Kejriwal transform : “इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही यही पैगाम हमारा “अपनी मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ये लाइन गाने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इन दिनों अपनी इन्हीं लाइनो से मुंह फेरते नजर आ रहे (Kejriwal transform)।
2013 में भारत की राजनीति बदलने का सपना दिखा के CM की कुर्सी पर आए केजरीवाल अब बदल कर (Kejriwal transform) बहुसंख्यकों की राजनीति करते नजर आ रहे हैं। कभी दिल्ली के कुर्सी पर बैठे रहकर PM Narendra Modi तथा अन्य उद्योगपतियों पर निशाना साधने वाले केजरीवाल अपने ही क्षेत्र में हो रहे अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमलों पर चुप दिखाई दे रहे हैं।
पंजाब में पूर्ण बहुमत की सरकार बना लेने के बाद इसे आम आदमी पार्टी (aam aadmi party) की बड़ी सफलता के तौर पर देखा जा रहा। पार्टी के बनने के दो साल के भीतर केजरीवाल दिल्ली की गद्दी पर विराजमान हो गए और अभी भी बने हुए है। लेकिन केजरीवाल जिस वादे के साथ राजनीति में आए आज वे उसी राजनीति के रंग में घुले नजर आ रहें(Kejriwal transform)। बीते सत्र में सस्ते मोहल्ला क्लीनिक तथा स्कूलों की हालत को तो अच्छा कर दिया लेकिन पार्टी के खुद के लोग पार्टी का दामन छोड़ कर चले गए।
आम आदमी पार्टी (aam aadmi party) भले ही पंजाब के बाद गुजरात या गोवा में विपक्ष के तौर पर अपनी पकड़ बना रही लेकिन उन लोगों के भरोसे का क्या जिन्होंने पार्टी को एक नये राजनीतिक विकल्प के तौर पर चुना था। 2013 में लोकपाल बिल के मसले पर सरकार गिरा देने वाली आम आदमी पार्टी आज देशभर में चल रहे धार्मिक हिंसा पर मूकदर्शक बने बैठी हुई दिख रही। फिर चाहे वो CAA – NRC का मुद्दा हो केजरीवाल अपना पक्ष तक नहीं रख पा रहे।
आंदोलनकर्ता से राजनेता बनने का सफर (Kejriwal transform) –
दिल्ली की गद्दी छोड़ने के बाद केजरीवाल जी को यू-टर्न वाले नेता कहां गया लेकिन क्या वे सच में भारत का राजनीति बदल देने वाले अपनी पार्टी के आधार उद्देश्य से ही भटक गए है?
JNU विवाद के दौरान दिल्ली पुलिस ने इस मामले पर 2 साल बाद चार्जशीट दायर की। दिल्ली पुलिस की इस कार्यवाही को JNU छात्रों पर केजरीवाल का एक समर्थक की तरह देखा जा रहा था। इसी तरह नोटबंदी और GST जैसे फैसलों पर केंद्र सरकार को बिना डरे घेरना उनकी एक आंदोलन से निकले हुए नेता की छवि को दर्शाता था।
लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में वही केजरीवाल (Kejriwal transform) बदल जाते है ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस तथा सभी विपक्षी पार्टियों के साथ हाथ मिलाकर BJP के खिलाफ खुले तौर पर मोर्चा संभालते हैं।
वही केजरीवाल कश्मीर के मुद्दे पर केंद्र सरकार के साथ सबसे पहले खड़े नजर आते है और 2020 के दिल्ली के चुनाव में BJP नेताओं के द्वारा लगाए जा रहे आरोपों जवाब नही देते है। (Kejriwal transform) ठीक उसी प्रकार वे प्रधानमंत्री (Narendra Modi) जी को भी निशाने पर लेना बंद कर देते हैं। “इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही पैगाम हमारा “ गाने वाले केजरीवाल चुनाव के दौरान टी.वी. चैनल पर हनुमान चालीसा गाते नजर आते हैं। क्योंकि केजरीवाल भी अपने आप को कम हनुमान भक्त नहीं दिखाना चाहते थे।
चुनाव के बाद हुए दिल्ली दंगों के बाद जहां हमें NSA अजीत डोभाल जमीन पर जायजा लेते नजर आते है वहीं केजरीवाल एक बार भी उन गली मोहल्लों पर नहीं जाते हैं। चुनाव जीतने के लिए चुनाव के दौरान दिए गए भड़काऊ भाषण पर चुप्पी साधना कहां तक सही?
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ताजा मामलों की ओर नजर दौड़ाने तो दक्षिण भारत से चली भारत भ्रमण कर रही नफरत की आंधी ने दिल्ली में भी दस्तक दी। साउथ दिल्ली के मेयर मुकेश सुर्यान द्वारा नवरात्रि पर बैन लगा दिया जाता हैं इससे आम व्यापारियों के आय, और सामाजिक स्थिति पर पर पड़े प्रभाव की सरकार को कोई चिंता नही।
उम्मीद थी कि चुनाव निकट न होने के चलते केजरीवाल चाहते तो इसका विरोध कर सकते थे। हनुमान जयंती के दौरान पथराव पर कार्यवाही के नाम पर बुलडोजर का प्रयोग कर गरीबों के घरों पर कार्यवाही की गई। केवल संशय के आधार पर मध्यप्रदेश के खरगोन के बाद दिल्ली में भी दुकानों और घरों को निशाना बनाया गया। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा लगाई गई रोक के बाद कार्यवाही को स्थगित किया गया। लेकिन सरकार की तरफ से किसी प्रकार के विरोध के स्वर नहीं दिखे।
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इस पूरे मसले पर दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल की तरफ से एक अनजान सी प्रतिक्रिया आती है जिसमें वे दंगाइयों की तो बात करते है तथा अन्य मुद्दो पर मौन रहते हैं।
पार्टी की तरफ से बांग्लादेशी वाले मसले पर पार्टी के अन्य नेता प्रतिक्रिया देते है लेकिन पूरी पार्टी के नेताओं में नैतिक बल नदारद दिखता है कि वे इस एक तरफा हो रही कार्यवाही के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सके। और कम से कम अपने क्षेत्र में इस तरह की कार्यवाही का विरोध कर सकें। दिल्ली के मुख्यमंत्री के ये बदले स्वर (Kejriwal transform) उन लोगों के लिए निराशा से कम नहीं उन्होंने पार्टी से एक बड़े नैतिक बल दिखा कर धर्म तथा चुनाव की राजनीति से आगे जा कर काम करने की उम्मीद की रही होगी।
पार्टी के पूर्व नेता तथा कवि कुमार विश्वास पार्टी छोड़ने के बाद कुछ इसी तरफ इशारा कर रहे थे कि पार्टी के कामों का आकलन केवल उसके विकास कार्यो से न किया जाए बल्कि पार्टी के अंदर बचे लोकतंत्र से भी किया जाना चाहिए।