यदि आचार्य नरेन्द्र देव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री होते तो देश की नियति कुछ और होती

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संदीप पाण्डेय
पटना में 1934 में कांग्रेस के अंदर एक सम्मेलन कर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ और आचार्य नरेन्द्र देव उसके अध्यक्ष बनाए गए। जयप्रकाश नारायण ने महसचिव की जिम्मेदारी सम्भाली। कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने 1936 में आचार्य नरेन्द्र देव व अच्युत पटवर्द्धन को कांग्रेस कार्यकारी समिति में शामिल किया जो वे 1938 तक रहे। 1936-1938 आचार्य जी संयुक्त प्रांत के कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। 1936-37 में हुए चुनावों में कांग्रेस ने भाग लेने का फैसला लिया और संयुक्त प्रांत समेत 11 में से 7 प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी। आचार्य जी को संयुक्त प्रांत का कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते वहां का प्रधान मंत्री बनना चाहिए था। किंतु कांगेस सोशलिस्ट पार्टी का निर्णय था कि उसके सदस्य कहीं कोई पद नहीं लेंगे। अतः आचार्य जी की जगह गोविंद वल्लभ पंत संयुक्त प्रांत के प्रधान मंत्री बने।
1946 के विधान सभा चुनावों में भी आचार्य नरेन्द्र देव विजयी रहे लेकिन 1948 में सोशलिस्ट पार्टी कांगेस से अलग हो गई। इसमें विशेष आग्रह जयप्रकाश नारायण का था। आचार्य जी व डाॅ. राम मनोहर लोहिया तो कांगेस के अंदर रह कर ही कांग्रेस की नीतियों को समाजवादी विचार से प्रभावित करते रहने के पक्षधर थे। किंतु बाद में कांग्रेस ने ही एक प्रस्ताव पारित कर तय कर लिया कि कांगेस के अंदर कोई दूसरा दल काम नहीं करेगा। सोशलिस्ट पार्टी को तो कांगेस से अलग होना ही था। हलांकि जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद जयप्रकाश नारायण को भी लगा कि 1948 का सोशलिस्ट पार्टी का कांग्रेस से अलग होने का निर्णय शायद उचित नहीं था।
कांग्रेस से अलग होने पर आचार्य जी समेत 12 विधायकों ने सैद्धांतिक आधार पर विधान सभा सदस्यता से इस्तीफा दिया चूंकि वे कांग्रेस के नाम पर चुनाव जीत कर आए थे। इसके बाद हुए उप-चुनाव में बारहों उम्मीदवार हार गए। आचार्य जी को हराने के लिए उत्तर प्रदेश कांग्रेस ने देवरिया से मूलतः महाराष्ट्र के बाबा राघव दास को लाकर फैजाबाद से खड़ा कर दिया और यह प्रचारित किया गया कि महंत राघव दास राम भक्त हैं और आचार्य जी नास्तिक होने के कारण राम विरोधी। उस समय कांग्रेस के अंदर साम्प्रदायिक तत्व कितना हावी था इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अतः नेहरू की इच्छा के विरुद्ध आचार्य जी को फैजाबाद से चुनाव हरा दिया गया। बाद में उन्हें उत्तर प्रदेश से राज्य सभा का सदस्य बनाया गया।
आजादी के बाद महात्मा गांधी, जो जब आचार्य नरेन्द्र देव से पहली बार बनारस में मिले तो बहुत प्रभावित हुए थे, आचार्य नरेन्द्र देव को कांगे्रस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में देखना चाहते थे। इससे पहले भी गांधी जी ने नरेन्द्र देव का नाम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए मंजूर किया था जब सुभाष चंद्र बोस 1939 में अध्यक्ष चुने गए थे लेकिन विरोध के कारण अपना दावा इस शर्त पर वापस लेने को तैयार थे कि उनकी जगह आचार्य नरेन्द्र देव को अध्यक्ष बनाया जाए। 1953 में जवाहरलाल नेहरू जयप्रकाश नारायण को बुलाकर कांगे्रस और तब तक प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बन चुकी के बीच तालमेल बनाकर काम करने की संभावना तलाशना चाहते थे। जयप्रकाश ने 14 बिंदु, जैसे भूमि सुधार, ऊपरी सदन को समाप्त करना, बचे हुए उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, ग्रामीण उद्योगों को सहकारिता के आधार पर आयोजित करना, इत्यादि, रखे थे जो वे चाहते थे कि कांग्रेस के कार्यक्रम में शामिल किए जाएं किंतु जवाहरलाल बिना शर्त समर्थन चाहते थे।
आचार्य नरेन्द्र देव व जयप्रकाश नारायण तथा डाॅ. राम मनोहर लोहिया के भी जवाहरलाल नेहरू व महात्मा गांधी के साथ काफी नजदीकी निजी व वैचारिक सम्बंध थे। किंतु यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि ये महापुरुष साथ नहीं रह पाए।
यदि आचार्य नरेन्द देव 1936 में संयुक्त प्रांत के प्रधान मंत्री और आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के पहले मुख्य मंत्री बनते तो शायद देश का इतिहास कुछ और होता। 1949 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद में राम लला की मूर्ति जो रखी गई वह यह तो रखी नहीं जाती अथवा रखने के बाद जवाहरलाल नेहरू की इच्छा अनुसार हटा ली जाती।
आचार्य नरेन्द्र देव नेहरू व गांधी की तरह साम्प्रदायिक राजनीति के विरोधी थे एवं उनका मानना था कि कांग्रेस समाजावादी कार्यक्रम अपना कर ही अपने अंदर व बाहर साम्प्रदायिक तत्वों को कमजोर कर सकती है।
आचार्य नरेन्द्र देव मानते थे कि बहुसंख्यक वर्ग का अल्पसंख्यक वर्ग के प्रति उदार नजरिया होना चाहिए और अल्पसंख्यकों को इस बात के लिए समय दिना जाना चाहिए कि वह खुद समान आचार संहिता जैसी अवधरणा को समझ का अपनाने को तैयार हो।
बचपन में ही पिता जी की वजह से निजी शिक्षक से संस्कृत सीख हिन्दू धर्म ग्रंथों को पढ़ लेने व बाद में बौद्ध धर्म दर्शन में रुचि जगने के बावजूद आचार्य जी माक्र्सवाद से प्रभावित होने के कारण नास्तिक ही रहे। इसके बावजूद उनका हृदय बहुत कोमल था व व्यक्तित्व अत्यंत निर्मल। कभी भी निजी महत्वकांक्षा को सार्वजनिक जीवन में हावी नहीं होने दिया। पिता जी के मरने तक तो काशी विद्यापीठ से वेतन ही नहीं लिया और उसके बाद भी सिर्फ 150 रुपए महीने का वेतन स्वीकार किया। उनका एक तिहाई से आधा वेतन छात्रों व राहुल सांकृत्यायन जैसे मित्रों की मदद करने में खर्च होता था। तीन विश्वविद्यालयों के आचार्य या उप-कुलपति रहने वाला व्यक्ति जो अपने समय का बहुत बड़ा विद्वान रहा व्यक्तिगत जीवन में कितना सरल एवं हंसमुख था लेकिन साथ ही निष्ठावान सिद्धांतवादी इसकी कल्पना करना कठिन है। जवाहरलाल नेहरू अपनी आत्म कथा में लिखते हैं कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशनों में किसानों के लिए भूमि सुधार जैसे सबसे प्रगतिशील प्रस्ताव संयुक्त प्रांत से ही आते थे। ज्ञात हो कि स्वामी सहजानंद सरस्वती जैसे किसान नेता की पहल पर किसानों को अखिल भारतीय किसान सभा के तहत जब संगठित किया गया तो उसके पहले अध्यक्ष आचार्य नरेन्द्र देव ही बनाए गए थे।
यह उत्तर प्रदेश व देश का दुर्भाग्य है कि उसे आचार्य नरेन्द्र देव जैसे व्यक्तित्व का नेतृत्व नहीं मिला जिसमें देश-प्रदेश की नियति को प्रभावित करने की क्षमता थी।

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