पार्टी बनता मीडिया

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अरुण श्रीवास्तव  

कहीं खुशी कहीं गम तो कहेंगे कि इसमें नया क्या है? अजूबा क्या है? यह तो होता ही है जीतने वाले को खुशी होती है और हारने वाले को ग़म। दो में से एक को हारना ही होता है पर एक जीत कर भी हार जाता है तो दूसरा हार कर भी जीत जाता है। कहने को कह सकते हैं कि, जो जीता वही ‘सिकंदर’।‌‌ या एक और चोर रास्ता है वह यह कि लोकतंत्र में सारा खेल अंकों का होता है नैतीकता गई तेल लेने।

बहरहाल इस चुनाव में कुछ इसी तरह की चीजें लोकसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद देखने को मिल रही हैं। हर कोई अपना गाल बजा रहा है। ‌परिणाम आया नहीं कि सभी ने अपने-अपने घोड़े दौड़ा दिए। प्री पोल एलायंस पोस्ट पोल एलायंस की तरह ही खुशियां भी हो गई हैं। जब भी मौका मिले खुश हो लो कौन जाने हाथ से चली जाए। अब 18वीं लोकसभा चुनाव परिणाम को ही ले लीजिए। रुझान नतीजे में बदले नहीं कि, संवाददाता सम्मेलन और स्वागत समारोह आयोजित होने लगे साथ में मान-मनौव्वल भी।
अब वो दिन लद गए जब स्पष्ट, पूर्ण या दो तिहाई बहुमत मिलने पर ही राजनीतिक दल फैसले लेते थे। अब बहुमत से दूर रहने पर भी हाथ-पैर मारना शुरू कर देते हैं।
ताज़ा चुनाव परिणाम को ही ले लें। कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन बहुमत से दूर है पर खुलेआम सक्रिय नहीं है हालांकि कि, उड़ती खबर आई कि, इंडिया खेमे के शरद पवार जेडीयू और टीडीपी नेताओं के संपर्क में हैं पर इसका खंडन भी कर दिया गया। वहीं दूसरी ओर सत्ता पर काबिज़ एनडीए के प्रमुख घटक दल भाजपा ने अपने कार्यकाल में स्वागत समारोह आयोजित कर लिया। मुख्यधारा का मीडिया सीधा प्रसारण भी करने लगा। सीधे प्रसारण के दौरान सरकार के शपथ ग्रहण समारोह की तिथि भी आ गई जबकि शिष्टाचारवश भी राष्ट्रपति से न पीएम मोदी ने मुलाकात की और न ही भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने। अलबत्ता सोनिया गांधी की राष्ट्रपति से मिलने की फोटो जरूर आयी।
विदेश यात्रा के बाद पीएम राष्ट्रपति से मिलते हैं। अब यह स्थापित परंपरा है या कुछ और पता नहीं।
रुझान परिणाम में बदला नहीं कि, आगे की औपचारिकता शुरू हो गई। धैर्य रखा जाना चाहिए था कि राष्ट्रपति महोदया आमंत्रित करें या पार्टी अध्यक्ष अपना दावा पेश करें तब शपथग्रहण समारोह की तिथि घोषित की जाए। यानि सब हड़बड़ी में थे। बहुमत के करीब वाला गुट तो स्वाभाविक रूप में सक्रिय रहता है पर अब तो मीडिया की भी सक्रियता देखने को मिली। इसी बीच खबर आई कि बिहार में भाजपा के कोटे से उप मुख्यमंत्री के पद पर आसीन सम्राट चौधरी मुख्यमंत्री नितीश कुमार से मिलने चले गए। उप मुख्यमंत्री अपने मुख्यमंत्री से मिले तो इसमें भला किसी को ऐतराज क्यों होगा? पर कयासबाजी तो तब शुरू होती है जब पीएम मोदी के नामांकन के दौरान नीतीश बाबू नहीं आए जबकि बड़ी संख्या में अन्य प्रदेशों के सीएम आये। राजनीतिक हलकों में नीतीश को लेकर शंख के बादल इसलिए भी गहराए क्योंकि पूरे चुनाव प्रचार के दौरान तेजस्वी यादव ने नीतीश पर कोई हमला नहीं किया बल्कि आदर के साथ चाचा कह कर संबोधित किया। अटकलबाजियों के घोड़े तब दौड़ते हैं वो भी सरपट जब पहले सब कुछ सही नहीं रहता जैसे वामपंथी दल। इनका एक भी सांसद विधायक टूट कर नहीं जाता यह इतिहास बतलाता है। अब यह मत कहिएगा कि फैजाबाद के मिल्कीपुर के कम्युनिस्ट नेता व विधायक मित्र सेन यादव तो चले गए। काबुल घोड़ों के लिए प्रसिद्ध है पर इसका मतलब यह नहीं कि वहां गधे नहीं पैदा होते। गधे काबुल में भी पैदा होते हैं।
व्यावहारिक जीवन में ही नहीं राजनीति में भी कुछ लोग अब तो बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनके दोनों हाथों में लड्डू होते हैं तो कुछ मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा होते हैं। तो टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू के भी दोनों हाथों में लड्डू है। फिर इसके पहले वो कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ पींगे बढ़ा चुके हैं। इस बार लोकसभा और विधानसभा चुनाव में एनडीए के खेमे में थे पर मुस्लिम आरक्षण को लेकर दोनों में मतभेद है जो जगजाहिर है। वे शर्तों के आधार पर कहीं भी जा सकते हैं। यानी बिकने को वो भी तैयार हैं बस सही कीमत चाहिए। मान लीजिए नितीश और नायडू दोनों ही इंडिया गठबंधन के पाले में चले जाते हैं जिसको इस जानकारी से बल मिलता है कि तेजस्वी और नितीश एक ही हवाई जहाज़ से और एक क्लास में दिल्ली के लिए उड़े और दिल्ली पहुंचते ही यह घोषणा हो जाए कि वो राहुल के साथ हैं तो मीडिया के नौ जून को शपथ ग्रहण करने वाली खबर का क्या होगा।
अब इन सबके बीच में मीडिया कहां है। न ओ तीन में है और न तेरह में । उसे निष्पक्ष रहना चाहिए। अब ये अलग बात है कि कुछ लोगों की निगाह में निष्पक्ष नाम की कोई चीज नहीं है। हमेशा दो पक्ष होते हैं एक शोषक दूसरा शोषित, एक कमेरा दूसरा लुटेरा। आसान शब्दों में महाभारत में दो पक्ष थे एक कौरव दूसरा पांडव। अब यह तय करना है कि आप किसके पक्ष में हैं। पर यहां कोई धर्म युद्ध तो नहीं रहा है। मीडिया को अपनी भूमिका बिना पक्षपात के निभानी चाहिए। पर इधर कुछ वर्षों से वह सत्ता की गोद में जा बैठा यानी गोदी मीडिया हो गया। अब जब मुख्यधारा का मीडिया गोदी मीडिया हो गया तो वह इस तरह की हरकत, खबरें स्टोरी करेगा ही करेगा।

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