(तीसरी किस्त)
प्रो राजकुमार जैन
हरिपुरा में सुभाषचंद्र बोस के निर्विरोध कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के बाद 1939 में त्रिपुरी में कांग्रेस का अगला अधिवेशन हुआ। उस समय यूरोप में युद्ध के बादल मँडरा रहे थे। सुभाषचंद्र बोस ने दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष पद पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी।
कांग्रेस के अंदर उस समय वामपंथी बनाम दक्षिणपंथी गुटों का संघर्ष चल रहा था। सुभाष बोस को लग रहा था कि कांग्रेस का दक्षिणपंथी खेमा अंग्रेज़ी हुकूमत के साथ कोई समझौता न कर ले। वो चाहते थे कि कांग्रेस तुरंत ही ब्रिटिश सरकार को अंतिम सूचना देकर छह माह के अंदर स्वाधीनता की माँग करे और साथ ही राष्ट्रीय संघर्ष की तैयारी भी शुरू कर दे। सुभाष बाबू को लगता था कि 1935 के एक्ट के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार की फैडरल स्कीम को गुपचुप तरीके से सरदार पटेल एवं उनके समर्थक स्वीकार करने का प्रयत्न कर रहे हैं। उसका विरोध करने के लिए भी उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनना चाहिए। उनको लगता था कि फैडरल स्कीम में बननेवाले मंत्रियों की सूची भी बन गयी है।
गाँधीजी सुभाष बोस के पुन: कांग्रेस अध्यक्ष बनने के खिलाफ़ थे। सरदार पटेल के साथ रूढ़िवादी कांग्रेसी नेता भी सुभाष को दोबारा अध्यक्ष देखना नहीं चाहते थे। गाँधीजी चाहते थे कि मौलाना आज़ाद अध्यक्ष बन जाएँ। पट्टाभि सीतारमैया के नाम पर भी विचार विमर्श हुआ। गाँधीजी ने सोशलिस्ट नेता आचार्य नरेन्द्रदेव को भी अध्यक्ष बनाने का सुझाव दिया। परंतु जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल को यह सुझाव स्वीकार नहीं था।
एक तरफ़ गाँधीजी ने आचार्य नरेन्द्रदेव को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का सुझाव दिया, वहीं सुभाष बाबू ने भी कहा कि अगर आचार्य नरेन्द्रदेव जैसे वामपंथी को अगर सर्वसम्मति से अध्यक्ष बना दिया जाता है तो मैं भी चुनाव से हट जाऊँगा।
गाँधीजी शुरू में सीतारमैया को अध्यक्ष बनाने के लिए इच्छुक नहीं थे। वे जवाहरलाल नेहरू या आचार्य नरेन्द्रदेव को बनाना चाहते थे। इस बात को खुद नेहरू जी ने ‘नेशनल हेराल्ड’ में लिखे अपने लेख में कबूल किया कि मेरे सामने गांधीजी ने कई बार सोशलिस्ट को अध्यक्ष बनाने की इच्छा ज़ाहिर की परंतु मैंने ही इसका विरोध किया। गाँधीजी ने कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में भी पुन: आचार्य जी को अध्यक्ष बनाने का सुझाव दिया, परंतु जवाहरलाल ने फिर उसका विरोध किया। जवाहरलाल जी ने कहा कि मैं इस वक्त किसी समाजवादी को अध्यक्ष बनाने का पक्षधर नहीं हूँ। क्योंकि इस रेडिकल परिवर्तन से संगठनात्मक रूप से कोई परेशानी उत्पन्न हो सकती है। आखिर में गाँधीजी की इच्छानुसार पट्टाभि सीतारमैया अध्यक्ष पद के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार बन गए।
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी इस संबंध में निर्णय नहीं कर पा रही थी कि सुभाष बाबू का समर्थन किया जाए या नहीं। सुभाष बाबू के लड़ाकू व्यक्तित्व के कारण, सोशलिस्ट युवा नेता और कार्यकर्ता उनके प्रति आकर्षित थे। आचार्य नरेन्द्रदेव का समर्थन भी सुभाष बाबू को था। सुभाष बाबू ने सोशलिस्ट नेताओं एस.एम. जोशी, नानासाहब गोरे इत्यादि को पत्र भेजकर समर्थन करने को कहा। सोशलिस्ट, सुभाष बोस तथा नेहरू जी दोनों को सोशलिस्ट मानते थे तथा उनकी नज़र में दोनों का एकसाथ होना वामपंथी अभियान के लिए ज़रूरी था। परंतु नेहरू जी ने अपना समर्थन सीतारमैय्या को दे दिया।
आखि़र में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने सुभाष बोस के पक्ष में वोट डालकर उनकी जीत को सुनिश्चित करने का निर्णय ले लिया। सोशलिस्टों ने सुभाष बाबू का समर्थन कई कारणों से किया। सुभाष की व्यक्तिगत लोकप्रियता, ब्रिटिश शासन जो कि फैडरल स्कीम को लागू करने का प्रयास कर रहा था उसको रोकने के लिए, एक मजबूत नेता की ज़रूरत महसूस कर रहे थे, जो कि सुभाष बोस में दिख रहा था। कांग्रेसियों द्वारा फैडरल स्कीम में मंत्री-पद स्वीकार करने के विरुद्ध सुभाष बाबू की नीति भी एक कारण थी।
डॉ. राममनोहर लोहिया सुभाष बाबू का समर्थन करने को तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि केवल महात्मा गाँधी के नेतृत्व में ही जन सत्याग्रह चलाया जा सकता है। हमको किसी भी ऐसी नीति का समर्थन नहीं करना चाहिए जो कांग्रेस में विभाजन करती हो। डॉ. लोहिया की मान्यता थी कि सुभाष बाबू को कुछ ऐसा ढंग निकालना चाहिए था जिससे कम से कम वे गाँधीजी से लड़ाई मोल न लेते। तब भी हमारा यह फैसला था और शायद अब भी रहे कि गाँधीजी से लड़ करके कुछ हासिल करना मुश्किल है।
डॉ. लोहिया ने गाँधी-सुभाष संघर्ष में अपने आपको तथा गाँधीजी तक को कुछ हद तक जिम्मेदार माना है, इसका मुख्य कारण इंसान का ‘घमंड’। डॉ. लोहिया लिखते हैं कि “जब वह अवस्था पैदा हो गयी थी (त्रिपुरी चुनाव) तब हम अपनी तरफ से जाते और दो तीन बार मिलकर सुभाष बाबू से कम से कम अपनी बात कहते। लेकिन हमको भी घमंड था। अब अगर फिर से वो बात हो तो शायद हम यह कहें कि घमंडी न करके, उनके यहाँ जाकर उनको बोले कि देखिए आप यह कर रहे है ऐसा नहीं करना चाहिए। इसका मतलब होता है कि जब कहोगे तो थोड़ा-सा कहना अगले का भी मानना पड़ेगा कि हम भी आपका इतना मानते हैं आप भी इतना मानो तो काम चले। लेकिन राजनीति में सिद्धांत के साथ-साथ सबसे बड़ा दोष होता है आदमी का दोष। हर आदमी एक सिद्धांत का वाहक बन जाता है। फिर उसमें थोड़ी शान का भी सवाल आ जाता है और उसे कितना भी रोको, वह खत्म नहीं होता।”
डॉ. लोहिया गाँधी जी को भी इसका दोषी मानते हुए मुहम्मद अली जिन्ना का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि गाँधीजी उनको समझाने के लिए तो चले जाते हैं परंतु सुभाष को नहीं।
डॉ. लोहिया के शब्दों में हमारी बात छोड़ दो, खुद गाँधीजी के लिए भी हम समझते हैं यह सवाल था। चाहे वे चले जाते थे जिन्ना के यहाँ, दिखाने के लिए, लेकिन दरअसल यह रहता है। जब कोई भी आदमी किसी विचार का वाहक बन जाता है, तो उसके लिए इतना आसान नहीं रहता कि वह जाए दर-दर घर-घर। लेकिन सुभाष वाले मामले में हम सोचते हैं कि शायद फिर से अगर हो तो चाहे अपमान सहते हुए भी हम उनके (सुभाष) यहाँ एक-दो दफे जाएँ, अपनी बात कहें।
डॉ. लोहिया ने अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने जब फैसला कर लिया कि वे सुभाष बाबू का समर्थन करेंगे लेकिन मेरे जैसे– मैं अकेला था या मेरे जैसे शायद और रहे होंगे– लोगों ने तय किया कि क्या हम तैयार है। गाँधीजी के खिलाफ़ जाने के लिए क्योंकि कोई भी काम करना तो आखिर तक उसको सोच लेना चाहिए कि कहाँ तक जा सकते हो….. मैंने अपने दोस्तों से कहा था कि देखो तुम यह क्या कर रहे हो? बिना सोचे कदम उठा रहे हो। आगे चल करके लड़ाई हो सकती है। उस वक़्त क्या तुम तैयार रहोगे सुभाष बाबू का साथ देने के लिए।
मैंने तो खैर वोट नहीं दी थी। शाम को जब सुना कि हमारे सब आदमियों ने तो वोट डाला और नासमझी में वोट डाला तो बुरा भी लगा कि आगे चलकर सुभाष बाबू को दगा देंगे….. हमारा फैसला शुरू से यह था कि हम किसी का साथ न देंगे। जब वोट पड़ने का मौका था तब से हमने यह कह करके अलगाव कर लिया था कि गाँधीजी के कारण हम सुभाष बाबू का साथ नहीं देंगे। हमारा यह ऐलान था बिल्कुल साफ कि हमको कांग्रेस की वर्किंग कमेटी पसंद नहीं है इसलिए हम पट्टभि का भी साथ नहीं देंगे हम तो अलग ही रहेंगे।
दायें से बायें : सुभाष बोस, जयप्रकाश नारायण और यूसुफ मेहर अली
सुभाष बोस की उम्मीदवारी घोषित हो जाने के बाद भी जवाहरलाल नेहरू की कोई सार्वजनिक प्रतिक्रिया नहीं आयी थी। डॉ. लोहिया इसको जानने के लिए बेहद उत्सुक थे। जवाहरलाल जी ने कानपुर में दिये अपने भाषण में सुभाष बोस की उम्मीदवारी का विरोध किया, उस पर डॉ. लोहिया ने 22 मई 1939 को कलकत्ता से जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर कहा कि मैं फरवर्ड ब्लाक (सुभाष) के बारे में आपकी चुप्पी को देखकर उलझन में पड़ा था, परंतु आज, कानपुर में आपके भाषण की रिपोर्ट पढ़कर कुछ संतोष तथा गर्व महसूस हुआ। मुझे नहीं पता कि नेशनल फ्रन्ट को इसके बारे में क्या कहना है? मैं पत्र के साथ ही अपने दो लेख भेज रहा हूँ। एक गाँधी सेवा संघ तथा दूसरा फारवर्ड ब्लाक के बारे में, मुझे नहीं पता कि इन लेखों में सोशलिस्ट जुमलों और नारों से कितना अपने आप को दूर रख सका हूँ।
29 जनवरी 1938 को सुभाष ने सोशलिस्टों के मज़बूत समर्थन तथा अन्य समर्थकों के सहयोग से चुनाव जीत लिया। मतदान में सुभाष बाबू को 1580 वोट मिले तथा सीतारमैया को 1377 वोट।
सीतारमैया की हार पर गाँधीजी ने कहा कि “बोस की विजय मेरी पराजय है। सीतारमैया से ज़्यादा मेरी हार है, क्योंकि मैंने ही उनको कहा था कि आपको चुनाव मैदान से हटना नहीं है।” गाँधीजी ने आगे कहा कि जो लोग कांग्रेस में रहकर बेचैनी महसूस करते है उन्हें किसी दुर्भावना के कारण नहीं बल्कि अपने विचारों, उद्देश्यों को प्रभावी रूप से अमली जामा पहनाने के लिए कांग्रेस से बाहर आ जाना चाहिए।
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं ने गाँधीजी के व्यक्तिगत हार संबंधी वक्तव्य पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा– “सुभाष बाबू की जीत गाँधी के प्रति दिखाया गया अविश्वास नहीं बल्कि कांग्रेस मंत्रिमंडलों तथा उसकी अधिकार-ग्रहण करने की भूमिका को लेकर उपजा असंतोष है। साम्राज्यशाही के विरोध में संघर्ष करने के लिए अब लोग उतावले हो गए है, इस बात का ही यह लक्षण है।” सोशलिस्टों ने ऐसा कहकर महात्मा गाँधी के मार्गदर्शन में मिले-जुले नेतृत्व की आवश्यकता पर जोर दिया था।
त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में प्रतिनिधि बहुत दुखी थे। अध्यक्ष चुने जाने के वक्त सुभाष बाबू बीमार थे। उधर गाँधीजी राजकोट चले गये थे। नौजवान सोशलिस्टों तथा प्रगतिशील तबकों ने गाँधीजी को इस संकटकाल में जब कांग्रेस में उथल-पुथल मच रही थी, राजकोट जाकर उपवास करने को बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण माना। सोशलिस्टों को गाँधीजी के द्वारा दिये गये वक्तव्य कि सीतारमैय्या की हार मेरी हार है, भी पसंद नहीं आया।
गाँधीजी द्वारा राजकोट जाकर अनशन करने को एक प्रकार का त्रिपुरी कांग्रेस के प्रतिनिधियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालने का दोषी भी गाँधीजी को माना जा रहा था। सोशलिस्टों को लग रहा था कि गाँधीजी को त्रिपुरी में होना चाहिए था। राजकोट का मसला बहुत छोटा था तथा रूढ़िवादी कांग्रेसियों को जो सुभाष को धमकी तथा त्यागने का कार्य कर रहे थे उनको रोकते। गाँधीजी अपने उपवास को ईश्वर का आदेश मानकर सही ठहरा रहे थे। सोशलिस्टों को लग रहा था कि गाँधी का राजकोट जाकर उपवास करना तथा मौन धारण करना, गाँधीजी के व्यक्तित्व के खिलाफ़ था।
हालाँकि अनशन आरंभ करने के बाद गाँधीजी ने एक वक्तव्य जारी करते हुए सुभाष बाबू जो कि उस समय कलकत्ता में बीमार पड़े हुए थे को कहा कि इलाज के लिए दी गयी सलाह को नज़रअंदाज़ न करें तथा कलकत्ता से ही त्रिपुरी सम्मेलन की कार्यवाही को दिशा-निर्देश दें। गाँधीजी ने आगे कहा कि मैंने त्रिपुरी जाने का भरसक प्रयत्न किया परंतु भगवान की इच्छा कुछ और थी।
गाँधीजी ने एक और वक्तव्य में राजकोट के अनशन के बारे में कहा मैं अपनी गलती को स्वीकार करता हूँ। अनशन की समाप्ति पर मैंने अपने आपको कहा कि अनशन पिछले सभी अनशनों से ज़्यादा सफल रहा, परंतु मुझे अब ऐसा लगता है कि यह हिंसा के दोष से भरा है।
जवाहरलाल जी ने सुभाष बाबू को दोबारा चुनाव लड़ने से रोकने का प्रयास किया था। 4 फरवरी 1939 को जवाहरलाल जी ने सुभाष बाबू को ख़त लिखकर उनकी आलोचना करते हुए कहा : आपकी क्या नीति है? सुभाष को उनकी अकर्मण्यता के लिए दोषी ठहराते हुए कहा कि तुमने कांग्रेस अध्यक्ष (हरिपुरा) रहते हुए पथ-प्रदर्शक अध्यक्ष न होकर एक स्पीकर के रूप में कार्य किया। आपके कार्यकाल में अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यालय का निरंतर ह्रास होता गया। जब संगठन के केंद्रीय कार्यालय की ओर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता थी तो केंद्र अकुशलतापूर्वक कार्य कर रहा था। मैंने कई वर्षों से अपने को अलग थलग रखा। मैं व्यक्ति के रूप में कार्य करता हूँ बिना किसी ग्रुप के या किसी दूसरे व्यक्ति के समर्थन के साथ। हालाँकि मैं प्रसन्न हूँ कि मुझे बहुत सारे लोगों का विश्वास प्राप्त है। जवाहरलाल जी ने पार्टी के इस आंतरिक संघर्ष में अपने आपको अलग रखा। सुभष बाबू को नेहरू जी की यह नीति नागवार गुज़री, उन्होंने जवाहर लाल को लिखा :
“एक तरफ तो तुम अपने आप को समाजवादी कहते हो, पक्का समाजवादी, एक समाजवादी कैसे व्यक्तिवादी हो सकता है। ये एक दूसरे के विरोधी है। जैसा कि तुम अपने आपको समझते हो। मेरी इस बात को झुठलाओ, समाजवाद कैसे तुम्हारे जैसे व्यक्तिवाद के रूप में अस्तित्व में रह सकता है मेरे लिए यह एक पहेली है। निर्दलीय का बिल्ला लगाकर आदमी सभी दलों में प्रसिद्ध तो हो सकता है, परंतु इसकी क्या कीमत? अगर कोई किसी सिद्धांत में आस्था रखता है तो उस विचार को अमली जामा पहराने के लिए उसे संघर्ष करना चाहिए। यह केवल पार्टी या संगठन के माध्यम से ही हो सकता है।” गाँधीजी की इस प्रतिक्रिया से कि सीतारमैया की हार मेरी हार है। यह मेरे (सुभाष) प्रति अविश्वास है इससे मुझे बहुत धक्का पहुँचा। उन्होंने जवाहरलाल से पूछा कि तुमने इस पर अपनी प्रतिक्रिया क्यों नहीं व्यक्त की, उन्होंने महात्मा गाँधी से क्यों नहीं इस पर विरोध प्रकट किया?
त्रिपुरी में चुनाव जीतने के बाद तथा गांधीजी की प्रतिक्रिया के बावजूद सुभाष बाबू ने कहा कि “मेरा हमेशा उद्देश्य होगा कि मैं गांधीजी का विश्वास प्राप्त कर सकूँ तथा मेरे लिए यह निश्चय ही एक त्रासदी होगी कि मैं भले ही और लोगों का विश्वास प्राप्त करने में सफल हो जाऊँ परंतु भारत के महानतम व्यक्ति (गांधी) का विश्वास मैं जीत सकूँ।