एडवोकेट देवेंद्र सिंह आर्य
ईश्वर जीव और प्रकृति तीनों अनादि हैं। तीनों की सत्ता प्रथक प्रथक है। जीव से ईश्वर ,ईश्वर से जीव और इन दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप हैं। ईश्वर और जीव दोनों चेतनता तथा पालन आदि गुणों में समान हैं। ईश्वर जीव और प्रकृति इन तीनों के गुण, कर्म व स्वभाव भी अनादि हैं। ईश्वर जीव व प्रकृति को जगत का कारण भी कहते हैं । इसलिए जगत का कारण भी अनादि हुआ। ईश्वर, जीव, प्रकृति के बिना जगत की उत्पत्ति एवं पूर्णता नहीं। यह पहले से तीनों होंगे तभी जगत होगा।
प्रकृति को भी जगत का कारण इसलिए कहते हैं कि समस्त ब्रह्मांड की रचना प्रकृति के तीन तत्वों सत, रज , और तम से हुई है। इन्हीं तीन तत्वों सत ,रज और तम के कारण से यह जगत बना है। सूर्य ,चंद्रमा, पृथ्वी, तारे, आकाशगंगा जितना भी हम स्थूल जगत आंखों से देखते हैं वह सभी प्रकृति के मूल तत्व सत ,रज और तम से बने हैं।
वैशेषिक दर्शन में सत ,रज और तम को गुण बताया गया। इसलिए गुण अथवा तत्व से निर्मित न हों।
इसलिए सांख्य दर्शन में ये जगत के कारण कहे जाते हैं।
कारण का यहां अर्थ है कि जो कोई वस्तु किसी वस्तु के बनाने में प्रयोग होती है जिस वस्तु से कोई वस्तु बनाई जाती है वह कारण है और जो वस्तु बन जाती है वह कार्य है। सामग्री के रूप में प्रयोग की जाती है अर्थात मेटेरियल मानी जाती है, वह कारण है। जैसे आटा से रोटी बनती है तो रोटी का कारण आटा है । आटे का कारण गेहूं है। आटा से जो रोटी बनी वह उसका कार्य है। गेहूं से जो आटा बना वह उसका कार्य है। प्रकृति के तीन तत्वों को लेकर ईश्वर ने जो पूरा ब्रह्मांड रचाया है , यह प्रकृति का कार्य है ।
इस प्रकार यह तीनों अनादि सत्ताएं हैं।
1 चेतन ,निरतिशय ज्ञानवान, सर्वाधिष्ठाता ,स्वामी सत्ता।
2 चेतन परिधिमय, अल्प ज्ञानवान, आधीन सत्ता।
3 चेतनातिरिक्त, स्वज्ञानानुभव रहित ,त्रिगुणात्मक ( सत, रज, तम) सत्ता जिससे ब्रह्मांड के तत्वों में पदार्थों के सूक्ष्म से सूक्ष्म रचना एवं उनके विनाश का क्रम चलता रहता है।
इन तीनों में स्वामी सत्ता सर्वशक्तिमान है। सर्वाधार है। निष्काम हैं। वही आदि मूल बार-बार रचना करने वाली शक्ति है। वह अजर, अमर ,अभय है। वह किसी का सेवक नहीं है। वह किसी का पुत्र नहीं है ।वह किसी से निर्मित होने वाला भी नहीं है। वह निराकार ,निर्विकार है, जो ईश्वर है। जो किसी परिधि में नहीं बंधा जो सब को अपने अधीन रखता है इसलिए उसको सर्वाधिष्ठाता कहते हैं।
दूसरा चेतन तत्व जो परिधिमय है। वह अल्पज्ञ है। उसे ज्ञान का आधार चाहिए। वह जन्म मरण रूपी कालचक्र में आबद्ध है। उसका ज्ञान भी परिणामी है। उन परिधियों से या बंधनों से मुक्त होने से ही उसका कल्याण है। अतः वह सकाम है ।सुख-दुख युक्त है। राग -द्वेष बंधयुक्त है ।संसार में उसे रहना पड़ता है। वह इसमें रहकर अपने ज्ञान, वृत्ति एवं पूर्व कर्मफल अनुसार जाति,आयु, भोग को प्राप्त होता है । वह जीव है।
यजुर्वेद ने इसका वर्णन एक मंत्र बड़े रोचक ढंग से किया है।
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समान वृक्षम परिषष्वजाते ।
तयोरन्य पिप्पलम स्वादवत्तनश्नन्नन्य अभिचाकशीति
ऋग्वेद 1/164/20
भावार्थ—
दो पक्षी हैं। साथ साथ रहते हैं। परस्पर मित्रता भी है। एक ही वृक्ष पर दोनों का निवास है ।उनमें से एक उस वृक्ष के फलों को भोग करता है । दूसरा फलों को न खाता हुआ अपने मित्र को अच्छी प्रकार देखता रहता है ।
इसलिए जीव जगत में आकर फसता है। क्योंकि वह प्रकृति के भोग में पड़ जाता है। क्योंकि जीव ईश्वर को भूल जाता है। रज् और तम के कारण अंधकार में भटक जाता है।
इस मंत्र में जिन दो पक्षियों को बताया गया है ,वह जीवात्मा और परमात्मा रूपी ही दो पक्षी है। जीवात्मा प्रकृति रूपी वृक्ष के फलों को भोग करता है। परंतु परमात्मा भोक्ता नहीं है ।वह सर्व दृष्टा रूप में हम सब को देख रहा है। जीव ही पाप पुण्य करता है। जीव ही पाप और पुण्य का कर्म भोग भोक्ता है। इसलिए जीव आत्मा साक्षी नहीं बल्कि परमात्मा साक्षी है।
क्योंकि परमात्मा सर्वत: चक्षुओं से पूर्ण है ।उसके दर्शन शक्ति सर्वत्र विद्यमान है ।उसकी मुख् वत पदार्थों को ग्रहण कर रूपांतर करने एवं जीवन दान करने की शक्ति सर्वत्र विद्यमान है। उसकी सब को ग्रहण करने और दान करने की विविध कलामय हाथ की शक्ति सर्वत्र विद्यमान है। वह सर्वत्र स्थानों में स्थिर व्याप्त पहुंचा हुआ है। इन्हीं अपनी महान सर्वत्र व्याप्त शक्तियों से वह अकेला ही त्रिलोकी की रचना करता है।
(यजुर्वेद 17 / 19)
प्रकृति में चेतना नहीं है। न उसको अपना स्वयं का ज्ञान है ।न उसको अनुभव है। लेकिन ब्रह्मांड के सूक्ष्म से सूक्ष्म और विशाल से विशालतम रचना में प्रकृति का विशेष महत्व है।
प्रकृति के बिना ब्रह्मांड की रचना संभव नहीं जैसा कि ऊपर कहा गया है कि प्रकृति जगत का कारण है।
प्रश्न पैदा होता है कि
प्रकृति का लक्षण क्या है?
सत, रज और तम तीन वस्तुओं का जो संघात है (तीनों का एक साथ मिलकर के जो संघ बनता है उसको संघात कहते हैं)अर्थात जो सत, रज और तम का प्रोडक्ट है उसका नाम प्रकृति है।
सत, रज और तम से ईश्वर ने शास्त्रोक्त नाम महतत्व (साधारण शब्दों में बुद्धि) बनाई। बुद्धि से अहंकार पैदा हुआ।अहंकार से 5 तन्मात्राएं(पांच सूक्ष्म भूत भी कहते हैं)
दस इंद्रियां तथा 11वा मन बनाया।
5 तन्मात्राएं से पांच स्थूल भूत बनाए। यह 23 का समुच्चय (संघ) हुआ। इसमें 24 वी प्रकृति को और जोड़ दें। यहां अर्थात 24 तक सारे तत्व प्रकृति के हैं। इसलिए प्रकृति का महत्वपूर्ण योगदान शरीर के निर्माण में और ब्रह्मांड के निर्माण में है। इसलिए प्रकृति जगत का कारण है।
इसमें 25 वा पुरुष अर्थात जीव और परमेश्वर हैं। पुरुष के यहां दो अर्थ है। एक सामान्य पुरुष और एक परम पुरुष। सामान्य पुरुष मनुष्य जीव है और परम पुरुष परमात्मा है।
जैसे वेदाहमेतम पुरुषम महान्तम आदित्य वर्ण: तमस:प्रस्ताव कहा जाता है।
जिसका अर्थ है कि मैं उस परम पुरुष को जानता हूं यहां उस परम पुरुष को जानने का तात्पर्य परमात्मा को जानने से है।
प्रकृति में कोई विकार नहीं आता क्योंकि प्रकृति तो अनादि है। अविकारिणी है ।परंतु उसकी सत्, ,रज और तम जो वस्तु बनती हैं, उनमें विकार आता है। इसीलिए यह संसार अथवा ब्रह्मांड तथा जीव अथवा प्राणियों का प्रकृति के तीन तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर विकार युक्त हैं । सत, रज और तम इन तीनों में विकार नहीं आते हैं। इसी से संसार, जगत अथवा ब्रह्मांड एवं प्राणियों का शरीर परिवर्तनशील प्रत्येक क्षण होता है। लेकिन मूल प्रकृति अविकारिणी है। मूल प्रकृति के तीन तत्व शतरंज और तब भी बिना विकार के हैं।प्रकृति इसीलिए नाशवान नहीं है बल्कि प्रकृति के तीन तत्व सत ,रज और तम से बना जगत नाशवान है। प्रकृति शब्द की उत्पत्ति से ही उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
प्र अर्थात जो पूर्व से है।
कृति अर्थात जो संरचना है।
इसलिए प्रकृति का अर्थ हुआ कि जो पहले से ही बनी है। अर्थात इस जगत के उत्पन्न होने से पूर्व से ही बनी है। यहां पूर्व का तात्पर्य भी किसी काल गणना से बांधना नहीं है बल्कि वह अनादि है। इसी सिद्धांत के अनुसार प्रभू शब्द का संधि विच्छेद करने पर प्रभू के संबंध में कहा जा सकता है कि वह भी पूर्व से जो विद्यमान रहता है उसको प्रभु कहते हैं।
लेकिन ध्यान रहे जीव पुरुष और परमात्मा पुरुष न किसी की प्रकृति उपादान कारण और ना ही किसी का कार्य हैं। वे तो सदैव से हैं और सदैव रहेंगे।
सत शुद्ध है। रज मध्यम स्तर का है ।और तम जाड्य है।
रज और तम दोनों की प्रधानता होने के कारण जीव के स्थूल शरीर एवं ब्रह्मांड में जड़ता या मूर्खता अर्थात अपराध लूट ,हत्या, बलात्कार, चोरी ,डकैती तम और रज की प्रधानता के कारण होती हैं। तम का अर्थ यहां अंधकार से भी है ।जब बुद्धि पर अंधकार का पर्दा पड़ जाएगा तो वह उचित- अनुचित का भेद नहीं कर पाएगी। पाप में संलिप्त जीव हो जाएगा। परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि
इन तीनों के साम्यता से मिलने के पश्चात प्रकृति बनती है। सांख्य दर्शन में सत ,रज, तम तीन तत्व कहे जाते हैं।
रजोगुण और तमोगुण की अधिकता होती हैजीव के शरीर में। सत, रज और तम प्रकृति के जो तीन तत्व हैं, और प्रकृति जड़ है। इसलिए उसके तीन तत्व भी जड़ हैं । प्रकृति में अंधकार ही अंधकार है। इसी अंधकार के कारण अहंकार और अहंकार के कारण जीव किसी दूसरे जीव को कुछ समझता नहीं है। बस मैं ही हूं यह अहंकार है।
पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, पांच सूक्ष्म भूत ,बुद्धि, मन और अहंकार का यह जो 18 का बंडल है यह सूक्ष्म शरीर है। इसी बंडल में पांच कर्मेंद्रियां क्रमश:हाथ-,पांव, वाणी, मल, मूत्र।
पांच ज्ञानेंद्रियां नाक, कान, आंख, रसना , त्वचा,
पांच सूक्ष्म भूत अर्थात 5 तन्मात्राएं, मन ,बुद्धि और अहंकार होते हैं।
जब 18 तत्वों से मिलकर सूक्ष्म शरीर बन जाते हैं। सूक्ष्म भूतों से अथवा तन्मात्राओं से पांच स्थूल भूत बनते हैं। स्थूल भूत अग्नि ,जल ,वायु, आकाश, पृथ्वी के बनते ही स्थूल शरीर दिखाई देने लगता है। 18 तत्वों से बना सूक्ष्म शरीर दिखाई नहीं देता। स्थूल भूत दिखाई देता है।
इस प्रकार स्थूल शरीर में 24 तत्व हो जाते हैं।
जब इसके साथ जीवात्मा का सन्योग होता है तो जीवात्मा के स्वाभाविक गुण चेतना आ जाती है।
बुद्धि निर्णय लेती है ।मन से विचार करते हैं तथा संकल्प -विकल्प होते हैं। संस्कार भी मन के साथ जाते हैं ।अहंकार अपने अस्तित्व के संबंध में बताता है। अनुभूति कराता है ।वही अहंकार है। जो “मैं “हूं का आभास कराता है।
महर्षि दयानंद के शिष्य थे पंडित भीमसेन इटावा के रहने वाले जो पौराणिक थे। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश जैसे ग्रंथों में बहुत गड़बड़ की है और प्रक्षेप लगाएं।
यथा वर्तमान में भी सत्यार्थ प्रकाश में 17 तत्व सूक्ष्म शरीर के बताए गए हैं जबकि होते हैं अठ्ठारह।
सांख्य दर्शन में बुद्धि, अहंकार और मन तीन तत्व हैं।
मन और चित्त एक ही होता है।
मन संकल्प विकल्प के लिए है। तथा चित्त पुरानी स्मृतियों को उठाने के लिए है।
इसलिए बहुत से लोगों को भ्रांति हो जाती है । वो अंतःकरण चतुष्टय कह देते हैं ।अर्थात मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार।
जबकि अंतःकरण चतुष्टय केवल कहने के लिए है। क्योंकि पतंजलि ऋषि के योग दर्शन में चित्त और मन एक ही वस्तु हैं। एक ही वस्तु के दो नाम हैं।
जैसे “योगश्चित्तवृत्ति निरोध:”कहा गया है । अर्थात चित्त की वृत्तियों का रोकना ही योग है। महर्षि पतंजलि इसको इस प्रकार कहते हैं।
भाष्यकार महर्षि व्यास जी ने भाष्य में मन और चित्त दोनों को एक ही लिखा है।
स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर तीन प्रकार के होते हैं। स्थूल शरीर जो दिखने वाला है। सूक्ष्म शरीर जो दिखता नहीं है । सांख्य दर्शन में सूक्ष्म शरीर को लिंग शरीर भी कहते हैं। कपिल मुनि जी का सूत्र है।लेकिन यह सूक्ष्म शरीर भी दो प्रकार का होता है। एक भौतिक दूसरा अभौतिक।
भौतिक शरीर सूक्ष्म भूतों से बना जो मुक्ति में साथ नहीं रहता।
अभौतिक शरीर जीव के स्वाभाविक गुण हैं जो मुक्ति में भी साथ रहते हैं। इन्हीं स्वाभाविक गुणों के कारण जीव मुक्ति में आनंद प्राप्त करता है।
तीसरा कारण शरीर है। जिनके कारण से यह शरीर पैदा होता है। अर्थात जो इस शरीर के मेटेरियल हैं या सामग्री हैं। जिस मेटेरियल का यह शरीर प्रोडक्ट है।
यह कारण शरीर सुषुप्ति होती है। सभी जीवो में यह प्रकृति रूप है।
अभौतिक शरीर के जो 24 स्वाभाविक गुण हैं, और जो मुक्ति में भी साथ रहते हैं । वे निम्न प्रकार हैं।
1 बल 2 पराक्रम ,3 आकर्षण ,4 प्रेरणा ,5 गति, 6 भाषण ,7 विवेचन, 8 क्रिया, 9 उत्साह,10 स्मरण ,11 निश्चय ,12 इच्छा, 13 प्रेम, 14 द्वेष,15 संयोग ,16विभाग ,17संयोजक, 18 विभाजक ,19 श्रवण, 20 स्पर्शन ,21 दर्शन 22 स्वादन,23 गंध ग्रहण, 24 ज्ञान।
इसी को संकल्पिक शरीर भी कहते हैं। क्योंकि जब जीव मुक्ति में किसी को सुनना चाहता है, तो कान, बोलना चाहता है पूजा मुख,किसी गंध का ग्रहण करना चाहता है तो नाक, किसी को देखना चाहता है तो आंख प्राप्त हो जाती हैं।वह संकल्प करता है और संकल्प से ही उसको वही साधन अथवा वस्तु उपलब्ध हो जाती है। इसलिए संकल्पिक शरीर कहा गया।
अब प्रश्न उठता है कि 5 तन्मात्राएं तम कौन-कौन सी होती हैं।
रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श।
इन्हीं से पृथ्वी, जल ,अग्नि, वायु, और आकाश की उत्पत्ति होती है।
वायु और आकाश सूक्ष्म भूतों की अपेक्षा स्थूल होते हैं इसलिए इनको स्थूल भूतों में रखा गया है।
अब एक और प्रश्न उत्पन्न होता है कि शरीर के साथ इंद्रिया चली जाएंगी तो मुक्ति काल में जीव कैसे देखेगा, सुनेगा अथवा बिना इंद्रियों के कैसे आनंद लेगा?
इसको समझने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि
इंद्रियों दो प्रकार की होती है एक बाह्य इंद्रियां दूसरी अतींद्रिया।
इंद्रियों के जो गोलक हैं जैसे आंख, नाक, कान आदि इंद्रिया जिन घेरों में अथवा गोलको में स्थित है वह गोलक कहे जाते हैं। य सभी गोलक शरीर के साथ चले जाएंगे। इन गोलको के ऊपर नाक, कान और आंख का बना हुआ भाग जो दिखाई पड़ता है वह बाहय इंद्री हैं। यह सभी स्थूल शरीर के साथ चली जाती है।
परंतु असली इंद्रियां सूक्ष्म शरीर के साथ जाती हैं जो अतींद्रिय कहीं जाती हैं।
शास्त्रों के अनुसार आत्मा एवं ईश्वर दोनों ही द्रव्य है। जिसमें गुण तथा क्रिया हो ,उसको द्रव्य कहा जाता है। आत्मा में गुण भी है और क्रिया भी है।
आत्मा के गुण 6 प्रकार के होते हैं, राग, द्वेष, सुख,दुख, ज्ञान और प्रयत्न।
ईश्वर में भी गुण होते हैं। दया, , परोपकार ,न्याय आदि ईश्वर के कर्म हैं। इसीलिए ईश्वर भी एक द्रव्य है।
इसके पश्चात अगले लेख में आत्मा पर विशेष लेख लिखा जाएगा तथा जीव के द्वारा धारित शरीर के विषय में गहनता से उल्लेख किया जाएगा।
क्योंकि इस विषय में बहुत सारे विद्वान साथियों एवं पाठकों की मांग काफी समय से चली आ रही है। समय अभाव के कारण बाद में लिखूंगा।