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सोचता रहता

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रोज कुछ कदम चलता
सोचता फिर कुछ चलता
यह अनवरत चलता रहा
कुछ दिन और भी चलेगा

रोज ज्ञान लेकर घर लौटता
सोचता इसे गुरु बनाता
फिर देखने निकल जाता
वो गुरु अदृश्य हो जाता

ऐसा मेरे साथ क्यों होता
समझ ना आता फिर सोचता
या तो वो गुरु ना था.. हा
पर चेला तो बिल्कुल ना था

किस-किस की बात पर
क्या-क्या विश्वास करूं
सच की परिभाषा बदल गई
या वातावरण की सोच !

कभी वकील मिलते कभी डॉक्टर
कभी व्यापारी तो कभी टेक्नोक्रेट
कभी ज्योतिषी तो कभी दलाल
कभी वरिष्ठ नागरिक कभी खिलाड़ी

सभी ही राजनीति पर अपनी
धाराप्रवाह अपनी बात रखते
पर अपने क्षेत्र की बात ना करते
ऐसा क्यों होता सोचता रहता

राकेश जाखेटिया