या सरकार ने वन नेशन वन इलेक्शन पर अपने सहयोगी दलों सहित अन्य राजनीतिक दलों से किसी तरह का विचार विमर्श किया है? यदि नहीं ये भी रास्ते का रोड़ा बन सकता है।
वैसे एक देश एक चुनाव ही क्यों ? एक देश एक शिक्षा क्यों नहीं? एक देश एक स्वास्थ्य व्यवस्था क्यों नहीं? जब देश एक है और देश के नागरिक एक हैं तो यह दोहरापन क्यों? केंद्र सरकार के कर्मचारियों को ही लें तो तीन तीन पेंशन।
प्रदेश सरकार के कर्मचारियों में भी भेद-भाव क्यों? सरकार एक है और उसके कर्मचारी भी तो दोअंखी क्यों? मसलन नियुक्तियों को लें या सेवानिवृत्ति को। इसमें अंतर क्यों? केंद्र सरकार ने अपने के कर्मचारियों के लिए ही तीन तरह के पेंशन की व्यवस्था कर रखी है ओपीएस, एनपीएस और यूपीएस ऐसा क्यों? उत्तर प्रदेश को ही लें जो खुद को उत्तम प्रदेश कहता है। इसके शिक्षा विभाग में प्राइमरी शिक्षकों के सेवानिवृत्ति की आयु 62 वर्ष है तो उच्च शिक्षा में काम करने वाले लोगों की 65 और माध्यमिक शिक्षा से जुड़े शिक्षकों की 60 वर्ष है ऐसा क्यों? चिकित्सकों के सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष है। एक ही विभाग के बाबू को पूरे सेवाकाल में कई प्रमोशन मिलते हैं शिक्षकों को नहीं।
देश की भावी पीढ़ी के लिए दो तरह की शिक्षा व्यवस्था क्यों? रईसों बच्चों के लिए कान्वेंट स्कूल और गरीबों के बच्चों के लिए मौलिक सुविधाओं से विहीन सरकारी स्कूल। गरीबों के लिए सरकारी अस्पताल व कमीशन वाली दवाएं तो रईसों के लिए फाइव स्टार होटल को मात देने वाले भव्य अस्पताल। जब नागरिक एक हैं तब ये भेदभाव क्यों? इलेक्शन को ही ले लीजिए। हर मतदाता के वोट की कीमत एक ही होती है चाहे वह अंबानी हो अदानी हो या निचले पायदान के 80 करोड़ वो लोग जो 5 किलो मुफ्त राशन के सहारे जीने को मजबूर हैं।
उल्लेखनीय है कि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी समिति की रिपोर्ट के आधार पर मोदी सरकार ने वन नेशन वन इलेक्शन को हरी झंडी दी। इस संबंध में मोदी सरकार का कहना है कि भारत जैसे विशाल देश में कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं। कभी लोकसभा का तो कभी विधानसभा का। तो कभी उप चुनाव। इस दौरान आचार संहिता के कारण सरकारी कामकाज बुरी तरह से प्रभावित होता है। एक देश एक चुनाव होने से जहां सरकारी खर्चे में कमीं आएगी वहीं पर कामकाज में भी बाधित नहीं होगा।
यहां यह जानना भी जरूरी है कि अन्य परियोजनाओं की तरह ही ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ मोदी सरकार का सपना नहीं। देश की आजादी के बाद पहला आम चुनाव 1951 52 में हुआ। 1957 1962 और 1967 तीन आम चुनाव तक जारी रहा हालांकि 1968 और 69 में कुछ विधानसभाओं के समय से पहले भंग हो जाने के कारण यह व्यवस्था भी भंग हो गई। 1970 में लोकसभा को समय से पहले ही भंग कर दिया गया और 1971 में नए चुनाव कराए गए। इस समय जो लोकसभा चल रही थी वह 15 महीने पहले ही भंग कर दी गई क्योंकि इंदिरा गांधी की सरकार अल्प में थी और वो पूर्ण बहुमत चाहती थीं।
यानी कि जो समस्याएं पहले थीं जिसके कारण एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव नहीं हो पाए वह तो अब भी है। देश की आजादी के बाद शुरुआती दौर में हुए चुनाव के नतीजे एकतरफा रहे। गठबंधन की सरकारें नहीं रहीं सबसे बड़े दल के रूप में कांग्रेस थी जो लगातार कई दशक तक सत्ता में रही। आज का दौरा गठबंधन सरकारों का है और क्षेत्रीय दल पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा मजबूत स्थिति में हैं ऐसे में वन नेशन वन इलेक्शन के व्यावहारिक तौर पर कामयाब होने के लक्षण नहीं दिख रहे है। उदाहरण के लिए लोकसभा या विधानसभाओं के चुनाव होने के 6-7 महीने बाद ही यदि सरकार अल्पमत में आ जाती है तो उस स्थिति में क्या होगा? राष्ट्रपति शासन की भी समय सीमा है। जो सीमित समय तक के लिए बढ़ाई जा सकती है। फिर हर चुनाव के साथ ही कुछ प्रदेशों में उपचुनाव भी होते हैं तो वन नेशन वन इलेक्शन के दौर में यह व्यवस्था कैसे चल पाएगी यह भी गंभीर विषय है।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here