अभिजीत पाण्डेय
पटना । लोकसभा चुनाव के मतदान तक जिस नीतीश कुमार को लोग चूका हुआ मान रहे थे और दो महीने पहले तक इस बात की चर्चा हर तरफ थी कि लोकसभा चुनाव के बाद क्या भाजपा नीतीश कुमार को कंटिन्यू करेगी ? राजनीतिक हालात ऐसे बने हैं कि नीतीश कुमार राजनीतिक तौर पर अगले पांच साल के लिए प्रासंगिक हो गए हैं। वर्तमान राजनीतिक समीकरण ने इसका जवाब दे दिया है।
नीतीश कुमार की लोकप्रियता बतौर मुख्यमंत्री बिहार में तेजी से कम हुई है, लेकिन परिस्थितियों के अनुसार उन्हें ही नेता मानना भाजपा के लिए मजबूरी है,क्योंकि इस चुनाव ने नीतीश को केंद्र की चाभी दे दी है। राजद के पास नीतीश कुमार की वापसी की कम संभावना है, लेकिन अगर वो जाते हैं तो वहां भी नीतीश कुमार को ही नेता मानने की मजबूरी राजद के पास भी होगी।
केंद्र सरकार की मजबूती के लिए नीतीश कुमार के 12 सांसद बेहद महत्वपूर्ण हैं। भाजपा को अब इसके बदले में बिहार में अपने मुख्यमंत्री की इच्छा को कुर्बानी देनी होगी। अगर नीतीश कुमार को बिहार में डिस्टर्ब करने की कोशिश हुई तो नीतीश केंद्र की राजनीति में खेल कर सकते हैं। पहले नीतीश कुमार के पास 16 सांसद थे लेकिन उनकी ताकत वो नहीं थी जो अब उनके 12 सांसदों की हो गयी है।
इस चुनाव परिणाम ने भाजपा को बिहार की राजनीति में 2009-2010 के हालत में ला खड़ा कर दिया है। जहां से बिहार भाजपा की स्वायत्तता एक बार फिर से खतरे में होगी, नीतीश का दवाब फिर से भाजपा पर बहुत अधिक बढ़ सकता है।
बिहार में जीतन राम मांझी और चिराग पासवान की पार्टी का स्ट्राइक रेट सौ फीसदी का रहा। चिराग पासवान के सभी 5 उम्मीदवार चुनाव जीतने में सफल रहे, लेकिन चिराग पासवान के साथ खेल टिकट बंटवारे के समय ही हो गया। चाचा पारस से हिसाब किताब करने के चक्कर मे चिराग ने नीतीश कुमार के करीबियों को टिकट दे दिया।
नीतीश कुमार के बेहद करीबी अशोक चौधरी की बेटी शाम्भवी को समस्तीपुर से मैदान में उतारा गया, समस्तीपुर की बगल की ही सीट से जदयू के विधान पार्षद दिनेश सिंह की पत्नी को टिकट दिया गया। खगड़िया से भागलपुर के उद्योगपति राजेश को उम्मीदवार बनाया गया। चिराग के 5 में से 3 सांसद नीतीश कुमार के करीबी हैं।
चिराग अगर 2020 वाला कोई खेल आगे करने की इच्छा भी रखते होंगे तो उन्हें पार्टी में भारी विरोध का सामना करना पड़ सकता है। खासकर अशोक चौधरी की बेटी शाम्भवी को नजरअंदाज करना चिराग के लिए मुश्किल होगा।बिहार और देश की मीडिया में तेजस्वी की लोकप्रियता की काफी चर्चा थी।
चर्चा का प्रमुख कारण 2020 के चुनाव में राजद की अच्छी सफलता थी। हालांकि राजद ने उस चुनाव में अधिकतर उन सीटों पर चुनाव जीता था जहां उसका मुकाबला जदयू से था, क्योंकि जदयू की सीटों पर भाजपा का डमी कैंडिडेट लोजपा की टिकट पर खड़ा था।
लोजपा को लोकसभा चुनाव में कंट्रोल कर नीतीश कुमार ने भविष्य में राजद की राह को कठिन कर दिया है, दूसरी तरफ पप्पू यादव प्रकरण के बाद राजद को लेकर कांग्रेस भी बिहार में बहुत अधिक सहज नहीं है,चुनाव में भी राजद को बहुत सीटे नहीं मिली है। ऐसे में राजनीतिक वापसी के लिए लालू परिवार को अगले लम्बे समय तक नीतीश की राह ही देखनी पड़ेगी।
किसी दूसरे विकल्प पर तब ही समझौता हो सकता है जब वो विकल्प नीतीश कुमार के लिए पीएम का पद हो, जो विपक्षी गठबंधन की तरफ से मुश्किल दिखता है।नीतीश कुमार के राजनीतिक जीवन मे हार-जीत का दौर चलता रहा है। कई बार जब लोग उन्हें चूका हुआ मान लेते हैं तो वो फिर से उठकर खड़े हो जाते हैं। 1974 के आंदोलन से राजनीति में एंट्री करने वाले नीतीश 1985 में पहली बार विधायक बन पाए थे
इससे पहले उन्हें लगातार हार का सामना करना पड़ा था। 1991 में एक बार फिर लोकसभा चुनाव हारने के बाद नीतीश की राजनीति पर प्रश्नचिन्ह खड़े हो गए थे, लेकिन 1995 आते-आते समता पार्टी बनाकर नीतीश कुमार फिर खड़े हो गए। 2004 की लोकसभा चुनाव में केंद्रीय मंत्री रहते हुए नीतीश बाढ़ लोकसभा सीट से चुनाव हार गए थे, साथ ही एनडीए की भी बिहार में करारी हार हुई थी।
लगभग 1 साल बाद ही हुए विधानसभा चुनाव में अच्छी खासी सीट जीत कर उन्होंने वापसी कर ली. 2014 के लोकसभा चुनाव में महज 2 सीट पर सिमटने के बाद नीतीश युग के खत्म की बात हुई, लेकिन 10 साल बाद ही नीतीश कुमार ने बाजी पलट दी, एक बार फिर 4 सीट कम जीतने के बावजूद नीतीश कुमार ने 5 साल की राजनीति जीत ली है।