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Lok sabha election Results : कुछ तात्कालिक, कुछ दूरगामी संदेश

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प्रेम सिंह

सात चरणों में संपन्न हुए अठारहवीं लोकसभा के चुनावों के पहले चरण के बाद ही यह संकेत मिल गया था कि देश की जनता के बड़े हिस्से ने सरकार के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया है। बड़ी संख्या में बेरोजगार नौजवान और पहले से ही आंदोलनरत किसानों की इस प्रतिरोध में बड़ी भूमिका रही। इस परिघटना से एक तरफ विपक्ष को अगले चरणों के चुनावों को मजबूती और उत्साह से लड़ने का प्रोत्साहन मिला, वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ हिंदू बहुसंख्यावाद के हथियार को चरम सीमा तक जाकर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। उन्हें लगा कि वे नए भारत के “भाग्यविधाता” के सिंहासन से गिरने वाले हैं, तो उन्होंने खुद को “दिव्य अस्तित्व” तक घोषित कर डाला। अगर विपक्ष का गठबंधन समुचित समझदारी के साथ समय से अखिल भारतीय स्तर किया गया होता तो अलग-अलग प्रदेशों के चुनाव परिणामों में इतनी भिन्नता (वेरिएशन) शायद नहीं होती; और भाजपा की सीटें काफी कम हो सकती थीं।  

 

बहरहाल, चुनाव परिणाम राष्ट्रीय जनतांत्रिक (राजग) गठबंधन के पक्ष में आए हैं। राजग की प्रमुख पार्टी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 240 और पूरे राजग को 293 लोकसभा सीटों पर जीत मिली है, जो साधारण बहुमत 272 के आंकड़े से 21 सीटें ज्यादा है। गठबंधन-धर्म का तकाजा यही है कि जिन्होंने मिलकर चुनाव लड़ा है, वे मिल कर सरकार बनाएं। आशा की जानी चाहिए कि भाजपानीत नई सरकार चुनाव के नागरिक संदेश को समझेगी और संवैधानिक मूल्यों/प्रावधानों, लोकतान्त्रिक संस्थाओं, नागरिक अधिकारों और सामाजिक-नैतिक मर्यादाओं की पुनर्बहाली सुनिश्चित करेगी। कहने की जरूरत नहीं कि खासकर पिछले 10 सालों में इन सभी चीजों पर गहरे आघात पहुंचाए गए हैं। इस दिशा में राजग में शामिल होने वाले दलों की विशेष जिम्मेदारी बनती है।

 

भाजपा के लिए भी यह एक अवसर है कि वह अपने को लोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी के रूप में फिर से अर्जित करे। अगर नई सरकार में संविधान, लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के हनन का सिलसिला नहीं रुकता है, तो मध्यावधि चुनावों की नौबत आ सकती है। वैसी स्थिति में भाजपा सहित राजग के दलों को जनता के इससे ज्यादा कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि विपक्ष अपनी भूमिका पूरी जिम्मेदारी और गंभीरता से निभाए। वह भी अभी से।  

 

विपक्षी इंडिया गठबंधन को 235 लोकसभा सीटों पर जीत मिली है, जिसमें प्रमुख पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की 99 सीटें हैं। दो टर्म के बाद नई लोकसभा में संख्या की दृष्टि से सशक्त विपक्ष की उपस्थिति लोकतंत्र की मजबूती के लिए शुभ संकेत है।

 

यहां एक बात पर फिर ध्यान देने की जरूरत है कि नवउदारवादी नीतियों को लेकर देश के राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग के बीच पिछले तीन दशकों से सहमति बनी हुई है। आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने, भारत को दुनिया की तीसरी आर्थिक शक्ति बनाने, इसके लिए हजारों-लाखों अंबानी-अदानी पैदा करने के जादुई दावों की देश में एक बड़ी दुनिया बन चुकी है। इस दुनिया में, जिसे चमकता भारत, नया भारत, विकसित भारत आदि कहा जाता है, एक तरफ मापी नहीं जा सकने वाली आर्थिक असमानता और दूसरी तरफ गरीबी, महंगाई, कुपोषण, बेरोजगारी, अकुशल/कुशल श्रम का शोषण चुनाव परिणामों के बावजूद समाज में इसी तरह चलते रहना है। यह कटु सत्य है, जिसे याद रखने की जरूरत है।  

 

इस चुनाव में देश की आबादी के एक बड़े हिस्से ने सत्ता पक्ष की जगह विपक्ष को अपने हितों की जिम्मेदारी सौंपी है। विपक्ष ने अपने चुनाव-अभियान में जिन योजनाओं के वादे जनता से किए हैं उन्हें, नवउदारवादी नीतियों के तहत ही सही, लागू करने का दबाव नई सरकार पर बनाए रखना चाहिए। किसानों, संगठित-असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, कारीगरों, छोटे व्यावसायियों, सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों, छात्रों आदि के मुद्दों/समस्याओं को संसद में उठाने और सुलझाने की लगातार कोशिश करनी चाहिए। खास कर किसानों की जिन मांगों को पूरा करने का वादा कांग्रेस सहित विपक्ष ने किया है, उन्हें नई सरकार से पूरा कराने के वैधानिक प्रयास करने चाहिए। सेना में भर्ती की अग्निवीर योजना को भी निरस्त करने का दबाव सरकार पर डालना चाहिए। पिछली सरकार के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह इस योजना की समीक्षा करने की बात कह चुके हैं। कई सिवल सोसाइटी एक्टिविस्ट यूएपीए के तहत सालों से बिना सुनवाई और जमानत के जेलों में बंद हैं। उन्हें तुरंत न्याय मिले, यह सुनिश्चित करना विपक्ष की जिम्मेदारी है।   

 

निजीकरण नवउदारवाद से अविभाज्य है। विपक्ष को कम से कम यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह किस हद तक किस रूप में किन क्षेत्रों में निजीकरण का पक्षधर है। तभी वह सरकार के निजीकरण संबंधी विधेयकों/कदमों की सही समीक्षा और जरूरी होने पर विरोध कर पाएगा। इसके लिए विपक्ष में सही तालमेल, अनुशासन और आपसी विश्वास बने रहना जरूरी है।   

  

पिछली दो अवधियों में प्रधानमंत्री मोदी ने खुलेआम धर्म को राजनीति का हथियार बना कर संविधान और समाज को दूरगामी क्षति पहुंचाई है। विपक्ष को न केवल किसी भी तरह के सांप्रदायिक आचरण से बचना चाहिए, जो क्षति हो चुकी है उसे ठीक करने की दिशा में गंभीर प्रयास करने चाहिए। जाति-व्यवस्था भारतीय समाज की संरचना में बद्धमूल है। लिहाजा, सभी जातियों की गणना होनी चाहिए। यह काम पहले भी कुछ हद तक हुआ है। लेकिन संविधान आधारित आधुनिक नागरिक-बोध की जगह जाति-बोध को उभार कर वोट लेना सांप्रदायिकता की राजनीति की कोटि में ही आता है।

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके समर्थक बुदधिजीवी भले ही ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला, शिक्षा, भाषा के तुच्छीकरण को विश्वगुरु होने की निशानी मानते हों, पिछले दस सालों में देश में सांस्कृतिक पतन (कल्चरल डिकेडेंस) की प्रक्रिया में काफी तेजी आई है। मैं इस बारे में स्पष्ट नहीं हूं कि नवउदारवाद अनिवार्यत: अपने साथ सांस्कृतिक पतन लेकर आता है। लेकिन भारत में जारी अश्लील किस्म के नवउदारवाद का सांस्कृतिक पतन के साथ सीधा संबंध लगता है। देश के प्रतिष्ठित विद्वानों, वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों और संजीदा नागरिकों के लिए इस चुनाव परिणाम का संदेश यह हो सकता है कि वे सांस्कृतिक पतन की पड़ताल करें और उसे रोकने के समुचित उपाय करें।

 

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं।)