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हिंदू वोट छीने बिना मोदी-शाह की भाजपा को नहीं हराया जा सकता!

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शेखर गुप्ता

स सप्ताह के स्तंभ का शीर्षक आपत्तिजनक लग सकता है लेकिन यह ऐसा नहीं है और इसकी वजह भी है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा चुनावी अश्वमेध का घोड़ा जरूर बन गई है लेकिन वह चुनाव हारती भी है। इस बार उत्तर प्रदेश समेत तीन और राज्यों में उसकी जोरदार जीत के बाद चारों तरफ से पंडित लोग यह ज्ञान बघारने में लगे हैं कि भाजपा क्यों और कैसे चुनाव जीतती रही है।
ऐसे में थोड़ा अलग हट कर यह समझना जरूरी और दिलचस्प होगा कि वह कैसे और क्यों चुनाव हारती है।  हां, वह हारती भी है। अगर आपको कोई शक हो तो हमारे डेटा रिपोर्टर निखिल रामपाल द्वारा बनाया गया यह ग्राफिक देख लीजिए. इसमें यह दिखाया गया है कि भाजपा जब 2013 के उत्तरार्द्ध और 2018 के शुरू में, और अब अपने शिखर पर है तब भारत के कितने हिस्से पर उसका वर्चस्व रहा. क्षेत्रफल के हिसाब से आज उसका नियंत्रण 44 प्रतिशत क्षेत्र और 49.6 प्रतिशत आबादी पर है।  2018 की सर्दियों में यह पहला और आखिरी मौका था जब मोदी-शाह की भाजपा कांग्रेस पार्टी से देश के तीन प्रमुख राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव हारी थी। उसी साल कर्नाटक में वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी मगर स्पष्ट बहुमत नहीं हासिल कर पाई थी, तब शुरू में तो उसने राज्य को अल्पजीवी कांग्रेस-जेडी(एस) गठबंधन के हवाले कर दिया मगर बाद में एक घालमेल वाली कहानी लिख डाली।
हम 2017 और 2022 के पंजाब की गिनती नहीं कर रहे क्योंकि भाजपा वहां मजबूत नही है। 2019 के आम चुनाव में शानदार जीत के बाद वह पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस से बुरी तरह हारी और झारखंड में कांग्रेस-झामुमो-राजद ने उससे सत्ता निर्णायक रूप से छीन ली. उसे दो और पराजय मिली हालांकि उन्हें संपूर्ण नहीं माना जा सकता।

हरियाणा की सभी लोकसभा सीटें भारी वोटों से जीतने के बाद वह वहां विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत लाने से चूक गई और महाराष्ट्र में चुनाव जीतने के बाद भी राज्य को गंवा बैठी क्योंकि उसकी बड़ी सहयोगी शिवसेना ने उसका साथ छोड़ दिया। मोदी-शाह के दौर में भाजपा का खेल सीधा-सा है. 50 फीसदी हिंदू वोट जुटा लो और चुनाव जीत लो. उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश को देख लीजिए. योगी आदित्यनाथ ने इसे 80 बनाम 20 फीसदी वोटों के बीच का चुनाव कहने की गलती भले की हो लेकिन यह अनजाने में दिल की भड़ास बाहर आ जाने की एक बुरी मिसाल थी. दरअसल, वे एक सच कह गए थे। यूपी में कुल मुस्लिम वोट 19 फीसदी से ऊपर है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि भाजपा अगर मुस्लिम वोट की गिनती नहीं करती, तो वह 80 फीसदी हिंदू वोट को ही निशाना बनाती है। चुनाव नतीजे के मुताबिक भाजपा ने अगर अपने सहयोगियों के साथ मिलकर कुल 44 फीसदी वोट हासिल किए तो इससे साफ है कि उसने 55 फीसदी से ज्यादा हिंदू वोट जुटाए. यह भारी बहुमत लाने के लिए काफी है। बेशक हम यह मान कर चल रहे हैं कि भाजपा को अगर मुस्लिम वोट पड़े भी हों तो वे बहुत अहमियत नहीं रखते।

80 बनाम 20 का यह फॉर्मूला अलग-अलग जगहों में अलग-अलग तरह से बदल जाता है लेकिन यह हिंदी पट्टी और पश्चिम के तीन बड़े राज्यों महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक में ही लागू होता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा और उसके सहयोगियों ने मिलकर उसके 52 फीसदी वोट हासिल किए थे, यहां भी मुस्लिम वोटों की गिनती न करें तो यह कुल हिंदू वोटों के करीब 67 फीसदी के बराबर होगा यानी तीन में से दो हिंदू वोट उसकी झोली में गए, यही वजह है कि कागज पर अजेय दिख रहे सपा-बसपा गठजोड़ का उसने सफाया कर दिया था, जहां यह समीकरण नहीं होता, वहां क्या होता है?

पश्चिम बंगाल को ही ले लीजिए. यूपी को छोड़ दें तो भाजपा ने दूसरे राज्यों के मुकाबले वहां सबसे ज्यादा समय, ताकत और साधन लगाया था. नागरिकता कानून को लेकर शोर-शराबे ने जबरदस्त ध्रुवीकरण वाले चुनाव का माहौल तैयार कर दिया था. भाजपा एक और बड़े राज्य को पहली बार फतह करने की उम्मीद लगाए बैठी थी लेकिन इसका उलटा हो गया. ममता बनर्जी की टीएमसी ने उसे शिकस्त दे दी।
भाजपा वहां कैसे और क्यों हारी? उसने तो 2019 के लोकसभा चुनाव में वहां की 42 में से 18 लोकसभा सीटें जीती थी और वहां मजबूत होती जा रही थी. इसके अलावा उसने चुनाव अभियान चलाने वालों के साथ फंड भी झोंक दिया था और अलबत्ता ‘एजेंसियों’ को भी वहां लगा दिया था. इस सबके बावजूद यह हश्र क्यों हुआ?
वोटों की ही गिनती करें तो भाजपा ने 2021 के विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी इतने ही यानी 40 फीसदी के आसपास वोट हासिल किए थे. फिर भी ये उसी अनुपात से विधानसभा सीटों में तब्दील नहीं हुए।

पहली बात तो यह हुई कि 2019 में सफाये के बाद कांग्रेस-वामदलों के गठबंधन ने अपने लगभग बाकी मतदाता गंवा दिए, लेकिन इससे ज्यादा अहम बात यह है कि यूपी के विपरीत पश्चिम बंगाल ने भाजपा को 80 बनाम 20 वाला समीकरण नहीं उपलब्ध कराया. वहां बहुत कुछ 71 बनाम 27 जैसा समीकरण था। केवल 50 फीसदी हिंदू वोट उसे बहुमत के आंकड़े से पार नहीं ले जा सकते।  कुल वोटों में से 38.13 फीसदी वोट लेकर उसने 50 फीसदी से ज्यादा, बल्कि संभवतः 53 फीसदी हिंदू वोट हासिल किए, लेकिन 71 बनाम 27 वाले समीकरण में उसे करीब 65 फीसदी हिंदू वोट की जरूरत पड़ती। यह नहीं हो पाया क्योंकि ममता बनर्जी ने महिला मतदाताओं को अपने साथ बनाए रखा. वहां महिला शक्ति ने हिंदू गोलबंदी को नाकाम कर दिया।

सो, यह पहला सबक है, अगर आप मोदी-शाह की भाजपा को शिकस्त देना चाहते हैं तो आपको इतने हिंदू वोट जीतने ही पड़ेंगे जितने से भाजपा 50 फीसदी से ज्यादा हिंदू वोटों से वंचित हो जाए. अगर आप ऐसा नहीं कर पाते, जैसा कि यूपी-बिहार-असम में होता है, तो आपका सफाया ही होगा. यही वजह है कि मुस्लिम-यादव समीकरण पर खड़ी अखिलेश और लालू यादव की पार्टियां अब नहीं जीत पा रही हैं, जब तक वे हिंदुओं के अंदर के किसी ताकतवर और बड़े जाति समूह को अपने पाले में नहीं लातीं तब तक उनके लिए कोई गुंजाइश नहीं दिखती. जब तक आप भाजपा से हिंदू वोट छीनने की लड़ाई नहीं लड़ते, तब तक आपके लिए कोई मौका नहीं है। या ममता की तरह महिला वोटों में जवाब तलाशिए।  यूपी में इसका उलटा हुआ. सभी एग्जिट पोल के आंकड़े यही बताते हैं कि महिला मतदाताओं ने सपा से ज्यादा भाजपा को वोट दिए, प्रियंका गांधी ने ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं ’ नारे से युवतियों को आकर्षित करने की कोशिश कर जरूर दिलचस्पी पैदा की लेकिन उनकी पार्टी इसका फायदा उठाने की स्थिति में नहीं थी।

ऐसा कुछ सपा के लिए होता तो उसे अलग नतीजे मिल सकते थे, लेकिन उसने ‘हट के ’, ‘कुछ नया’ करने की कल्पनाशीलता नहीं दिखाई।  इसलिए, निष्कर्ष यही है कि मोदी-शाह की भाजपा को आप तभी हरा सकते हैं जब उसे आप हिंदू वोटों से पर्याप्त संख्या में वंचित करेंगे, केवल मुस्लिम और किसी एक वफादार जाति को साथ लेकर इस जंग में उतरना काफी नहीं होगा।  केवल जातीय समीकरण के बूते भाजपा को नहीं हराया जा सकता है. यह कोशिश 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-सपा ने और 2019 में लोकसभा चुनाव में यूपी में सपा-बसपा ने, महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी और कर्नाटक में कांग्रेस-जेडी(एस) ने की मगर उन सबका सफाया हो गया।
2019 में झारखंड जरूर एक अपवाद रहा, जहां झामुमो-कांग्रेस-राजद गठजोड़ जीता था लेकिन याद रहे कि भाजपा वहां रघुबर दास के नेतृत्व में कमजोर सरकार चला चुकी थी और एक गैर-आदिवासी के हाथ में राज्य की कमान सौंपने के खिलाफ असंतोष पनप रहा था. राज्य में मुस्लिम मतदाता 15 फीसदी हैं और योगी के फॉर्मूले से देखें तो वह लड़ाई 60 बनाम 40 फीसदी की हो गई थी क्योंकि वहां 25 फीसदी मतदाता आदिवासी हैं. जाहिर है, आदिवासी वोट न मिलने के कारण भाजपा विजयी गठबंधन से 2 फीसदी वोटों से पिछड़ गई. अब राज्य को एक आदिवासी मुख्यमंत्री मिल गया है.
इस विश्लेषण में हम दिल्ली विधानसभा के 2015 और 2020 के चुनावों को शामिल नहीं कर रहे हैं क्योंकि यह एक नगर-राज्य है जहां अनूठी किस्म की राजनीति चलती है. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में यहां भाजपा का ही परचम लहराया. मतदाता विधानसभा और लोकसभा चुनाव में फर्क करके मतदान करें यह प्रवृत्ति दूसरी जगहों पर भी दिखती है, मसलन ओडिशा में. 2019 में वहां लोकसभा और विधानसभा के लिए एक ही दिन मतदान हुआ, भाजपा 38.83 फीसदी वोट लेकर वहां लोकसभा की 21 में से आठ सीटें जीती, जबकि नवीन पटनायक की बीजद को उससे 4 फीसदी ज्यादा वोट मिले. विधानसभा चुनाव में भाजपा 32.49 फीसदी वोट पर ही अटक गई और बीजद ने 44.7 फीसदी वोट लेकर उसे धूल चटा दी।
हम 2018 में मध्य प्रदेश-राजस्थान-छत्तीसगढ़ के चुनाव नतीजों की भी गिनती नहीं कर रहे क्योंकि इन तीनों राज्यों में भाजपा सरकार विरोधी भावनाओं (मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो तीन कार्यकाल के खिलाफ असंतोष) का सामना कर रही थी. और उसे केवल एक राज्य (तीनों में सबसे छोटे-छत्तीसगढ़) में बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था।
इस तरह, तीन सबक उभरते हैं, भाजपा को हराना है तो या तो आप उसे बड़ी संख्या में हिंदू वोटों से वंचित करें या एक ऐसा मजबूत क्षेत्रीय नेता और ऐसी पार्टी खड़ी करें जो अपना किला बचाने की कुव्वत रखती हो, तीसरा और सबसे बेहतर सबक यह है कि इतना मजबूत क्षेत्रीय, स्थानीय और भाषायी किला तैयार करें कि हिंदू मतदाता मुख्यतः तमिल, तेलुगु या मलयाली के तौर पर मतदान करें, इस प्रवृत्ति की परीक्षा तेलंगाना के आगामी चुनाव में हो जाएगी लेकिन बड़ी तस्वीर को देखें तो यह साफ दिखता है कि अगर आप सही राजनीति करते हैं तो भाजपा को मात दे सकते हैं।  (द प्रिंट साभार )