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क्या जेलों में जाति की समाप्ति ही पर्याप्त है?

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 शिक्षा और नौकरियों में क्यों बना है जाति का दबदबा?

दीपक कुमार तिवारी

पटना/नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में जाति आधारित भेदभाव को गंभीर मानते हुए इसे समाप्त करने के लिए ठोस कदम उठाए हैं। प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने जेल नियमावली में संशोधन की सलाह दी है और कहा है कि निचली जातियों के कैदियों से जाति के आधार पर खतरनाक काम कराना उचित नहीं है। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जेल रजिस्टर में कैदियों की जाति दर्ज नहीं की जानी चाहिए। यह फैसला मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित प्रतीत होता है, पर इससे एक बड़ा सवाल उठता है: जेलों में जाति का जिक्र न हो, तो फिर शिक्षा, परीक्षा, और नौकरी में जाति का आधार क्यों बना हुआ है?

जाति आधारित राजनीति और आरक्षण की सच्चाई:

भारत की राजनीति में जाति का बहुत गहरा प्रभाव है। चुनावी समीकरण जातियों के आधार पर बनाए जाते हैं और SC/ST के लिए लोकसभा और विधानसभा की सीटें आरक्षित होती हैं। राजनीतिक दलों के लिए जाति जनगणना चुनावी मुद्दा बनता जा रहा है। बिहार के जाति सर्वेक्षण ने इस बात को और भी स्पष्ट कर दिया है कि जातियों की पहचान और संख्या पर आधारित आरक्षण को राजनीतिक लाभ उठाने के लिए किस हद तक इस्तेमाल किया जा सकता है। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने आगामी लोकसभा चुनावों में पिछड़ी जातियों के आरक्षण का वादा किया है, जो इस बात को साबित करता है कि जाति आधारित आरक्षण किस तरह राजनीति का मुख्य मुद्दा बन चुका है।

जेलों में जाति और शिक्षा में जाति: कहां तक उचित?

सुप्रीम कोर्ट ने जेलों से जाति के कालम को हटाने का निर्देश दिया है, जो एक सकारात्मक कदम है। लेकिन, यह प्रश्न खड़ा होता है कि जब शिक्षा, नौकरी और प्रमोशन में जाति का जिक्र आवश्यक है, तो जेलों में इसे हटाने से क्या बदलाव आएगा? स्कूल-कॉलेजों में नामांकन से लेकर सरकारी नौकरियों और प्रमोशन तक, जाति का जिक्र किया जाता है और इसके आधार पर आरक्षण दिया जाता है। अगर किसी को सरकारी लाभ लेने के लिए जाति बताने में आपत्ति नहीं होती, तो अपराध के आरोप में जेल गए व्यक्ति को जाति छुपाने की आवश्यकता क्यों है?

राजनीतिक दलों का जाति पर जोर:

जाति आधारित राजनीति भारत में बहुत प्रभावी है। राजनीतिक दल जातियों के आधार पर वोट बैंक तैयार करते हैं। हाल के दिनों में जाति जनगणना की मांग बढ़ गई है, जिसे कई राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्तर पर लागू करना चाहते हैं। बिहार का जाति सर्वेक्षण इस बात का प्रमाण है कि जाति आधारित राजनीति किस हद तक गहराई तक जड़ें जमा चुकी है। इसके अलावा, आयोगों का गठन और उनकी सिफारिशें यह दर्शाती हैं कि पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ दिलाने के लिए सरकारें लगातार प्रयासरत हैं।

क्या जाति प्रथा को पूरी तरह समाप्त करना होगा?

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय स्वागतयोग्य है, परंतु इसका पूर्ण लाभ तब ही मिलेगा जब देश से जाति प्रथा का पूरी तरह से उन्मूलन हो। शिक्षा, नौकरी, और राजनीतिक क्षेत्रों में जाति आधारित आरक्षण और भेदभाव को खत्म करना समय की मांग है। जेलों से जाति का कालम हटाने से केवल आंशिक सुधार हो सकता है; असली सुधार तब आएगा जब जाति का जिक्र हर क्षेत्र में समाप्त कर दिया जाएगा।