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बात तो तब है जब पार्टी में रहकर ही गलत बात का विरोध करें!

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चरण सिंह
समाजवाद के प्रणेता कहा करते थे कि यदि अपनी पार्टी का नेतृत्व भी गलत कर रहा है तो उसका विरोध करो। यदि खुद की पार्टी में कहीं पर गलत हो रहा है तो उसका विरोध करो। हक के लिए लड़ो और उन्होंने ऐसा कर दिखाया। जब उनकी पार्टी की केरल सरकार में किसानों पर फायरिंग कर दी गई तो जेल में बंद डॉ. लोहिया ने तत्कालीन सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष आचार्य नरेंद्र देव केरल सरकार पर एक्शन लेने के लिए पत्र लिखा। किसानों के पक्ष में अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला। बात डॉ. लोहिया ही नहीं बल्कि किसी भी बड़े विचारक ने यह नहीं कहा कि यदि अपनी पार्टी की नीतियां पसंद नहीं आ रही हैं तो पार्टी छोड़ दो। सभी का यही कहना रहा है कि पार्टी में व्याप्त गलतियों के खिलाफ लड़ो और पार्टी को मजबूत करो। आज के नेता हैं कि निजी स्वार्थ के लिए जब चाहे पाला बदल लेते हैं और कल जिन नेताओं को पानी पी पीकर कोसते थे उनकी तारीफ करने लगे हैं, जिस नेता की आगे पीछे घूमते थे उनकी तारीफ करते थकते नहीं थकते, उनकी आलोचना करने लगते हैं।
दिल्ली में भी पूर्व मंत्री कैलाश गहलोत ने भी यही किया। कल तक उनके लिए अरविंद केजरीवाल भगवान थे और मोदी तानाशाह। अब केजरीवाल भ्रष्ट हो गये हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विकास पुरुष। अब कैलाश गहलोत तो केजरीवाल की नीतियां खराब लगने लगी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अच्छी। यदि आम आदमी पार्टी में सही काम नहीं हो रहा था। उनको यह लग रहा था कि केंद्र सरकार के साथ तालमेल बनाकर काम करना चाहिए तो यह मुद्दा आम आदमी पार्टी में रहकर ही उठाना चाहिए था, भले ही जो कुछ होता। तब माना जाता कि वह दिल्ली के हितैषी हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि कैलाश गहलोत बीजेपी में रहकर दिल्ली का क्या भला करा पाएंगे ?
आज दलबदलू नेताओं को सपा के नेता आजम खां से सीख लेनी चाहिए। आजम खां पांच साल तक पार्टी से निष्कासित रहें पर किसी पार्टी में शामिल नहीं हुए। बर्बाद हो गये पर उन्होंने न तो पार्टी बदली और न ही विचारधारा। बात कैलाश गहलोत की ही नहीं है। हर दल का यही हाल है। यदि एक दल से उसके स्वार्थ पूरे नहीं हुए तो दूसरी पार्टी में पहुंच गये। दूसरी से पूरे नहीं हुए तो तीसरी में पहुंच गये। तीसरी से पूरे नहीं हुए तो चौथी में पहुंच गये। मतलब इन दलबदलुओं को न तो पार्टी से कोई लेना देना है और न ही देश और समाज से। इन्हें तो बस अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी हैं। राजनीति का फायदा स्वहित में करना है।
सबसे अधिक शर्म की बात तो पार्टी नेतृत्व के लिए है कि वह यह जानते हुए भी उनकी पार्टी में आया नेता भ्रष्टाचारी है। इतना ही नहीं कि नेता को अपनी पार्टी में लेकर अपने कार्यकर्ता का हक मारकर उसे दे देता है। मतलब जिस नेता का पार्टी से कोई लेना देना नहीं हैं। वह आकर टिकट ले लेता है और जो कार्यकर्ता पांच साल तक टिकट का इंतजार करता है उसे टिकट से वंचित कर दिया जाता है। दलबदलू नेता हर पार्टी में हैं और ये दूसरी पार्टियों में भी अपनी गोटी फिट कर लेते हैं। जिस पार्टी से ये नेता जाते हैं उनको तो पता है कि वह कितना स्वार्थी है। पर जो नेता इन नेताओं को अपनी पार्टी में ले रहा है, क्या उसे पता नहीं कि जब यह व्यक्ति उस व्यक्ति का नहीं हो पाया जिसने उसे आगे बढ़ाया तो और किसी का क्या होगा।