चरण सिंह
क्या इन वंशवादियों के दम पर देश में बदलाव किया जा सकता है ? क्या वंशवाद के बल पर अपने दलों का नेतृत्व कर रहे इन नेताओं के बस का बदलाव है ? यह प्रश्न राजनीति के जानकर किसी व्यक्ति से भी पूछा जाए तो वह यही कहेगा कि इन नेताओं में संघर्ष का अभाव है। ये नेता आरामतलबी और सुखभोगी हो हैं। यदि किसी वजह से सत्ता परिवर्तन हो भी जाए तो उसे बदलाव नहीं कहा जा सकता है। वैसे भी लगभग सभी विपक्षी दल आजमाए हुए हैं। जमीनी हकीकत यह है कि भले ही गत लोकसभा चुनाव में विपक्ष को ठीकठाक सीटें मिल गई हों पर विपक्ष ने जनता के लिए ऐसा कोई काम नहीं किया कि उनको वोट मिलते। वह तो सरकार से नारजगी और आरक्षण खत्म करने और संविधान बदलने का डर विपक्ष को मजबूत स्थिति में ले गया।
यदि ऐसा नहीं है तो बताया जाए कि विपक्षी नेताओं ने जनहित में कितने आंदोलन किये ? विपक्ष की कितनी भूमिका निभाई है ? दिलचस्प बात तो यह है कि बिल्ली के भाग से छींका टूटने का इन्तजार करने वाले ये वंशवादी नेता अब भी संघर्ष करने को तैयार नहीं। इन पार्टियों में नेतृत्व का घोर अभाव है। घिसे पिटे नेता विभिन्न दलों से विधानसभा और लोकसभा में पहुंच रहे हैं। नेता जाति और धर्म तक सिमट तक रह गए हैं। ये लोग वंशवाद और परिवारवाद से अलग हटकर कोई जमीनी नेतृत्व तैयार करने को तैयार नहीं। यह भी कह सकते हैं कि इन वंशवादियों की वजह से देश को संघर्षशील नेतृत्व नहीं मिल रहा है। नेतृत्व के नाम पर हर जगह इन वंशवादियों के परिवार या रिश्तेदार ही दिखाई देंगे।
पीएम मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सधी हुई राजनीति और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का बीजेपी को चुनावी सहयोग। इन सबके बीच में चाहे प्रतिपक्ष नेता राहुल गांधी हों, गत लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से पार्टी को 37 सीट दिलवाने वाले सपा मुखिया अखिलेश यादव हों या फिर बिहार में अपने पिता के बाद आरजेडी की बागडोर संभाल रहे तेजस्वी यादव हों, महाराष्ट्र में शरद पवार हों, उद्धव ठाकरे हों, झारखंड में हेमंत सोरेन हों, जम्मू कश्मीर में उमर अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला हों या फिर मुफ़्ती महबूबा हों, हरियाणा में चौटाला परिवार हो या फिर हुड्डा परिवार या फिर दूसरे वंशवादी सड़कों पर कम और बंगलों में ज्यादा देखे जा रहे हैं और बंगलों से बदलाव नहीं किया जा सकता है। ऐसे में जब तक जमीनी संघर्ष करने वाला नेतृत्व देश को नहीं मिलेगा तब तक देश में बदलाव की उम्मीद करना बेमानी है।
दरअसल आज की मोदी के समय की बीजेपी नेहरू के समय की कांग्रेस हो गई है। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय गैर समाजवाद का नारा दिया और सत्तर के दशक में जाकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अगुआई में हुए आंदोलन के बाद देश में जाकर बदलाव हुआ। वह भी तब जब सभी विपक्षी दलों का जनता पार्टी में विलय हो गया था। उस बदलाव में बाबू जगजीवन राम चंद्रशेखर जैसे बागी नेता भी थे जो कांग्रेस छोड़कर आये थे। उस बदलाव से पहले आंदोलनकारी डेढ़ साल तक जेल में बंद रहे थे।
आज के विपक्षी दल चाहते हैं कि बिना जेल जाए, बिना एक डंडा खाए देश में बदलाव हो जाये। ये लोग बंगलों में बैठकर जातीय आंकड़े लगा कर बदलाव करने की सोच रहे हैं। किसी को पीडीए के नाम पर वोट चाहिए तो किसी को पीडीएम के नाम पर और कोई जातीय जनगणना कराकर वोट हासिल करने की जुगत में है। जिन लोगों का वोट इन्हें चाहिए उनके लिए इन्हें करना कुछ नहीं है। करना तो अपने परिवार के लिए है।
कहना गलत न होगा कि यदि आज बीजेपी झूठ को भी सच कर ले जा रही है, अराजक माहौल बनाकर भी अपने सिद्ध कर ले जा रहे है, बिना ठोस आधार के अपने पक्ष में माहौल बना ले जा रही है तो उसका बड़ा कारण यह है कि विपक्ष में मुख्य नेताओं में संघर्ष का अभाव है, सत्ता पक्ष से लड़ने का दम नहीं है।