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रंग लाया नेताजी का प्रयास : एक हुए चाचा भतीजे 

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सी.एस. राजपूत   
खिरकार नेताजी का प्रयास रंग लाया। जो चाचा भतीजा एक दूसरे को देखना भी पसंद नहीं कर रहे थे वे अब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मिलकर भाजपा के खिलाफ ताल ठोकने जा रहे हैं। जिन नेताजी को उनके साथी बेनीप्रसाद का बिछुड़ना विचलित न कर सका। राजबब्बर का बिछुड़ना विचलित न कर सका। आजम खां का बिछुड़ना विचलित न कर सका। यहां तक अमर सिंह के बिछुड़ने से भी वह न डगमगाए। उन नेताजी को उनके अनुज शिवपाल यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव के विवाद ने विचलित कर दिया। जिस चूल्हे की रोटी ने अखिलेश यादव को हस्ट-पुष्ट बनाया, वही चूल्हा नेताजी और अखिलेश यादव से अलग हो गया था। यह पीड़ा नेताजी न छुपा पा रहे थे और न ही उससे उबर पा रहे थे। चार महीने जब शिवपाल यादव उनकेस्वास्थ्य का हाल जानने के लिए उनसे मिलने पहुंचे तो उन्होंने इस मुलाकात और मजबूत होने के संकेत शिवपाल यादव को दिये। वह मजबूती अखिलेश यादव से मिलाने की थी। शिवपाल यादव भी लगातार अखिलेश यादव से समय मांगने की बात कर रहे थे। यहां तक गत दिनों जब शिवपाल यादव आजम खां से जेल में मिले तो उन्होंने आजम खां की ओर से भी समाजवादियों को मिलकर भाजपा का मुकाबला करने की बात कही। अब जब अखिलेश यादव विधानसभा चुनाव को जीतने के लिए छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन कर रहे हैं तो कल वह अपने चाचा शिवपाल यादव से भी मिले। चाचा भतीजे की मुलाकात ने उत्तर प्रदेश के समीकरण बदलने के संकेत दे दिय है
मुलायम सिंह की पीड़ा यह है कि अखिलेश यादव के हाथों में आने के बाद समाजवादी पार्टी लगातार कमजोर हुई है। नेताजी जानते हैं कि भले ही योगी सरकार से लोग नाराज हों पर अखिलेश यादव का अकेले दम पर भाजपा को हराना मुश्किल है। नेताजी चाहते हैं कि अखिलेश यादव और शिवपाल यादव मिलकर चुनाव लड़ें और उत्तर प्रदेश में सरकार बनायें । नेताजी अखिलेश यादव के निर्णय से नाराज भी हुए। २०१७  के विधानसभा चुनाव में जब अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया तो मुलायम सिंह यादव इस गठबंधन से सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि जिस कांग्रेस के साथ वह जिंदगी भर लड़ते रहे। जिस कांग्रेस ने उन पर गोलियां चलवाई उसी कांग्रेस के साथ उनके बेटे ने हाथ मिला लिया। ऐसी टीस का सामना उन्हंे तब करना पड़ा जब २०१९ के लोकसभा चुनाव में उनकी चिर प्रतिद्वंद्वी मानी जाने वाली बसपा से हाथ मिला लिया।
जहां तक शिवपाल यादव और अखिलेश यादव के बीच विवाद की बात है तो जब अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब 1 जनवरी 2017 को उन्होंने चाचा रामगोपाल यादव के साथ मिलकर लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क में समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन बुलाया। इसी अधिवेशन में अखिलेश यादव ने पार्टी में तख्तापलट करते हुए न केवल शिवपाल यादव बल्कि अपने पिता मुलायम सिंह यादव के राज को भी खत्म कर दिया। सपा में चल रहा अमर सिंह का वर्चस्व भी खत्म कर दिया गया। अखिलेश यादव खुद पार्टी के अध्यक्ष बन बैठे। इसी अधिवेशन में पार्टी ने कुल तीन बड़े प्रस्ताव पारित किए थे। पहला, अखिलेश यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाना और मुलायम सिंह यादव को पार्टी का मार्गदर्शक बनाना। दूसरा, शिवपाल सिंह यादव को सपा के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया गया और उनकी जगह अखिलेश ने भाई धर्मेंद्र यादव को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया। तीसरे प्रस्ताव में अमर सिंह को पार्टी से निकाला दे दिया गया।
अखिलेश यादव और चाचा शिवपाल में लंबे समय से टकराव चल रहा था। इससे पहले अक्टूबर 2016 में सार्वजनिक मंच पर ही दोनों के बीच तू-तू,मैं-मैं भी हो चुकी थी। मुलायम सिंह यादव ने सपा के प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी अखिलेश से छीनकर शिवपाल को दे दी थी। इसके जवाब में अखिलेश ने शिवपाल को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया था। हालांकि राज्य के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार की लड़ाई मान-मनौव्वल के बाद शांत पड़ गई थी लेकिन टिकट बंटवारे के विवाद में दोबारा झगड़ा ऐसा शुरू हुआ कि मुलायम सिंह यादव ने 30 दिसंबर 2016 को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (बेटे) और पार्टी महासचिव रामगोपाल यादव (भाई) को समाजवादी पार्टी से निकाला दे दिया। इसके बाद अखिलेश ने तब 212 विधायकों संग शक्ति प्रदर्शन करते हुए गेंद अपने पाले में कर लिया था और 2017 के नए साल के पहले दिन पार्टी में तख्तापलट कर दिया।
इस तख्तापलट में रामगोपाल यादव ने पार्टी के संविधान को अपना हथियार बनाया था। पार्टी संविधान में यह उल्लेख था कि पार्टी महासचिव भी पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन बुला सकता है।  लिहाजा, उन्होंने अधिवेशन बुलाया था। राम गोपाल को पता था की तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव अधिवेशन में नहीं आएंगे, लिहाजा उन्होंने पार्टी उपाध्यक्ष किरणमय नंदा को अधिवेशन में आमंत्रित किया था। रामगोपाल और अखिलेश यादव ने आंकड़ों के खेल पर ये उलटफेर किया था।
इस तख्तापलट के बाद पार्टी पर वर्चस्व की लड़ाई चुनाव आयोग तक भी पहुंची लेकिन जीत अखिलेश यादव की ही हुई। यह वह दौर था जिसमें कभी छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले शिवपाल यादव और अमर सिंह भी एक साथ नजर आने लगे थे। इस घटनाक्रम के बाद मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के बीच बातचीत लगभग बंद हो गई थी। यह दौर लम्बे समय तक चल पर ज्यादा दिनों तक बाप बेटा अलग न रह सके। आख़िरकार मुलायम सिंह को अखिलेश के साथ मंच शेयर करना ही पड़ा। इस विवाद का सबसे अधिक नुकसान शिवपाल यादव को उठाना पड़ा।