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जदयू में जार्ज फर्नांडीज वाली हालत में पहुंचने वाले हैं नीतीश कुमार!

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जिस तरह से नीतीश कुमार ने अपने गुरु जार्ज को साइडलाइन कर शरद यादव को कमान सौंपी थी उसी तरह से उनके साथ ललन सिंह और संजय झा खेल करने जा रहे हैं ?, बाबा साहेब पर बयान देने पर नीतीश कुमार के रिऐक्शन के बाद नीतीश के रुख से नाराज हैं अमित शाह, ललन सिंह और संजय झा से जदयू पर करा सकते हैं कब्ज़ा, अब लालू से भी कोई बड़ी राहत मिलना मुशिकल लग रहा है नीतीश कुमार को 

चरण सिंह 
नई दिल्ली/पटना। नीतीश कुमार ने जिस तरह से गृह मंत्री अमित शाह के बयान के बाद अपने तेवर दिखाए और जिस तरह से वह शांत हो गए। वह भी तब जब अमित शाह ने कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया। ऐसे में यह माना जा रहा है कि नीतीश कुमार को जदयू में टूट के अंदेशे के चलते बैकफुट पर जाना पड़ा है। हालांकि अमित शाह के प्रति वह आज भी नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं।दरअसल अमित शाह का 6 जनवरी से बिहार का दौरा था पर वह बिहार नहीं पहुंचे।
खबर यह आ रही है कि नीतीश कुमार के उनसे न मिलने के अंदेशे के चलते अमित शाह बिहार नहीं गए हैं। अमित शाह नीतीश कुमार से तब से खार खाए ये हुए हैं कि जब से उन्होंने अमित शाह के बाबा साहेब पर दिए बयान का बचाव तो किया ही नहीं साथ ही बाबा साहेब की तस्वीर अपने महिला कार्यकर्ताओं से भेंट कराकर उनकी तस्वीर पर नमन अलग से कर दिया। अमित शाह को नीतीश कुमार का ऐसा करना उनको एहसास कराना लगा।
खबर तो यहां तक है कि नीतीश के सिपहसालार ललन सिंह और संजय झा खुद नीतीश कुमार को साइडलाइन कर जदयू कब्जाने की फ़िराक में हैं। ऐसा अंदेशा व्यक्त किए जा रहा है कि  अमित शाह के इशारे पर ये दोनों महारथी जदयू तोड़ सकते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या नीतीश कुमार की हालत जदयू में उनके गुरु जार्ज फर्नाडिस वाली होने वाली है। क्या जो व्यवहार नीतीश कुमार ने जार्ज फर्नाडीस के साथ किया वही व्यवहार ललन सिंह उनके साथ करने जा रहे हैं।
याद कीजिये 2009 का लोकसभा चुनाव जब जार्ज साहब जदयू के टिकट से बेदखल हुए थे।  नीतीश के विरोधी आरोप लगाते हैं कि उन्होंने जॉर्ज की आखिरी इच्छा का सम्मान नहीं किया। तब जार्ज फर्नांडीस निर्दलीय मुजफ्फरनगर से चुनाव लड़े और हार गए थे। तब यह संदेश गया था कि नीतीश कुमार ने अपने गुरु जार्ज फ़र्नांडीस के साथ अच्छा नहीं किया। इतना ही नहीं 2006 जब जदयू की अध्यक्षता का विषय आया तो उस समय भी नीतीश ने जॉर्ज की दावेदारी को खारिज कर शरद यादव को अध्यक्ष बनवा दिया था।

हालांकि नीतीश कुमार ने कभी इन दोनों विषयों पर आधिकारिक तौर पर अपनी राय सार्वजनिक नहीं की। लेकिन, घटनाक्रम को करीब से जानने वाले लोग बताते हैं कि जॉर्ज के बदले शरद का अध्यक्ष बनना अपरिहार्य था। जनता दल यू एक ही विचार का दो समूह काम कर रहा था। जनता दल और समता पार्टी।
तब यह कहा गया था कि समता से आए नीतीश मुख्यमंत्री बन गए थे। अध्यक्ष का पद भी इस समूह को मिलता तो मूल जनता दल वालों की नाराजगी बढ़ती। इसे रोकने के लिए ही नीतीश ने शरद का साथ दिया। 2009 के लोकसभा चुनाव में जॉर्ज को बेटिकट किया गया तो किसी के पास कोई जवाब नहीं था।
उस समय शरद यादव ने जॉर्ज को एक पत्र लिखा था। इसमें जॉर्ज की बीमारी और उम्र का जिक्र है। आग्रह है कि सेहत को देखते हुए आपका चुनाव लडऩा ठीक नहीं होगा। चुनाव मत लडि़ए। राज्यसभा में बिहार से जो पहली वैकेंसी होगी, वह आपसे भरी जाएगी। रोकने के बाद भी जॉर्ज मुजफ्फरपुर से लड़े। सिर्फ 22 हजार वोट आया। यह उनके जीवन का आखिरी चुनाव था।
देखने की बात यह है कि भले ही लालू प्रसाद परिवार को सत्ता से बेदखल करने का श्रेय भले ही नीतीश लेते हों पर इस काम में विशेष योगदान जार्ज फर्नांडीस का था। दरअसल 90 के दशक में मुख्यमंत्री की हैसियत से लालू प्रसाद बीस साल तक राज करने की बात कर रहे थे, उस दौर वे अपराजेय मान लिए गए थे।
लालू के शासन के तीसरे कार्यकाल में जब जॉर्ज फर्नांडीस ने उन्हें सत्ता से बेदखल करने का एलान कर बिहार की राजनीति में कुछ बड़ा करने का संदेश दिया था। उस समय लोग कह रह रहे थे कि जमीनी सच्चाई को जानने वाले जॉर्ज आखिर क्या बोल रहे हैं ?
2000 में जॉर्ज ने बीजेपी से दोस्ती की और नीतीश कुमार ठोस रणनीति के साथ मैदान में उतारा। बीजेपी के साथ हाथ मिलाते ही  लालू प्रसाद की सत्ता को चुनौती मिल चुकी थी। न्याय यात्रा के दम पर 2005 में बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने।
मोर्चे पर भले ही नीतीश  कुमार थे पर जॉर्ज तन और मन से लगे हुए थे।
जार्ज साहब ने ही नीतीश कुमार में संभावनाएं देखी थी इसलिए उन्होंने नीतीश को आगे रखकर समता पार्टी को बढ़ाया। मतलब नीतीश का राजनीतिक सफर सफर जॉर्ज के बिना संभव नहीं था।
जार्ज साहब ही थे जिन्होंने नीतीश कुमार को राजनीति में उभारा था। बात 1994 की है। भाकपा, माकपा, झामुमो, माक्र्सवादी समन्वय समिति और निर्दलियों की मदद से लालू प्रसाद की सरकार चल रही थी। रामसुंदर दास के साथ रह कर विरोध करने वाले तमाम नेता लालू कैबिनेट में मंत्री बन चुके थे। उसी दौर में जॉर्ज-नीतीश ने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। जॉर्ज मुजफ्फरपुर से लौट रहे थे। तुर्की के पास उनके काफिले पर हमला हो गया। किसी को शारीरिक क्षति नहीं हुई। गाडिय़ों को नुकसान हुआ। मंत्रिमंडल के दो सदस्यों का सिर्फ मुंह खुला। श्रम मंत्री बशिष्ठ नारायण सिंह और स्वास्थ्य मंत्री सुधा श्रीवास्तव ने घटना की आलोचना की।
इतना ही नहीं, जिस दिन गांधी मैदान में जनता दल जॉर्ज के गठन के लिए रैली हो रही थी, दोनों मंत्री कैबिनेट और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर सभास्थल पर पहुंच गए। यह जॉर्ज की बड़ी नैतिक विजय थी। 1995 के विधानसभा चुनाव की पराजय के बाद जॉर्ज को लग गया था कि अकेले लालू प्रसाद का मुकाबला संभव नहीं है। उसी समय भाजपा से दोस्ती का विचार आया। अगले साल के लोकसभा चुनाव में समता का गठबंधन भाजपा के साथ हो गया। लोकसभा चुनाव के बाद 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुआ। भाजपा-समता चार सीट जीत गई थी। 10 में चार, यह उम्मीद जगाने वाला परिणाम था। 1997 में जनता दल में एक और विभाजन हुआ।
लालू प्रसाद ने राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया। शरद यादव जनता दल में रह गए। इधर, एनडीए का कारवां बढ़ रहा था। 2000 तक राजद के विरोध में एक ठोस गोलबंदी शक्ल ले चुकी थी। सात दिनों की नीतीश सरकार राजद विरोधियों का हौसला बढ़ा गई।
2005 के फरवरी वाले विधानसभा चुनाव के बाद साझे में चुनाव लड़े लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान अड़ गए कि वे लालू प्रसाद के परिजन को मुख्यमंत्री स्वीकार नहीं करेंगे। उसी साल नवम्बर में नीतीश की अगुआई में जो सरकार बनी, वह संक्षिप्त अवधि को छोड़ कर अबतक कायम है। थोड़े समय के अलगाव के बाद जदयू फिर एनडीए का अंग है। पर नीतीश कुमार के हालात अपने राजनीतिक गुरु जार्ज साहब जैसे लग रहे हैं।