Indian life : इंद्रियों और संस्कार के दोष से उत्पन्न होती है निरक्षरता
हम यथार्थ ज्ञान और मिथ्या ज्ञान को आर्ष साहित्य के अनुसार ऋषियों के कथन के अनुसार परिचय कराने का प्रयास करेंगे। यह आपके ऊपर निर्भर करेगा कि आप इसके पश्चात भी मिथ्याज्ञान में भ्रमित रहेंगे अथवा सत्य विद्या को प्राप्त करने का प्रयास करेंगे।
जो दुष्ट अर्थात विपरीत ज्ञान है, मिथ्याज्ञान है ,उसको अविद्या कहते हैं।
अविद्या उत्पन्न कैसे होती है? इंद्रियों और संस्कार के दोष से अविद्या उत्पन्न होती है।
विद्या किसको कहते हैं?
जो अदुष्टअर्थात यथार्थ ज्ञान है, वास्तविक ज्ञान है ,सत्य सत्य स्वरूप में स्वीकार करने का ज्ञान है ,
धर्म के 10 लक्षणों का उल्लेख करते हुए आठवां लक्षण विद्या की परिभाषा करते समय महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश के पंचम समुल्लास में उल्लेख किया है कि पृथ्वी से लेकर परमेश्वर पर्यंत यथार्थ ज्ञान और उनसे यथा योग्य उपकार लेना सत्य जैसा आत्मा में वैसा मन में , जैसा मन में वैसा वाणी में, जैसा वाणी में वैसा कर्म में वर्तना विद्या और इसके विपरीत अविद्या है।
उसको विद्या कहते हैं।
इससे आगे धर्म का नवा लक्षण बताते समय महर्षि दयानंद लिखते हैं कि सत्य वह है जो पदार्थ जैसा हो ,उसको वैसा ही समझना वैसा ही बोलना वैसा ही करना भी।
मिथ्याज्ञान (भ्रांत प्रतीति) किसको कहते हैं?
जो वस्तु जैसी है नहीं उसको वैसी मान लेना मिथ्या ज्ञान है इसी को भ्रान्त प्रतीति कहते हैं।
जैसे शरीर अनित्य है, आत्मा नित्य है, शरीर चल है ,आत्मा अचल है, जब शरीर को आत्मा मान लेना अथवा आत्मा को शरीर मान लिया जाए यह मिथ्या ज्ञान है। जीव को ब्रह्म बताने वाले मिथ्या ज्ञानी हैं।
इसी प्रकार शिवलिंग को ईश्वर मानकर के पूजा करना मिथ्या ज्ञान है, भ्रांत प्रतीति है। वह सत्य है ही नहीं। अज्ञान अंधकार है।
अर्थात लोग अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए हैं। इसका ईश्वर की पूजा, आराधना, उपासना से दूर दूर तक भी कोई संबंध नहीं है।
सत्य को सर्वदा स्वीकार करने में तत्पर रहना प्रत्येक मनुष्य का प्रथम एवं पावन उत्तरदायित्व है।
सत्य को स्वीकार करने से, अर्थात यथार्थ ज्ञान से, वास्तविक ज्ञान से अज्ञान अंधकार समाप्त होता है।
वास्तविक ज्ञान क्या है?
मिथ्याज्ञान ,अज्ञान अंधकार से निकलना ही वास्तविक ज्ञान है, यथार्थ ज्ञान है ।
क्या मिथ्या ज्ञान से मुक्ति प्राप्त हो सकती है?
नहीं हो सकती।
मिथ्या ज्ञान से मनुष्य महा पापी और पतित होता है।
क्योंकि जो जीव को ब्रह्म बतलाते हैं, वे अविद्या निद्रा में सोते होते हैं।
शिवजी एक मनुष्य थे। एक जीव थे, उसको ब्रह्म बतलाना तथा कल्याण करने वाला कहना,अविद्या है, मिथ्याज्ञान है।
मिथ्याज्ञान के दोष क्या क्या है?
अविद्या ,अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश यह 5 क्लेश हैं।
आज केवल अविद्या दोष के संबंध में संक्षिप्त चर्चा ऊपर की है। शेष पांच दोषों के विषय में चर्चा यहां नहीं करनी है। इस चर्चा को फिर कभी समय मिलने पर करेंगे।
मूल विषय पर ही रहेंगे, अन्यथा विषय विस्तार का दोष आ जाएगा।
उपरोक्त 5 दोष के होने से मनुष्य के जीवन में क्या परिणाम आता है?
येही 5 दोष मनुष्य की मुक्ति में बाधक है।
तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि शिवलिंग की पूजा मोक्ष तक नहीं पहुंचा सकती?
निश्चित रूप से उसमें अविद्या दोष है, मिथ्याज्ञान हैं, यथार्थ ज्ञान नहीं है ,इसलिए पतित और महापापी बनाती है, मोक्ष के द्वार नहीं खोलती है।
किसी भी मनुष्य के जीवन में पांच दोषों में से यदि एक क्लेश भी शेष रहता है तो वह मुक्ति तक नहीं पहुंच सकता। इसलिए अविद्या दोष बहुत ही भयानक परिणाम देने वाला होता है।
शिवलिंग की पूजा करने में अविद्या दोष है।
शिव किसको कहते हैं?
ऊपर बताया जा चुका है।
शिवलिंग क्या है?
कैलाशपति क्या है?
शिव के पर्यायवाची क्या- क्या है?
शिवनाद और डमरु क्या है?
भस्मासुर की वास्तविक कथा क्या है?
ऐसे ही अनेक प्रश्न जो शिव से जुड़े हैं उनका समाधान करते हैं।
प्रसंग के लिए शिव की परिभाषा कर लेते हैं।
प्रश्न __शिव किसको कहते हैं?
उत्तर — शिव परमात्मा को कहते हैं। क्योंकि ईश्वर स्वयं कल्याण स्वरूप और कल्याण करने वाला है । इसलिए उसको शिव भी कहते हैं।
देव शब्द को महत् प्रदान करने से महादेव शब्द सिद्ध होता है, जो महान देवों का देव है अर्थात विद्वानों को भी विद्वान, सूर्य आदि पदार्थों का प्रकाशक है इसलिए उस परमात्मा का नाम महादेव है।
जैसे कि ईश्वर के नाम कहीं गौणिक, कहीं कार्मिक और कहीं स्वाभाविक अर्थों के वाचक हैं । परंतु ईश्वर का एकमात्र उचित निज नाम केवल ओम हैं। शेष नाम उसके कार्मिक, स्वाभाविक एवम् गौणिक हैं
उदाहरण के तौर पर विराट, पुरुष ,देव ,आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, विश्वंभर, विष्णु ,शिव, यह नाम लौकिक पदार्थों के और मनुष्यों के भी होते हैं और यही नाम ईश्वर के भी होते हैं।
प्रश्न__ इनमें अंतर कैसे करें?
उत्तर जहां-जहां उत्पत्ति ,स्थिति, प्रलय,अल्पज्ञता ,जड़ता, दृश्य आदि विशेषण भी हो वहां वहां परमेश्वर का अर्थ नहीं होता।
अर्थात जहां उत्पन्न, एक आकार में स्थित होकर के और प्रलय अथवा नष्ट होता हो वह ईश्वर नहीं है।
उक्त सिद्धांत के अनुसार
उदाहरण के तौर पर त्रेता काल में शिवजी नाम के एक महायोगी हुए ,वह सशरीर पैदा हुए थे। अर्थात वह महायोगी शरीरधारी था। फिर उसका वह शरीर नष्ट हो गया।इस प्रकार उसकी जन्म, स्थिति और प्रलय ( नष्ट)होती है।
लेकिन ईश्वर तो अजन्मा है, अमर है।
फिर महायोगी शिव और ईश्वर की तुलना क्या?
दोनों एक हो ही नहीं सकते। शिवजी तो पैदा हुए और मरे अर्थात जन्म मरण के बंधन में थे वह स्वयं अपने जन्म मरण के बंधनों को नहीं काट सके, तो फिर भी दूसरों के बंधनों को कैसे काटेंगे?
ईश्वर का एक नाम शंकर भी है, शंकर अर्थात जो सुख का करने हारा है उस ईश्वर का नाम शंकर है।
दूसरी तरफ आप किसी व्यक्ति का नाम भी विश्व में शंकर देखते हो।
लेकिन जो शंकर ईश्वर का नाम है वह शंकर कभी नष्ट नहीं होता परंतु जो व्यक्ति का नाम शंकर है वह नष्ट होने वाला है। इसलिए ईश्वर के नाम के पर्यायवाचियों के आधार पर भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है।
इसी प्रकार जो कल्याण करने वाला ईश्वर है उसको भी शिव कहते हैं । कल्याण केवल परमात्मा करता है ,इसलिए परमात्मा कल्याणकारी है। अत:परमात्मा कल्याणकारी होने के कारण शिव भी कहा जाता है है।
( अधिक जानकारी प्राप्त करने हेतु महर्षि दयानंद कृत अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास का अध्यन करें)
उपरोक्त के अतिरिक्त शिव आत्मा को भी कहते हैं।
जैसे त्रेता युग में एक राजा शिवजी हुए हैं। वह एक आत्मा थीं। वह परमात्मा नहीं थे। क्योंकि आत्मा परमात्मा नहीं हो सकती।
वह सर्वशक्तिमान नहीं थे। वह अजर ,अमर नहीं थे। वह नाशवान थे ।इसलिए आज शिवजी की स्थिति व आकार नहीं है। आज उस शरीर में आपको शिवजी दिखाई नहीं पड़ते।
जैसे आपने व्यक्तियों के नाम शिवकुमार, शिवराज, शिवपाल अपने जीवन में देखे और सुने होंगे। ऐसे ही वह शिव एक व्यक्ति थे। एक राजा थे। एक योगी थे। एक सद्ग्रहस्थी थे, दक्ष की पुत्री पार्वती उनकी पत्नी थी इसलिए गृहस्थी थे।उनके संतान भी थी।अर्थात ईश्वर नहीं थे। इस प्रकार शिवजी मनुष्य थे।
तीसरा पर्यायवाची देखिए ,शिव सूर्य को भी कहते हैं।
चौथा पर्यायवाची शिव का,शिव राजा को भी कहते हैं।
पांचवा पर्यायवाची कैलाश अर्थात सामान्य प्रचलित अर्थों में हिमालय तथा और अधिक सरल व साधारण शब्दों में कहिए तो ऊंची चोटी वाला भी होता है।
त्रेता युग में अब से करीब 1269000(बारह लाख उन्हत्तर हजार) वर्ष पहले रामचंद्र जी हुए थे। उन्हीं के समकालीन थे राजा रावण, राजा शिव, ऋषि श्रृंग, भारद्वाज मुनि, सोनक मुनि एवं अन्य ऋषि गण। अगर हम सूर्य की आयु के अनुसार सृष्टि की गणना करते हैं तो इस सृष्टि को चलते हुए करीब एक अरब 97 करोड़ वर्ष अर्थात लगभग दो अरब वर्ष होने को हैं।
इस मानव सृष्टि का यह 28 वा कलि काल चल रहा है। अर्थात 28वी चतुर युगी में भी कृत, त्रेता और द्वापर 3 युग बीत चुके हैं। और चौथे कली के भी लगभग 5100 वर्ष बीत चुके हैं।
पृथ्वी और सूर्य को बने करीब 2 वर्ष हुए परंतु यह मनुष्य की उत्पत्ति का समय नहीं है। मनुष्य की उत्पत्ति सातवें वैवस्वतमनु में हुई थी जिसको करीब 12 करोड़ 5 लाख 3 3 हजार वर्ष हो चुके हैं।
जो शिव जी नाम का राजा था उस शिव राजा की उत्पत्ति एवं विनाश त्रेता काल में हो चुका है। जिसको 1269000(बारह लाख उन्हत्तर हजार)वर्ष हुए हैं इसका तात्पर्य हुआ कि 12 69000 वर्ष से पहले भी यह वैवस्वतमनु सृष्टि चल रही थी। जिसमें कोई शिव उस समय भी था, तो वह केवल परमात्मा ही था। जो अमर ,अनादि, अनंत, अजन्मा ,नित्य तथा सर्वशक्तिमान है। सर्वशक्तिमान अर्थात जिसे अपना कार्य करने के लिए किसी अन्य की सहायता की आवश्यकता न पडती हो।
शिव जी की पत्नी जब भस्मासुर ने ग्रहण करने की कोशिश की तो शिव जी को अन्य योगियों की सहायता लेनी पड़ी । वह भस्मासुर का अंत स्वयं नहीं कर पाए। इसलिए उस शिव जी को सर्वशक्तिमान नहीं कह सकते।
राजा शिव के विषय में जानकारी।
उपरोक्त अध्ययन से हमने जाना कि वैदिक साहित्य में शिव के नाना पर्यायवाची शब्द अर्थ है। जैसे शिव नाम परमात्मा का, शिव नाम राजा का, शिव नाम आत्मा का और शिव नाम सूर्य का तथा शिव नाम कैलाशपति अर्थात हिमालय भी है।
श्रंग ऋषि की आत्मा ब्रहम ऋषि कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी में आती थी। श्री कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी (अर्थात पूर्व जन्म के श्रृंग ऋषि महाराज) कहते हैं कि उन्होंने राजा शिव के दर्शन किए थे। जब शिवजी एक राजा थे। जो रावण के गुरु कहलाते थे।
हिमाचल राजा दक्ष की कन्या पार्वती के साथ उनका संस्कार हुआ था। लेकिन बहुत ही सुंदर, बहुत ही विवेकी पुरुष थे।
मूढ लोग महर्षि श्रृंग के कथन के अनुसार जान लें कि राजा शिव नीले या काले रंग के नहीं थे।
उन्होंने कोई जहर नहीं पिया था।
क्योंकि उनके समकालीन जो प्रत्यक्षदर्शी श्रृंग ऋषि हुए उन्होंने बताया कि शिव बहुत ही सुंदर और विवेकी पुरुष थे।
जिस राजा के राज में प्रजा का आचरण बहुत उच्च कोटि का होता हो, जिस राजा के राज्य की प्रजा बहुत ऊंचे विचारों की सदाचरण करने वाली होती है उस राजा को शिव कहते हैं। प्राचीन वैदिक काल में उसी राजा को कैलाशपति की पदवी दी जाती थी अर्थात ऊंचे शिखर वाली प्रजा कैलाश कही गई और उसका स्वामी कैलाशपति कहलाता था।
इसलिए हिमालय को भी शिव कहा जाता है।
हिमालय को इसलिए भी कहते हैं कि वह हिम का आलय है अर्थात बर्फ का घर है। बर्फ से पानी बनता है जो वह सूर्य के ताप से कोई पिघलती है। उसका पानी निकलने के बाद ऊपर पहाड़ पर इकट्ठा होता रहता है और प्रारंभ में यह पानी बनने के बाद उत्तर की तरफ पहाड़ों की कंदराओं में से नीचे गिरता हुआ कैलाश मानसरोवर के उत्तर में चीन की तरफ चला जाता था। बाद में भागीरथ महाराज के द्वारा पहाड़ों को काटकर इस पानी को पृथ्वी पर लाया गया। जिसको वर्तमान में गंगा नदी कहते हैं। यही गंगा नदी उत्तर भारत की जीवनदायिनी नदी बन गई। अब इसको वैदिक सिद्धांत के अनुसार विचार करते हैं। हिमालय (कैलाशपति) से निकलकर गंगा नदी पृथ्वी पर आती है। हिमालय कैलाशपति का नाम शिव है और हिमालय को सिर के रूप में मान लीजिए। अर्थात शिव की सिर की ओर से गंगा नदी निकलती है। इसी को कुछ लोग शिव की जटाओं से निकली हुई प्रचारित कर देते हैं। दोनों बातों में केवल समझ लेने का अंतर है। शाब्दिक अर्थ को सही संदर्भ में समझने का अंतर है।
लोक प्रचलित कथा के अनुसार यदि थोड़े समय के लिए यह मान लें कि शिवजी की जटा से गंगा जी निकली इसका तात्पर्य हुआ कि शिवजी के सारे शरीर को भिगोती हुई गंगा जी नीचे आती है। शिवजी के सारे शरीर को भिगोने और नहाने के पश्चात जो पानी नीचे आता है फिर उसी गंदे जल को उठा करके उसकी कांवड़ बना करके फिर शिव जी की मूर्ति पर चढ़ाना मूर्खता है। क्योंकि यह जल शिवजी से नहलाने के बाद ही तो आ रहा है
वास्तव में इस गंगा जी के नहाने से अथवा शिव जी के ऊपर जल चढ़ाने से मुक्ति प्राप्त नहीं होती है।
हमारे शरीर के अंदर तीन नदियां हैं, इडा, पिंगला ,सुषुम्ना ।जिनको गंगा, यमुना, सरस्वती कहते हैं। और यही तीन विद्या हैं जो ज्ञान, कर्म और उपासना है।
सांसारिक नदी गंगा में गोते लगाने से कोई लाभ नहीं ।आपके शरीर के अंदर जो ज्ञान गंगा बहती है उस में गोते लगाओ तो आपकी मुक्ति संभव है।
यदि मुक्ति चाहते हो तो
ज्ञान गंगा में नहाते हुए कर्म करो। और ईश्वर की उपासना करो ,मुक्ति का द्वार खुल जाएगा।
महाराजा शिव एक योगी होने के कारण निर्जन एवं सुनसान स्थान पर कैलाश पर्वत पर तपस्या किया करते थे। कैलाश कहते हैं बहुत उच्च शिखर वाला पर्वत।
एक संसार का रचयिता स्वामी है, जो शिव है, जो लिंग अर्थात प्राण में संसार को धारण कर रहा है। आज हम उस लिंग मय ज्योति वाले शिव की याचना करते चले जाएं जिसने महत्व देकर इस संसार को विलक्षण बनाया। शिव नाम उस द्रव्यपति का भी है जो अपने द्रव्य को यथाशक्ति संसार के शुभ कार्यों में लगाता है ।राष्ट्र के कार्यों में लगाता है। रक्षा के कार्यों में लगाता है। धर्म के कार्यों में लगाता है ।उस द्रव्य को भी लिंगमय ज्योति कहा जाता है।
प्रश्न– अब प्रश्न पैदा हुआ कि शिवलिंग क्या है ?
प्रश्न –इसमें से कैसे ज्योति प्रस्फुटित होती है?
प्रश्न– शिव ने संसार को लिंग में कैसे धारण कर रखा है?
इसके लिए शिव लिंग के वास्तविक वैदिक अर्थ,संदर्भ एवं महत्व को समझना होगा।
शिवलिंग।
इससे पहले कि हम वास्तविक शिवलिंग की बात करें हम लोक में प्रचलित एक रूढ़ कथा का उदाहरण ले लेते हैं । लेकिन उसका गूढ़ अर्थ कुछ और है उसको भी समझने का प्रयास करेंगे।
कहते हैं कि एक बार महाराजा शिव नग्न होकर ऋषि पत्नी के द्वार पहुंच गए तो ऋषियों ने शाप दिया कि तेरा लिंग पृथ्वी में स्थापित हो जाए। इस प्रकार उनका लिंग पृथ्वी में स्थापित हो गया और अपनी क्रीड़ा करने लगा। तीनों लोकों में त्राहिमाम- त्राहिमाम मच गया। देवताओं ने याचना की तो विष्णु ने कहा कि तुम पार्वती की याचना करो वह अपनी “भग: लिंगों धारणा अचेत “करके इसको शांत कर देगी।
(थोड़ा गंभीर विषय है समझने का प्रयास करेंगे)
प्रश्न आपके उक्त कहने का गूढ़ रहस्य एवं दार्शनिक रूप क्या है ?
प्रश्न इसका गूढ़ अर्थ क्या है?
प्रश्न इसका वैदिक साहित्य में क्या अर्थ है?
उत्तर —जैसा कि उपरोक्त पुस्तकों में वर्णन किया जा चुका है कि शिव नाम परमात्मा का है। पार्वती नाम प्रकृति का है ,तथा लिंग को प्राण भी कहते हैं।
अब उपरोक्त परिभाषाओं को समझने के पश्चात शिव ,पार्वती और लिंग का समायोजन देखें ।
संसार में जब प्राण अर्थात लिंग बिना प्रकृति के आता है अर्थात बिना पार्वती के होता है तो वह त्राहिमाम -त्राहिमाम कर देता है, जैसे मनुष्य के शरीर में जब अपानऔर पान दोनों की एक गति हो जाती है तो मानव मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ,अर्थात त्राहिमाम- त्राहिमाम हो जाती है।
इसी प्रकार जब प्राण रूपी लिंग इस संसार में बिना प्रकृति के आता है तो त्राहिमाम -त्राहिमाम मच जाती है।
यहां प्रासंगिक है कि प्राणों का पान का अर्थ क्या है? इसको समझ लेते हैं।
अपान प्राणवायु को अंदर लेने की प्रक्रिया है, तथा पान प्राणवायु को बाहर छोड़ने की प्रक्रिया है।
(यह बात केवल विद्वान लोग ही समझ सकते हैं दुर्भाग्यवश जब महाभारत युद्ध के पश्चात भारतवर्ष में वेद की विद्या लुप्त हुई तो शिव ,पार्वती और लिंग के वास्तविक अर्थ को समझाने वाले नहीं रहे)
जब लिंग त्राहिमाम त्राहिमाम मचा देता है तब देवता उस समय याचना किया करते हैं ,आवाहन करते हैं कि हे! माता पार्वती अर्थात प्रकृति तू आ ।
उस समय यह प्रकृति माता पार्वती आती है ।भग नाम ही इस प्रकृति का है ।वह लिंग रूपी प्राण को अपने में धारण कर शांत किया करती है।
जब प्राण और अपान दोनों की गति विषम चलती हो तो आयुर्वेद का कोई महान आचार्य किसी औषधि अथवा सोमलता को देकर उनकी संधि कराता है। जिससे वह प्राण धारी यथार्थ गति पर आ जाता है। अर्थात उसमे वापस प्राण लौट आता है।
इससे सिद्ध होता है कि अपान और प्राण जब तक है तभी तक जीवन है।
इसी प्रकार जब प्राण को प्रकृति (यानी लिंग को पार्वती) धारण करती है तो सृष्टि प्रारंभ हो जाती है और जो इस प्रकार की सृष्टि का सृजन करके उसे प्रारंभ करता है उसका नाम शिव है।
सृष्टि का प्रारंभ करने वाला तो केवल एक परमात्मा ही तो है उसी का नाम शिव है।
महर्षि दयानंद का अति संक्षिप्त परिचय।
(इसी सच्चे शिव की खोज के लिए महर्षि दयानंद घर से निकले थे, महर्षि दयानंद का जन्म काठियावाड़ की रियासत के ग्राम टंकारा, गुजरात प्रांत में 12 फरवरी सन1824 ईसवी को पिता श्री कृष्ण दत्त तिवारी और माता श्रीमती अमृतबाई के ब्राह्मण कुल में हुआ था।जब वे 14 वर्ष के थे तो उनके माता-पिता ने उनको शिवरात्रि के अवसर पर व्रत रखने का निर्देश दिया था रात्रि के समय शिव जी की मूर्ति के पास वह बालक मूल शंकर बैठा हुआ था उसने देखा कि कुछ चूहे शिव जी की मूर्ति पर चढ़कर उसको मल मूत्र से गंदा कर रहे हैं और शिव जी पर चढ़ाई गई मिठाई को खा रहे हैं। उन्होंने ऐसा देखा कि यह शिवजी अपनी रक्षा नहीं कर सकते। चूहों को नहीं भगा सकते ।अपने चढ़ावे को बचा नहीं सकते तो यह कैसे शिव हैं। माता-पिता से संतोषजनक जवाब नहीं मिलने के कारण उन्होंने 21 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग करके सच्चे शिव की खोज करने के लिए प्रण किया और वह प्रत्येक तपोवन ,तपस्थली में साधु, संतों ,सिद्ध पुरुषों , त्यागीजनों, ब्राह्मणों ,तपस्वी मनस्वी ,ज्ञानियों , ध्यानियों, अक्कड़ , फक्खड़ से अखाड़ों में , मंदिरों में ,जंगल में ,झाड़ियों में मिल कर ऐसे गुरु को ढूंढते फिरते रहे जो सच्चे शिव के दर्शन करा सके। लेकिन कोई भी ऐसा उनको नहीं मिला। जिससे वह काफी हताश हुए लेकिन बाद में स्वामी पूर्णानंद ने उनको सन्यास दिलाकर स्वामी दयानंद नाम दिया और यही शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी योगाभ्यास और तपश्चार्य में रत रहने लगे। तत्पश्चात सन 1863 ईसवी में मथुरा में प्रज्ञा चक्षु गुरु विरजानंद जी के के शिष्य बने, जो बाद में भारत के भविष्य बने तथा वामन से विराट बने जो बहुत ही बुद्धिशाली थे। जो अपने गुरु के आदेश पर भारत मां की दुर्दशा और दयनीय स्थिति से उभारने के लिए भारत भ्रमण पर निकले। जब भारत भ्रमण पर निकले तो उन्होंने चारों तरफ घूम करके अपना वतन भी देखा और वतन में लोगों का पतन भी देखा। आपस की फूट, पाखण्ड की भीषण चक्की में पिसती जनता, कुरीतियों की कारा में सारा समाज बंदी देखा, संस्कृति के रक्षकों को भक्षक के रूप में देखकर उनको बहुत कष्ट हुआ।
ऐसे लोगों को भी देखा जो मगरमच्छ की तरह धर्म सरोवरो को गंदा कर रहे थे।
मक्कारों के जकड़ में सारा समाज आया हुआ था।
महर्षि दयानंद ने देखा कि भक्ति अज्ञानी लोगों के मजबूत शिकंजे में फंसी हुई है । आर्यों की सभ्यता समाप्त प्राय होती जा रही है। भक्ति पापियों के पंजों में फंसी हुई है। ईश्वर के नाम पर व्यापार होता है। ईश्वर खुले बाजारों में बिकता है ।भारत की जनता के विचारों में भारी परिवर्तन आ चुका था ।लोगों के आचरण और व्यवहार में चालाकी समा गई थी। मंदिरों में धर्म अधिकारियों की आरती रमणियां उतारा करती थी। जो छिप छिप कर लंपट रासलीला करते थे।
महर्षि दयानंद ने देखा कि वेदों की ऋचा लुप्त हो रही थी। धर्म क्षीण हो रहा था। धर्म के स्थान पर अधर्म और पराक्रम के स्थान पर प्रमाद सर्वत्र छाया हुआ था। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में महर्षि दयानंद ने समाज सुधार का कार्य किया और इस देश की दिशा और दशा बदलने का सफल और सार्थक प्रयास किया ।वेद की विद्या को पुन:स्थापित किया। अछूतों का उद्धार किया। नारी को सम्मान दिलाया। शूद्र और नारी को वेद को पढ़ने का अधिकार दिया।
हम इससे समझें कि महर्षि दयानंद एक ब्राह्मण तिवारी परिवार में पैदा हुए थे। उन्होंने उन ब्राह्मणों का ही विरोध किया जो धर्म के नाम पर पाखंड कर रहे थे। तथा भक्ति के नाम पर लोगों को बहका कर टका बटोरी कर रहे थे। उदर पूर्ति अथवा जठ राग्नि को शांत करना उनका केवल एक उद्देश्य रह गया था। केवल अन्नमय कोष के प्राणी बनकर रह गए थे। कमोबेश आज भी वही परिस्थितियां भारतवर्ष के समक्ष है। क्योंकि आज भी मूर्खों की संख्या अधिक ही है।
जो शिव के सच्चे स्वरूप को नहीं समझ पाते हैं)
अब पुन:मूढ़ एवं रूढ़ की बात करें।
त्रेता युग में माता पार्वती उसका नाम भी था जो दक्ष राजा हिमाचल की कन्या थी और दक्ष राजा का राज वर्तमान के हरिद्वार और कनखल के पास हुआ करता था। एवं शिव जी का राज वर्तमान में जम्मू कश्मीर और उस से उत्तर की ओर का जो भाग था उसमें शिवजी का राज हुआ करता था। जिस राजा एवं महायोगी तथा प्रकांड पंडित शिव जी को देखने का सौभाग्य श्रृंगऋषि महाराज को समकालीन होने के नाते मिला था ।कुछ अज्ञानी लोगों ने सृष्टि रचना की ईश्वर की उस घटना को उस शिव राजा और पार्वती से जोड़ करके देखा ।जो इसके वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाए।
प्रश्न वैदिक और आर्ष साहित्य में उसका आध्यात्मिक क्या अर्थ है?
उत्तर यह आपके समक्ष प्रस्तुत किया गया।
शिव नाम आत्मा का भी है। जब मनुष्य अर्थात आत्मा शिव संकल्प धारण करता है और शिव का पुजारी बनता है तो उस समय यह आत्मा अपने प्रभु को अर्थात शिव को पाकर शिव कहलाता है ।
(जैसे लोहाअग्नि के गुणों को धारण करने वाला हो जाता है उसी प्रकार शिव अर्थात् परमात्मा के संपर्क में आने से आत्मा शिव हो जाता है)
जिस प्रकार राजा अपने प्रजा को ऊंचा बनाने से शिव कहलाता है ।ऐसी यह आत्मा उस प्रभु की गोद में अर्थात् शिव की गोद में जाने से शिव कहलाता है।
परंतु ध्यान रहे कि एक शिव होता है और दूसरा महाशिव होता है ।यह आत्मा महाशिव नहीं होता केवल ईश्वर की उपासना में पहुंचने और उसकी गोद को धारण करने के कारण , तथा ईश्वर के गुणों को धारण करने के कारण शिव कहलाता है।
हमारे वेदों में वह अनुपम विद्या ,व दार्शनिक विचार हैं जिनको धारण करता करता मानव गदगद हो जाता है। परंतु हमारी बुद्धि की सूक्ष्मता है हम बुद्धि को संकुचित बना लेते हैं ।बुद्धि से इस वेद वाणी का विस्तार नहीं लेते ।वेद में शिव के नाना मंत्र आते हैं ।
(यज्ञ करते समय भी शिव संकल्प मन में बना लेने के अनेक मंत्र महर्षि दयानंद ने एक जगह एकत्र करके प्रस्तुत किए हैं। जो दैनिक यज्ञ की पुस्तक से देखे जा सकते हैं)
शिव का नाद एवं डमरु क्या है?
हमारे आचार्यों ने ऐसा कहा है कि जब महर्षि पाणिनि थे। महाराजा शिव ने डमरू बजाया और गान गाया। उस डमरु में से 14 सूत्रों का विकास हुआ ,उसको व्याकरण कहते हैं। व्याकरण में प्रत्येक वेद मंत्र बंध जाता है।
क्या यह यथार्थ है कि शिव ने डमरू बजाया ,पार्वती ने नृत्य किया ,शिव ने गाना गाया ,और महर्षि पाणिनि ने इन सूत्रों को ले लिया?
परंतु महर्षि पाणिनि तो अब हुए हैं जो अपेक्षाकृत वर्तमान के ऋषि का ही जा सकते हैं, इस सृष्टि को लगभग एक अरब 97 करोड़ 29,56,064 वर्ष(यह गणना श्रृंग ऋषि वर्तमान जन्म में कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी द्वारा उस समय की गई है जब व्याख्यान कर रहे थे) प्रारंभ हुए हो रहा है तो क्या पाणिनी ऋषि महाराज से पूर्व यह वेद मंत्र क्रमबद्ध नहीं थे? क्या उस समय कोई व्याकरण नहीं था?
यह एक जटिल प्रश्न है।
इस विषय में हमारे ऋषियों ने और आचार्यों ने कहा है कि यह तो यथार्थ है कि शिव ने डमरू बजाया और पार्वती ने नृत्य किया परंतु इसको वैदिक ग्रंथों से एवं आर्ष साहित्य के अध्ययन से समझने व जानने की आवश्यकता है।
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि शिव नाम परमात्मा का है।पार्वती नाम इस प्रकृति का है ।सृष्टि के प्रारंभ में जब संसार का प्रादुर्भाव हुआ उस समय परमपिता परमात्मा या शिव ने इस महत्व रूपी डमरु को बजाया और डमरु बजने से यह माता पार्वती रूपी प्रकृति नृत्य करने लगी ।यह नाना रूपों में रची गई।
महत रूपी डमरु प्रकृति रूपी पार्वती और शिव रुपी परमात्मा को इस वास्तविक वैदिक साहित्य के अनुरूप माना जाना चाहिए। उन्होंने डमरू बजाया तो संसार रच गया ,जो आज हमें दृष्टिगोचर हो रहा है।
वास्तव में यह है शिव का नाद एवं डमरु।
इस वाक्य को इस प्रकार जान और मान लेना चाहिए।
मैं यह नहीं कहता कि महर्षि पाणिनी मुनि महाराज ने भी संसार का अधिक कल्याण किया, उन्होंने 14 सूत्रों को प्रकृति के महत्त्व से या डमरु से किसी प्रकार स्वीकार कर लिया परंतु उपरोक्त तथ्य ही सही है।
हमारे यहां सृष्टि के प्रारंभ में इस व्याकरण को हमारे आदि ऋषि ब्रह्मा ने जाना।जो योग से जाना ।महर्षि पाणिनि ने भी इन 14 सूत्रों को अपने योग से जाना।
ऐसा संभव है।
डमरु अग्रणी अनाद से जाना।
ब्रह्मा ने सृष्टि के आदि में पूर्व की भांतिअर्थात् पुनः की भांति( कहने का अर्थ यह है कि प्रत्येक सृष्टि के प्रारंभ में एक ब्रह्मा होता है और वह प्रलय के बाद हर सृष्टि के प्रारंभ में योग से पहली सृष्टि के ज्ञान को आगे बढ़ाता है) योगाभ्यास किया अर्थात सिद्ध होता है कि ब्रह्मा पहले से भी योगाभ्यास करते रहे थे। प्राण ,अपान, उदान, समान और व्यान इन पांचों प्राणों को जाना ।
उन पांचों को एकाग्र किया, और ब्रह्मरंध्र में ले जाया गया। जहां एक चक्र होता है। उस चक्र का विस्तार रूप हुआ।
प्रत्येक मानव के मस्तिष्क में एक अनहद नाम का नाद बजता है। उस अनहद से नाना प्रकार के स्वर चलते हैं। उन स्वर को जाना। स्वरों को जानकर इन अक्षरों को जाना ,और इन अक्षरों से यह प्रत्येक वेद मंत्र क्रमबद्ध होते चले गए। यही वेद मंत्र ऋचा कहलाती है। उन्हीं शब्दार्थ से संसार की भाषाओं का विकास हुआ। वही शब्दार्थ परंपरा से चले आ रहे हैं ।उन्ही शब्दों को मनुष्य अपनी कल्पना से कुछ परिवर्तन करता रहता है । इस प्रकार नाना प्रकार की भाषाओं का विकास हो जाता है, तो यह व्याकरण सृष्टि के आदि से चला आ रहा है ।महर्षि पाणिनि ने इसको कुछ सरल रूप में लिया है ।उनमें अक्षरों की व्याहृतियों करते हुए उन्होंने भिन्न-भिन्न रूपों से इस का प्रतिपादन किया है।
इसका अभिप्राय यह है कि हमारे मस्तिष्क में एक अनहद नाम का बाजा बजता होता है ,एक नाद होता है, एक सिंहनाद होता है ,रिद्धि नाद होता है ,डमरू जैसा नाद होता है , वहींं नृत्य भी होता है ।इस नाद को जानकर हम वास्तव में वैज्ञानिक बनते हैं। और उससे नाना प्रकार की व्याहृतियों को जानने वाले और अपने मानवत्व का विकास करने वाले बनते हैं।
अब यह भस्मासुर की काल्पनिक कथा क्या है ।
वास्तविक कथा क्या है?
इस पर विचार करते हैं।
सर्वप्रथम काल्पनिक कथा पर विचार करते है।
“यह काल्पनिक है कि एक समय महाराजा भस्मासुर को इच्छा जागृत हुई कि मैं तपस्वी होऊं ।कुछ काल पश्चात उन्हें देव ऋषि नारद के दर्शन हुए ,तो नारद ने कहा अवश्य तपस्वी बनो। वह शिव की तपस्या करने लगे तो शिव आ पहुंचे। शिव ने कहा कि भस्मासुर क्या चाहते हो?
भस्मासुर ने कहा कि भगवान आपके द्वारा यह जो कंगन है इस कंगन को मुझे अर्पित कर दीजिए। अब भगवान शिव ने वह कंगन दे दिया। उस कंगन में यह विशेषता थी यदि वह मस्तिष्क के ऊपर ले भाग में हो तो वह मानव भस्म हो जाता है।
महाराजा शिव तो कैलाश पर जा पहुंचे और भस्मासुर को अभिमान आ गया। जिस को भस्म करने की इच्छा होती उसे कंगन द्वारा भस्म कर देते ।एक समय वह भ्रमण करते हुए कैलाश जा पहुंचे ।जब मानव के विनाश का समय आता है तो इसी प्रकार की बुद्धि बन जाती है ।उसी प्रकार के कारण बन जाते हैं ।भस्मासुर के जब विनाश का समय आया तो वह भ्रमण करते हुए कैलाश पर जा पहुंचा। माता पार्वती के दर्शन करते ही पार्वती पर मोहित हो गए और मोहित होकर के महाराजा शिव से कहा कि या तो मुझे पार्वती को अर्पित करो अन्यथा इस कंगन से मैं आप को भस्म कर दूंगा ।
अब महाराजा शिव ने यह विचारा कि यह तो एक मर्यादा का उल्लंघन होने चला ।क्या करना चाहिए? उसी काल में उन्होंने कहा कि अरे भस्मासुर मुझे कुछ समय प्रदान किया जाए उन्होंने कहा कि बहुत अच्छा।
समय लेकर के शिव कैलाश को त्याग करके ब्रह्मा के द्वार जा पहुंचे। तनिक विचार करिए कि शिवजी अपनी पत्नी को प्राप्त करने के लिए द्वार द्वार भटक रहे हैं। ब्रह्मा ने उनकी बात को सुना लेकिन सहायता करने से इंकार कर दिया। फिर से विचार करें कि भस्मासुर के आगे ब्रह्मा भी हथियार डाल चुके थे।
इसी प्रकार विष्णु के यहां पहुंचे तो विष्णु ने भी सुन कर के इनकार कर दिया।
इससे सिद्ध हुआ कि विष्णु भी भस्मासुर को नष्ट नहीं कर सकते थे।
इंद्र के पास पहुंचे तो इंद्र नहीं भी सहायता नहीं की।
इसका तात्पर्य है कि सारे देवता असफल हो चुके थे और शिव जी के सहायता नहीं कर पा रहे थे।
अंत में निराश होकर भ्रमण करते हुए पुन: कैलाश पर आ गए और पार्वती से कहा कि देवी अब क्या करना चाहिए ?
यह तो मर्यादा का विनाश होने चला है यदि मर्यादा का विनाश हो गया तो देवी हमारा जीवन व्यर्थ हो जाएगा !
उस समय पार्वती ने कहा कि प्रभु यदि आप मेरे कहे वाक्य को स्वीकार कर लें तो मैं आपको कुछ कह रही हूं ।महाराज शिव ने कहा कि कहो, देवी उच्चारण करो।
देवी ने कहा कि भस्मासुर से कह दो औरआप मेरा और भस्मासुर का नृत्य करा दीजिए ।जब नृत्य होगा तो जहां जहां मेरा हाथ जाएगा वही वही भस्मासुर का हाथ जाएगा। जब भस्मासुर का हाथ मस्तिष्क के ऊपर के विभाग में जाएगा तो कंगन से भस्मासुर समय नष्ट हो जाएगा ।
माता पार्वती के इस वाक्य को शिव ने स्वीकार कर लिया। अब महाराज शिव ने भस्मासुर से कहा कि हे भस्मासुर! तुम पार्वती के साथ नृत्य करो।
भस्मासुर ने प्रसन्न होकर के यह बात स्वीकार कर लिया और दोनों का नृत्य होने लगा । इस प्रकार योजना के तहत भस्मासुर का अंत उसी कंगन से करा दिया गया।
यह तो अज्ञानियों की कहानी थी।
।क्योंकि विचार करो कि यदि शिव परमात्मा थे ,अर्थात सर्वशक्तिमान थे, तो उनके पृथ्वी पर उत्पन्न होने की आवश्यकता नहीं थी और न ही वह नष्ट होते। ईश्वर तो अजन्मा और अनादि एवं नित्य है । वह जन्म मरण में आता ही नहीं। न हीं वह अवतार धारण करता। न हीं पार्वती के साथ विवाह संस्कार करते ,तथा नहीं संतानोत्पत्ति करते ।
पार्वती के कारण ब्रह्मा विष्णु और इंद्र से सहायता नहीं मांगते ,क्योंकि ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है ।
यह तो थी काल्पनिक कथा जिसको अज्ञानी लोग अधिकतर संसार में सुनाते हैं । इस पर विश्वास करते हैं।
परंतु अब इसकी वास्तविक कथा को जान लीजिए।
भस्मासुर का वास्तविक, वैदिक अभिप्राय क्या है?
देखिए भस्मासुर वही होता है जो संसार में अभिमानी होता है ।आज भौतिक विज्ञान वेता जो समाज में हैं जिसमें अणु,महा अणु, त्रिसेनू इत्यादि नाना प्रकार के कंगन रूपी यंत्र एकत्र किए जाते हैं ।जैसे अग्नेयास्त्र हैं ।कहीं ब्रह्मास्त्र हैं ,तो वहां आत्मा का ज्ञान नहीं होता ।वह केवल अनीति से भिन्न -भिन्न प्रकार के कंगनों को, अर्थात् यंत्रों को एकत्रित करता है ।नाना कंगन रूपीयंत्रों को बनाता है और परमात्मा शिव को तथा उसकी सृष्टि को नष्ट करना चाहता है, तो उस काल में जब मर्यादा का उल्लंघन होता है तो माता पार्वती का नृत्य होता है। अर्थात प्रकृति नाचती है।नृत्य करके यह जो भौतिक विज्ञान वेता समाज है ,यह तो परमाणु वाद का समाज है ।यह स्वयं उस भयंकर अग्नि में भस्म हो जाता है। भौतिक विज्ञान वेत्ता में जब अभिमान हो जाता है तो अभिमान को हमारे यहां भस्मासुर कहते हैं।
अब श्रावण का महीना चल रहा है प्रतिदिन प्रत्येक समाचार पत्र में शिव जी के भक्त वास्तविक शिव के चित्रण को प्रस्तुत न करके त्रेता काल में उत्पन्न हुए योगी शिव को, जो एक आत्मा थी, को भांग पिला कर मस्त पड़ा हुआ दिखाते हैं ।उनके अनुचर बनके अपने आप भी नाना प्रकार के शिवजी के नाम पर नशा करते हैं ।ऐसे ही लोगों ने शिवजी को नशेड़ी बनाकर कलंकित किया है । अपने महा योगियों को, अपने महापुरुषों को बदनाम करने का कार्य भी ऐसे ही अज्ञानी लोगों का है।
अपने महायोगियों को, अपने मनीषियों को, अपने तपस्वीयों, को मनस्वीयो को विधर्मीयो के द्वारा लान्छित करने का तथा अपमानित करने का अवसर हम स्वयं देते हैं। जब हम महायोगी शिव को भांग पीकर लेटा हुआ दिखाते हैं जब हम ऐसी कपोल कल्पित कल्पनाएं, दिष्टकूट बनाकर समाज में प्रस्तुत करते हैं तो हमारे महा योगियों का मजाक तो उड़ेगा ही।
इसीलिए महर्षि दयानंद ने सच्चे शिव की खोज करने का प्रण लिया था। संसार के समक्ष सत्य को स्थापित किया था। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए आर्य समाज की स्थापना की थी।
आर्य समाज के लोग वास्तविक एवं सही अर्थों को प्रकट करते रहेंगे यह बात अलग है कि उसकी मान्यता कितने लोगों में आएगी।
हम राजा शिव जी को एक महायोगी स्वीकार करते हैं लेकिन उसको ईश्वर का अवतार स्वीकार नहीं करते हैं इसी प्रकार राम और कृष्ण हमारे महापुरुष हैं।
हम आर्य समाज के लोग उनका सम्मान करते हैं। परंतु वे विष्णु के अथवा ईश्वर के अवतार नहीं हैं ।यही है आर्य समाज और अन्य लोगों में अंतर।
आर्य समाज वास्तविक अर्थ और संदर्भ को समाज के समक्ष रखने का पावन उत्तरदायित्व निभाता है जबकि जठराग्नि को शांत करने वाले भ्रम फैलाने वाले समाज को अधोगति की तरफ ले जाते हैं।
(लेखक उगता भारत के चैयरमेन हैं)