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मैत्री स्टडी सर्किल की मासिक गोष्ठी आयोजित

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“ज़रा धीरज रखिए। हम कोशिश में लगे हैं कि सूर्य बाहर आ जाए। पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना आसान नहीं है। वक्त लगेगा। हमें सत्ता के कम-से-कम सौ वर्ष तो दीजिए!’’ ―हरिशंकर परसाई

हरिशंकर परसाई जी की सौवीं वर्षगांठ पर मैत्री स्टडी सर्किल द्वारा “हरिशंकर परसाई के सौ वर्ष और ठिठुरता गणतंत्र” विषय पर 24 फरवरी 2023 को रचना पाठ के बहाने परिचर्चा का आयोजन किया गया ।

परिचर्चा का आरंभ विकास जी ने सभी साथियों को विषय से अवगत कराते हुए हरिशंकर परसाई जी के समस्त रचना क्रम और उनकी रचनाओं में व्यंग्य के बारे में चर्चा की। हरिशंकर परसाई जी अपनी 100वें जन्मवर्ष में आज के समय में क्यों प्रसांगिक हैं? इस संदर्भ में अपनी बात रखी।

आकाशदीप जी ने हरिशंकर परसाई जी के बारे बताते हुए उनके निबंध “ठिठुरता हुआ गणतंत्र” का पाठ किया। ठिठुरता हुआ गणतंत्र में लोकतांत्रिक व्यवस्था पर व्यंग्य, भारतीय संसद, तथाकथित राजनीतिक पार्टियां और हाशिए पर जनता के बारे में विस्तार से चर्चा की। गणतंत्र दिवस पर निकलने वाली झाकियों पर व्यंग्य करते हुए परसाई जी कहते हैं, “यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झांकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं।” निबंध 1970 में लिखा गया इसके बावजूद आज भी उनके द्वारा लिखे गए एक-एक शब्द प्रसांगिक हैं। प्रदेश में सरकार ने क्या काम किया ? ये आज भी कागजों में ही दिखता है। परसाई जी आगे कहते हैं -” गणतंत्र-समारोह में हर राज्य की झांकी निकलती है। ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झांकियां झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं।

असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहां प्रदर्शित करना चाहिए जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ। गुजरात की झांकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे। पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आन्ध्र की झांकी में हरिजन जलते हुए दिखाए जाएंगे। मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झांकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं।” सभी पार्टियां चुनाव के समय अपने अपने वादे करते हैं। हर कोई समाजवाद लाना चाहता है लेकिन समाजवाद चुनाव के बाद कहां चला जाता है, पता नहीं। परसाई जी कहते हैं कि इधर समाजवाद भी परेशान हो गया है और जनता भी। दफ्तर हो या राजनीतिक पार्टियां हर जगह समाजवाद की होड़ लगी है। आगे वह कहते हैं-” दफ़्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे – ‘काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज आया था न! जरा निकालो!’ तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे-’अरे वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया। कोई लेने नहीं गया स्टेशन. तिवारी बाबू, तुम कागज दबाकर रख लेते हो। बड़ी खराब आदत है तुम्हारी।” अंत में परसाई जी कहते हैं कि “जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जायें और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ। मुझे खास ऐतराज भी नहीं है। जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दफ़्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जाएगी।” इस तरह से परसाई जी के निबंध ‘ ठिठुरता हुआ गणतंत्र ‘ का पाठ करते हुए आज की प्रासंगिकता पर भी चर्चा की है।

“परसाई जी वर्तमानता के रचनाकार है।” ― आलोचक मैनेजर पांडे के इस कथन को उद्धृत करते हुए पवन कुमार जी ने अपने वक्तव्य का प्रारम्भ किया। उन्होंने कहा कि परसाई जी की जनपक्षधरता ही है कि वे आज भी न सिर्फ प्रासंगिक हैं बल्कि उनके 70-80 के दशकों में लिखे गए निबंध एवं अन्य रचनाएं और अधिक मुखर रूप से बहस में आई हैं। आगे उन्होंने परसाई जी के ही हवाले से कहा कि वे व्यंग्य को विधा नहीं मानते थे। उनका मानना था कि विधा तो कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक होती है, व्यंग्य तो उनका मर्म/स्पिरिट होती है।

पवन कुमार जी आगे कहते हैं कि वर्तमान दौर श्रद्धा का दौर है, राजनीति में भी और साहित्य में भी। परसाई जी ने इस श्रद्धा-भाव को लक्षित कर लिया था, तभी तो उन्होंने ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ जैसे सार्व-प्रासंगिक व्यंग्य की रचना की थी। पवन कुमार जी का कहना है कि जो श्रद्धा परसाई जी के समय विकलांग थी वह अब अंधी हो गई है। यह अंध-श्रद्धा का दौर है और इस अंध-श्रद्धा के दौर में मैं ‘परसाई जी के निबंध ‘विकलांग श्रद्धा के दौर’ का पाठ करना चाहता हूँ।

पवन कुमार जी ने परसाई जी की रचना “विकलांग श्रद्धा का दौर” का पाठ करते हुए भारत की राजनीति और व्यवस्था पर चर्चा की हैं। पैर छूने और श्रद्धेय बनने की परंपरा पर व्यंग करते हुए परसाई जी अपने इस निबंध में कहते हैं -“मेरा एक साथी पी-एच.डी. के लिए रिसर्च कर रहा था। डॉक्टरेट अध्ययन और ज्ञान से नहीं, आचार्य-कृपा से मिलती है। आचार्यों की कृपा से इतने डॉक्टर हो गए हैं कि बच्चे खेल-खेल में पत्थर फेंकते हैं तो किसी डॉक्टर को लगता है। एक बार चौराहे पर यहॉं पथराव हो गया। पॉंच घायल अस्पताल में भर्ती हुए और वे पॉंचों हिंदी के डॉक्टर थे। नर्स अपने अस्पताल के डॉक्टर को पुकारती: ‘डॉक्टर साहब’ तो बोल पड़ते थे ये हिंदी के डॉक्टर।”अपना काम निकालने के लिए लोग किसी को भी अपना श्रद्धेय बना लेते हैं। चाहे वह किसी भी जाति का हो संप्रदाय का हो या फिर किसी भी मत को मानने वाला ही क्यूं न हो वह काम निकालने के लिए अपना श्रद्धेय जरूर बना लेता है। इस पर परसाई जी कहते हैं -“मेरे ये श्रद्धालु मुझे पक्का श्रद्धेय बनाने पर तुले हैं। पक्के सिद्ध-श्रद्धेय मैंने देखे हैं। सिद्ध मकरध्वज होते हैं। उनकी बनावट ही अलग होती है। चेहरा, आंखे खींचने वाली। पांव ऐसे कि बरबस आदमी झुक जाए। पूरे व्यक्तित्व पर ‘श्रद्धेय’ लिखा होता है। मुझे ये बड़े बौड़म लगते हैं। पर ये पक्के श्रद्धेय होते हैं। ऐसे एक के पास मैं अपने मित्र के साथ गया था। मित्र ने उनके चरण छुए जो उन्होंने विकट ठंड में भी श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए चादर से बाहर निकाल रखे थे। मैंने उनके चरण नहीं छुए। नमस्ते करके बैठ गया। अब एक चमत्कार हुआ। होना यह था कि उन्हें हीनता का बोध होता कि मैंने उन्हें श्रद्धा के योग्य नहीं समझा। हुआ उल्टा। उन्होंने मुझे देखा। और हीनता का बोध मुझे होने लगा- हाय मैं इतना अधम कि अपने को इनके पवित्र चरणों को छूने के लायक नहीं समझता। सोचता हूं, ऐसा बाध्य करने वाला रोब मुझ ओछे श्रद्धेय में कब आयेगा।” देश में आजकल तो एक परम्परा चल पड़ी है जिसकी लाठी उसकी भैंस और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में? जैसा वातावरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा। श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है। विश्वास की फसल को तुषार मार गया। इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन नहीं किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है। जो नया नेतृत्व आया है, वह उतावली में अपने कपड़े खुद उतार रहा है। कुछ नेता तो अंडरवियर में ही हैं। कानून से विश्वास गया। अदालत से विश्वास छीन लिया गया। बुद्धिजीवियों की नस्ल पर ही शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बीमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है। कहीं कोई श्रद्धा नहीं विश्वास नहीं। परसाई जी का मोहभंग इस व्यवस्था से बहुत पहले हो चुका था वह क्रांति की राह बताते हैं। आगे कहते हैं – ““यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है। मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ।”

विकास जी ने हरिशंकर परसाई जी की कहानी ‘भोलाराम का जीव’ का रचना पाठ करते हुए कहानी में आए भ्रष्टाचार की चर्चा की । कहानी के माध्यम से व्यंग शैली में बताया गया है, कि भोलाराम का जीव सरकारी पेंशन फाइलों में दबा हुआ है। कहानी के मध्य समाज में किस तरीके से रिश्वतखोरी बढ़ती जा रही है और सरकारी पैसा किस तरीके से कर्मचारी हड़प जाते हैं और गरीब कमजोर व्यक्ति उसके बोझ तले दबा जा रहा है। कहानी में भोलाराम के केस को स्वयं नारद जांच करने निकलते हैं और भोलाराम के पत्नी से बात करते हैं। भोलाराम की पत्नी कहती है “क्या बताऊं ? गरीबी की बीमारी थी। 5 साल पेंशन नहीं मिली कहीं कोई सुनता ही नहीं घर में खाने के फायदे पढ़ने लगे इन्हीं चिंताओं में उन्होंने अपना दम तोड़ दिया आप सिद्ध पुरुष हैं यदि पेंशन दिलवा दो तो बच्चों का गुजारा हो जाए।” जांच करने नारद जब कार्यालय गए और बड़े साहब से मिले तो उन्होंने कहा “आप हैं बैरागी। दफ्तरों के रीति रिवाज नहीं जानते? यहां कुछ दान पूर्ण करना पड़ता है। कुछ वजन रखिए।” वजन के रूप में नारद की वीणा रखवाली रखवा दी तब कहीं फाइल देखी जाने लगी बड़े साहब ने नाम पूछा तो नारद ने ऊंची आवाज में कहा – ‘भोलाराम’ सहसा फाइल से आवाज आई “कौन पुकार रहा है? मुझे पोस्टमैन है? क्या पेंशन का आर्डर आ गया नारद ने कहा क्या तुम भोलाराम के जीव हो फाइल से आवाज आई – हां। परसाई जी ने इस कहानी के माध्यम से गणतंत्र में आयी बुराइयों की ओर ध्यान खींचा है।

शुभेंद्र जी हरिशंकर परसाई जी के निबंध “प्रेमचंद के फटे जूते” का पाठ करते हुए उनके द्वारा किए गए व्यंग्य पर विस्तार से चर्चा की। वे मुक्तिबोध और नामवर सिंह के परसाई जी के व्यंग्य पर अपने विचारों का उल्लेख करते हैं। आगे पाठ करते हुए कहते हैं – प्रेमचंद जी के चेहरे पर एक व्यंग्य भरी मुस्कान देखकर परसाई जी परेशान हैं। वह सोचते हैं कि प्रेमचंद ने फटे जूतों में फ़ोटो खिंचवाने से मना क्यों नहीं किया। फिर लेखक को लगा कि शायद उनकी पत्नी ने जोर दिया होगा, इसलिए उन्होंने फटे जूते में ही फ़ोटो खिंचा लिया होगा। लेखक प्रेमचंद की इस दुर्दशा पर रोना चाहते हैं किंतु उनकी आँखों के दर्द भरे व्यंग्य ने उन्हें रोने से रोक दिया।लेखक सोचते हैं कि लोग फोटो खिंचवाने के लिए तो जूते, कपड़े, यहाँ तक कि बीवी भी माँग लेते हैं, फिर प्रेमचंद ने किसी के जूते क्यों नहीं माँगे । लेखक कहते हैं कि लोग तो इत्र लगाकर फोटो खिचाते है जिससे फोटो में खुशबू आ जाए। प्रेमचंद की मुस्कान को देखकर परसाई जी भी स्तब्ध हैं और वह आगे कहते हैं – “इस व्यंग्य भरी मुस्कान का आखिर क्या मतलब हो सकता है। क्या उनके साथ कोई हादसा हो गया या होरी का गोदान हो गया? या हल्कू किसान के खेत को नीलगायों ने चर लिया है या माधो ने अपनी पत्नी के कफ़न को बेचकर शराब पी ली है? या महाजन के तगादे से बचने के लिए प्रेमचंद को लंबा चक्कर काटकर घर जाना पड़ा है जिससे उनका जूता घिस गया है? लेखक को याद आता है कि ईश्वर-भक्त संत कवि कुंभनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी आने-जाने से घिस गया था।” परसाई जी प्रेमचन जी का जूता कैसे फटा होगा इस पर सोचते हैं कि – ‘ चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं है. तुम्हारा जूता कैसे फट गया?’ और अंत में वह गोदान का होरी , पूस की रात का हलकू को याद करते हैं। प्रेमचंद की उँगली किसी घृणित वस्तु की ओर संकेत कर रही है, जिसे उन्होंने ठोकरें मार-मारकर अपने जूते फाड़ लिए हैं। वे उन लोगों पर मुस्करा रहे हैं जो अपनी उँगली को ढकने के लिए अपने तलवे घिसते रहते हैं।

डॉ. हिरण्य हिमकर जी ने परसाई जी के व्यंग्य की विशेषताओं के बारे में बताया। उन्होंने प्रश्न उठाया कि परसाई जी अन्य व्यंग्यकारों यथा शरद जोशी आदि से किस प्रकार भिन्न हैं? इस पर उन्होंने विस्तार से अपनी बात रखी। उन्होंने परसाई जी की सर्वप्रमुख विशेषता को लक्षित करते हुए कहा कि परसाई जी में गहन राजनीतिक बोध मिलता है। उनकी रचनाओं में इसे आसानी से देख सकते हैं।

विपिन जी ने अपनी स्वरचित कविता का पाठ किया –
“हैं देश यहां की रीत यही
जो हैं भाष्ट्रचारी, हैं अन्यायी, हैं अत्याचारी वही
जो करता शोषण बार-बार
होता नहीं वो हकदार
फिर भी वो सरकार बनाता हैं
देश को लुटता जाता हैं
हे देश फिर भी अकेला खड़ा हु मै,
इस गुमनाम सुनसान राह पर चल पड़ा हूँ मैं,
यह बीरान पड़ा अंधेरा रास्ता
ऐ घटा के काले बादल कब छंटेंगे
कब सिकंदर को मुकद्दर मिलेगा”

परिचर्चा के अंत में दीपा जी ने परसाई जी की प्रसिद्ध कविता ‘क्या किया आज तक क्या पाया’ का पाठ किया –
“मैं सोच रहा, सिर पर अपार
दिन, मास, वर्ष का धरे भार
पल, प्रतिपल का अंबार लगा
आखिर पाया तो क्या पाया?

जब तान छिड़ी, मैं बोल उठा
जब थाप पड़ी, पग डोल उठा
औरों के स्वर में स्वर भर कर
अब तक गाया तो क्या गाया?

सब लुटा विश्व को रंक हुआ
रीता तब मेरा अंक हुआ
दाता से फिर याचक बनकर
कण-कण पाया तो क्या पाया?

जिस ओर उठी अंगुली जग की
उस ओर मुड़ी गति भी पग की
जग के अंचल से बंधा हुआ
खिंचता आया तो क्या आया?

जो वर्तमान ने उगल दिया
उसको भविष्य ने निगल लिया
है ज्ञान, सत्य ही श्रेष्ठ किंतु
जूठन खाया तो क्या खाया?”

पवन कुमार जी ने अंत में सभी को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए निरंतरता बनाए रखने का आग्रह किया। परिचर्चा का संचालन विकास जी ने किया। परिचर्चा में उक्त साथियों के अलावा डॉ. विष्णु, आंचल, हर्ष एवं अन्य साथियों ने भी प्रतिभाग किया। विदित हो कि मैत्री स्टडी सर्किल की परिचर्चा का आयोजन प्रत्येक माह के तीसरे/ चौथे शुक्रवार को किया जाता है जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक, शोधार्थी एवं छात्र उपस्थित रहते हैं। रिपोर्ट लिखी है दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधार्थी विकास सिंह ने।