आजाद भारत में गांधी जी का अंतिम उपवास

आज 13 जनवरी है। आज के दिन ही 1948 में आजाद भारत में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बिड़ला हाउस जिसे अब गांधी स्मृति कहा जाता हैं में अपने जीवन का अंतिम उपवास किया। यह उपवास दिल्ली में मची मारकाट और अराजकता के खिलाफ गांधीजी का अनोखा अनशन था। इस उपवास की भारत और पूरी दुनिया में कई तरह से व्याख्या की जाती रही है, और आशा करता हूँ कि इस पर दुनियाभर में अनेक शोध होते रहेंगे। गांधीजी की इस देश से पार्थिव विदाई हुई है, एक विचार के रूप में गांधीजी को दुनिया कभी भी विदा नहीं होने देगी।
गांधीजी का यह उपवास इस मामले में अनोखा है कि उनके प्रायः जितने भी उपवास हुए वे गुलाम भारत में अंग्रेज सरकार के खिलाफ ही हुए। आखिर क्या वजह थी कि 78 साल के एक बूढ़े आदमी जिसको आधी दुनिया राष्ट्रपिता कहती थी अपने अंतिम समय में अपने ही लोगों के खिलाफ जिनकी मुक्ति के लिए उन्होंने सारा जीवन झोंक दिया था,अनशन करना पड़ा।
यह एक अप्रिय स्थिति होती है जब आप इस संभावना से जूझते हैं कि आपके जीवन का कार्य विफल रहा है। कल्पना कीजिए उस मोहनदास करमचंद गांधी की जिसने आपने अपना सारा जीवन सत्य, अहिंसा, अस्पृश्यता उन्मूलन और सांप्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए समर्पित कर दिया और देश के आजाद होते ही उनकी खुद की आंखों के सामने अहिंसा और सांप्रदायिक एकता को इतनी क्रूरता से खारिज कर दिया गया कि वे खुद से यह सवाल करने के लिए मजबूर हो गए कि क्या ये वही लोग हैं जो मेरी एक आवाज पर चल पड़ते थे तथा अंग्रेजों की लाठियां खाने को प्रस्तुत कर देते थे? मेरी अहिंसक फौज आज आपस में ही एक दूसरे को मारने पर उतारू है, तो फिर मेरे पास अपनी देह को दांव पर लगाने के अलावा और क्या विकल्प हो सकता है?
16 जून 1947 को गांधीजी ने अपनी प्रार्थना सभा में अपने इस दर्द को बयां करते हुए कहा कि एक समय था जब हर कोई मुझ में विश्वास करता था क्योंकि मैंने उन्हें अंग्रेजों का मुकाबला करने का रास्ता दिखाया था। उस समय अहिंसा के रास्ते से काम आसान दिख रहा था, इसलिए मेरी बहुत पूछ थी। उस समय किसी ने हमें एटम बम बनाना नहीं बताया था। यदि उस समय हमारे पास यह ज्ञान होता तो हम इसके द्वारा अंग्रेजों को मिटाने के बारे में गंभीरता से सोचते। चूंकि ऐसा कोई विकल्प उपलब्ध मौजूद नहीं था, इसलिए मेरी अहिंसा की बात देश ने मान ली और मेरा अधिकार प्रबल हो गया।
गांधीजी का जीवन ही ऐसा था कि अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे उन्हीं लड़ाइयों को लड़ते रहे, जो उन्होंने अपने पूरे जीवन में लड़ीं। वे पूरी जिंदगी इस दृढ़ विश्वास के साथ लड़ते रहे कि लोग उनकी बात सुनेंगे । लेकिन सच्चाई यह है कि वे गुलाम भारत में अपने सभी अभियानों में सफल होते है पर आजाद भारत में दिल्ली में शांति स्थापित करने में उन्हें अपनी सफलता संदिग्ध लगने लगती है। इसलिए वे अपने जीवन के अंतिम अनशन में जाने का फैसला करते हैं। और यह फैसला इसलिए करते हैं कि उसके पास अपने विश्वासों का पालन करने के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता है।
दिल्ली की हालत सुधर के बजाय बिगड़ती रही थी। उन्होंने कहा भी कि अगर दिल्ली हाथ से निकल गयी तो पूरा देश हाथ से निकल जायेगा और अगर देश हाथ से निकल गया तो दुनिया को बचाना लगभगअसंभव है। इसलिए वे 12 जनवरी 1948 को अनिश्चितकालीन उपवास पर जाने का फैसला कर लेते हैं। जब उन्होंने यह फैसला किया तो उनके पुत्र देवदास गांधी ने उनको चिट्ठी लिखकर कहा कि ”आप जो उपवास शुरू कर रहे हैं इसके खिलाफ मेरे पास कहने को काफी कुछ तर्क हैं। मेरी सबसे बड़ी चिंता यह है कि आखिर आपने अधीरता के आगे हथियार डाल दिए जबकि आप अनन्त धैर्य के प्रतीक माने जाते हैं। आप कभी धैर्य नहीं छोड़ते लेकिन इस उपवास से ऐसा लग रहा है कि आखिरकार आप अधीर हो गए हैं। आप को शायद इस बात का अन्दाजा नहीँ कि आपने अपने अथक और धैर्यपूर्ण परिश्रम से कितनी बड़ी सफलता अर्जित की हैं,और अन्ततः लाखों लोग धीरे धीरे यह समझने को वाध्य हुए कि वे क्या पागलपन कर रहे हैं। आपके परिश्रम ने लाखों लोगों के जीवन की रक्षा की है और लाखों जीवनों की रक्षा आगे भी आप कर सकते हैं। लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि आपका धैर्य जवाब दे चुका है आप अधीर हो गए हैं। मृत्यु को प्राप्त करके आप वह सब हासिल नहीं कर सकते जो अपने जीवन को बचाकर आप कर सकते हैं। इसलिए मैं आपसे अनुरोध करूँगा कि आप मेरी बात पर विचार करें और उपवास का ख्याल छोड़ दें।
12 जनवरी को गांधीजी ने अपने पुत्र देवदास को जवाबी पत्र में लिखा कि मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि उपवास पर जाने का मेरा यह फैसला जल्दबाजी में लिया गया है। यह जो जल्दबाजी दिख रही है इसके पीछे मेरा चार दिनों का आत्मशोधन और प्रार्थना है। मुझे ईश्वर द्वारा ही यह आज्ञा दी गई है।इसलिए इसे हड़बड़ी में किया गया फैसला नहीं माना जा सकता। मुझे दरअसल इस उपवास की उपयुक्तता के विरुद्ध कोई तर्क सुनने की जरूरत नहीं। आप मेरे मित्र हैं और मेरे बहुत बड़े शुभचिंतक भी हैं। आपकी चिंता जायज है और मैं इसका सम्मान करता हूँ।
13 जनवरी 1948 को गांधीजी अनिश्चितकालीन उपवास पर चले जाते हैं। एक 78 साल का बूढा आदमी उपवास कर रहा था जिसकी देह नोआखाली, कलकत्ता और बिहार में पैदल पैदल चलते हुए पक चुकी थी, और पूरी दुनिया में चिंता की लहर फैल जाती है। इस बार पूरी दुनिया को लगा कि गांधीजी शायद इस उपवास से उबर नहीं पाएंगे। उपवास 6 दिन चला। 17 जनवरी को सभी संबंधित पक्षों के प्रतिनिधियों ने गांधीजी के सामने एक संकल्प पत्र रखा और कहा कि हम दिल्ली में अमन कायम करेंगे। आप उपवास तोड़ दीजिए, आपकी जान कीमती है। 18 जनवरी 1948 को गांधी ने इस संकल्प पत्र को स्वीकार किया औऱ अपना अनशन तोड़ दिया।
Gandhi Darshan – गांधी दर्शन
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