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Martyrdom day : खत्म नहीं हो सकते भगत सिंह के विचार 

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नीरज कुमार

23 मार्च 1931 को अमर शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर जेल में, जेल के नियमों को ताक पर रखकर प्रातः काल की बजाय सांय 7.00 बजे फांसी दे दिया गया । भगत सिंह को फांसी तो दे दिया गया लेकिन उनके विचारों को नहीं कुचला जा सका । उनका नाम मौत को चुनौती देने वाले साहस, बलिदान, देशभक्ति और संकल्पशीलता का प्रतीक बन गया । ‘समाजवादी समाज की स्थापना’ का उनका सपना शिक्षित युवकों का सपना बन गया और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का उनका नारा समूचे राष्ट्र का युद्धनाद हो गया ।

भगत सिंह की यह निश्चित मान्यता थी कि “व्यक्तियों को नष्ट किया जा सकता है, पर क्रांतिकारी विचारों को नष्ट नहीं किया जा सकता । इतिहास इस बात का साक्षी है कि समाज में उठने वाले क्रांतिकारी विचारों को शासकों के दमन-चक्र से नहीं रोका जा सकता ।” विश्व-इतिहास से उदाहरण देते हुए भगत सिंह ने आगे कहा था कि “फ़्रांस के शासकों द्वारा बेस्टील जेल खाने में हजारों देशभक्त क्रांतिकारियों को ठूस देने के बाद भी फ्रांसीसी राज्यक्रांति को नहीं रोका जा सका । सभी देशभक्तों और क्रांतिकारियों को साइबेरिया की जेल में डालने के बाद भी रूसी राज्यक्रांति को नहीं रोका जा सका ।” उनका दृढ़ विश्वास था कि उनके फांसी पर चढ़ जाने के बाद, भारतीय क्रांति और आगे बढ़ेगी, नंगी-भूखी जनता अपनी मुक्ति के लिए अपनी रणभेरी अवश्य बजाएगी और अंततः पूंजीवादी समाज-व्यवस्था का विनाश करके राज्यसत्ता अपने हाथ में संभाल लेगी ।

भगत सिंह गहन अध्ययन की आवश्यकता को समझते थे और इसलिए उन्होने अपनी पुस्तिका ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ में लिखा “अध्ययन यही एक शब्द था जो मेरे दिमाग में हमेशा गूँजता रहता था । अध्ययन, स्वयं को विपक्षियों द्वारा रखे गए तर्को का मुक़ाबला करने के काबिल बनाने के लिए; अध्ययन अपने विश्वास के समर्थन में तर्कों से स्वयं को सज्जित करने के लिए; मैंने अध्ययन शुरू कर दिया । मेरे पुराने विश्वास और धारणाओं में महत्वपूर्ण रूपांतर हुआ ।

क्लासिकल, मार्क्सवादी साहित्य, राजनीति, अर्थशास्त्र, जीवनी, प्रगतिशील उपन्यास, कविता आदि उनका अध्ययन क्षेत्र और विषय था । भगत सिंह पूरी तरह इस बात के महत्व को समझते थे कि व्यक्तित्व के विकास के लिए ज्ञान की सिर्फ एक संकीर्ण शाखा का नहीं, बल्कि इसके विशाल क्षेत्र का गहन अध्ययन करना आवश्यक है । केवल इसी से एक सचमुच सुसंस्कृत व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास सुनिश्चित हो सकता हैं ।