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रोज नये गठजोड़

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भाई-भाई में हुई, जब से है तकरार ।
मजे पड़ोसी ले रहे, काँधे बैठे यार ।।

शायद जुगनूं की लगी, है सूरज से होड़ ।
तभी रात है कर रही, रोज नये गठजोड़ ।।

रोज बैठकर पास में, करते आपस बात ।
‘सौऱभ’ फिर भी है नहीं, सच्चे मन जज्बात ।।

‘सौरभ’ सब को जो रखे, जोड़े एक समान ।
चुभें ऑलपिन से सदा, वो सच्चे इंसान ।।

जो खुद से ही चोर है, करे चोर अभिषेक ।
उठती उंगली और पर, रखती कहाँ विवेक ।।

जब से ‘सौरभ’ है हुआ, कौवों का गठजोड़ ।
दूर कहीं है जा बसी, कोयल जंगल छोड़ ।।

ये कैसा षड्यंत्र है, ये कैसा है खेल ।
बहती नदियां सोखने, करें किनारे मेल ।।

(सत्यवान ‘सौरभ’ के चर्चित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से। )