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सादगी के पर्याय और सिद्धांतों की प्रतिमूर्ति कर्पूरी ठाकुर

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नीरज कुमार

दलितों, पिछड़ों और वंचितों के मसीहा कहे जाने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और बिहार में समाजवाद के सबसे मजबूत स्तम्भ स्व. कर्पूरी ठाकुर ने बगैर किसी तामझाम और प्रचार के बिहार की राजनीति में पारदर्शिता, ईमानदारी और जन-भागीदारी की ओ प्रतिमान उपस्थित किए, उसके आसपास भी पहुंचना उनके बाद के किसी राजनेता के लिए संभव नहीं हुआ। एक गरीब नाई परिवार से आए कर्पूरी जी सत्ता के तमाम प्रलोभन और आकर्षण के बीच भी जीवन भर सादगी और निश्छलता की प्रतिमूर्ति बने रहे। ईमानदारी ऐसी कि अपने लंबे मुख्यमंत्रित्व-काल में उन्होंने सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल कभी अपने व्यक्तिगत कार्यों के लिए नहीं किया। उनके परवर्ती मुख्यमंत्रियों के घरों में कीमती गाड़ियों का काफ़िला देखने के आदी लोगों को शायद विश्वास नहीं होगा कि कर्पूरी जी ने अपने परिवार के लोगों को कभी सरकारी गाडी के इस्तेमाल की इज़ाज़त नहीं दी। एक बार तो उन्होंने अपनी बेहद बीमार पत्नी को रिक्शे से अस्पताल भेजा था ।

कर्पुरी ठाकुर भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ तथा बिहार राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं। लोकप्रियता के कारण उन्हें जन-नायक कहा जाता था l

एक मुख्यमंत्री कितना अमीर हो सकता है? सोच में पड़ जाएंगे… क्योंकि इसकी सीमा नहीं है। खैर इस सवाल को छोड़िए, ये बताइये कि एक मुख्यमंत्री कितना गरीब हो सकता है? मुख्यमंत्री और भला गरीब? फिर से सोच में पड़ गए न? क्या वह इतना गरीब हो सकता है कि अपनी एक गाड़ी न हो… गाड़ी छोड़िए, मुख्यमंत्री रहते हुए अपना एक ढंग का मकान न बनवा पाए! और तो और उसके पास पहनने को ढंग के कपड़े न हों!

जननायक नाम उन्हें ऐसे ही नहीं दिया गया. सादगी के पर्याय और सिद्धांतों की प्रतिमूर्ति कर्पूरी ठाकुर की बात हो रही है। वही कर्पूरी ठाकुर, जो बिहार के दूसरे डिप्टी सीएम यानी उपमुख्यमंत्री रहे और फिर दो बार मुख्यमंत्री रहे। एक​ शिक्षक, एक राजनेता, एक स्वतंत्रता सेनानी वगैरह…. लेकिन उनकी असली पहचान थी ‘जननायक’ की ।
जब 1952 में कर्पूरी ठाकुर पहली बार विधायक बने, उन्हीं दिनों ऑस्ट्रिया जाने वाले एक प्रतिनिधिमंडल में उनका चयन हुआ था। लेकिन उनके पास पहनने को कोट नहीं था।

दोस्त से कोट मांगा तो वह भी फटा हुआ ​मिला। कर्पूरी वही कोट पहनकर चले गए। वहां यूगोस्लाविया के प्रमुख मार्शल टीटो ने जब फटा कोट देखा तो उन्हें नया ​कोट गिफ्ट किया। आज तो आदमी की पहचान ही उसके कपड़ों से की जाने लगी है।

कर्पूरीजी के पास गाड़ी नहीं थी। वरिष्ठ स्तंभकार सुरेंद्र किशोर ने अपने एक लेख में ऐसे ही किस्से का जिक्र किया था। 80 के दशक में एक बार बिहार विधान सभा की बैठक चल रही थी, तब कर्पूरी ठाकुर विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे। उन्हें लंच के लिए आवास जाना था। उन्होंने कागज पर लिखवा कर अपने ही दल के एक विधायक से थोड़ी देर के लिए उनकी जीप मांगी। विधायक ने उसी कागज पर लिख दिया, “मेरी जीप में तेल नहीं है। आप दो बार मुख्यमंत्री रहे। कार क्यों नहीं खरीदते?”

दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उप-मुख्यमंत्री रहने के बावजूद उनके पास अपनी गाड़ी नहीं थी। वे रिक्शे से चलते थे। उनके मुताबिक, कार खरीदने और पेट्रोल खर्च वहन करने लायक उनकी आय नहीं थी। संयोग देखिए कि उनपर तंज कसने वाले वही विधायक बाद में आय से अधिक संपत्ति के मामले में कानूनी पचड़े में पड़े।

साल था 1974, कर्पूरी ठाकुर के छोटे बेटे का मेडिकल की पढ़ाई के लिए चयन हुआ। पर वे बीमार पड़ गए। दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती हुए। हार्ट की सर्जरी होनी थी। इंदिरा गांधी को मालूम हुआ तो एक राज्यसभा सांसद को भेजकर एम्स में भर्ती कराया। खुद मिलने भी गईं और सरकारी खर्च पर इलाज के लिए अमेरिका भेजने की पेशकश की।

कर्पूरी ठाकुर को मालूम हुआ तो बोले, “मर जाएंगे, लेकिन बेटे का इलाज सरकारी खर्च पर नहीं कराएंगे.” बाद में जयप्रकाश नारायण ने कुछ व्यवस्था कर न्यूजीलैंड भेजकर उनके बेटे का इलाज कराया था। कर्पूरी ठाकुर का पूरा जीवन संघर्ष में गुजरा।

वर्ष 1977 के एक किस्से के बारे में सुरेंद्र किशोर ने लिखा था, पटना के कदम कुआं स्थित चरखा समिति भवन में जयप्रकाश नारायण का जन्मदिन मनाया जा रहा था। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख समेत देशभर से नेता जुटे थे। मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुरी फटा कुर्ता, टूटी चप्पल के साथ पहुंचे। एक नेता ने टिप्पणी की, ‘किसी मुख्यमंत्री के ठीक ढंग से गुजारे के लिए कितना वेतन मिलना चाहिए?’ सब हंसने लगे। चंद्रशेखर अपनी सीट से उठे और अपने कुर्ते को सामने की ओर फैला कर कहने लगे, कर्पूरी जी के कुर्ता फंड में दान कीजिए। सैकड़ों रुपये जमा हुए। जब कर्पूरी जी को थमाकर कहा कि इससे अपना कुर्ता-धोती ही खरीदिएगा तो कर्पूरी जी ने कहा, “इसे मैं मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा दूंगा।”

एक बार प्रधानमंत्री रहते चौधरी चरण सिंह उनके घर गए तो दरवाजा इतना छोटा था कि उन्हें सिर में चोट लग गई। वेस्ट यूपी वाली खांटी शैली में उन्होंने कहा, “कर्पूरी, इसको जरा ऊंचा करवाओ।” कर्पूरी ने कहा, “जब तक बिहार के गरीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा?”

70 के दशक में जब पटना में विधायकों और पूर्व विधायकों को निजी आवास के लिए सरकार सस्ती दर पर जमीन दे रही थी, तो विधायकों के कहने पर भी कर्पूरी ठाकुर ने साफ मना कर दिया था। एक विधायक ने कहा- जमीन ले लीजिए। आप नहीं रहिएगा तो आपका बच्चा लोग ही रहेगा! कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि सब अपने गांव में रहेगा।

उनके निधन के बाद हेमवंती नंदन बहुगुणा जब उनके गांव गए, तो उनकी पुश्तैनी झोपड़ी देख कर रो पड़े थे। उन्हें आश्चर्य हुआ कि 1952 से लगातार विधायक रहे स्वतंत्रता सेनानी कर्पूरी ठाकुर दो बार मुख्यमंत्री बनें, लेकिन अपने लिए उन्होंने कहीं एक मकान तक नहीं बनवाया।
सादगी के पर्याय और सिद्धांतों की प्रतिमूर्ति ऐसे थे खांटी समाजवादी कर्पूरी ठाकुर ।