
हरियाणा के 18 सरकारी स्कूलों में 12वीं का रिजल्ट शून्य प्रतिशत रहा, जो राज्य प्रायोजित शैक्षिक विफलता का संकेत है। यह केवल छात्रों की असफलता नहीं, बल्कि पूरे शिक्षा तंत्र की नाकामी है — जिसमें शिक्षक नहीं, संसाधन नहीं और जवाबदेही भी नहीं। सरकार को पहले से इन स्कूलों की हालत पता थी, फिर भी कोई सुधार नहीं किया गया। यह स्थिति शिक्षा के अधिकार के साथ धोखा है और गरीब छात्रों के सपनों की हत्या है। अब सवाल पूछना जरूरी है — वरना यह ढांचा पूरी पीढ़ी को अंधेरे में धकेल देगा।
डॉ. सत्यवान सौरभ
हरियाणा के सरकारी स्कूलों से एक शर्मनाक और विचलित कर देने वाली खबर सामने आई है — 12वीं बोर्ड परीक्षा में राज्य के 18 स्कूलों का परिणाम शून्य प्रतिशत रहा। यानी पूरे स्कूल से एक भी छात्र पास नहीं हुआ। यह घटना महज कुछ छात्रों के फेल होने की बात नहीं है, बल्कि यह पूरे शिक्षा तंत्र की नंगेपन के साथ पोल खोलने वाली स्थिति है। यह सिर्फ रिजल्ट नहीं, एक पीढ़ी के सपनों की सामूहिक हत्या है।
जब शिक्षा नहीं, तो अधिकार कैसा?
हमारे संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया गया है। लेकिन जब किसी स्कूल से एक भी छात्र पास नहीं होता, तो यह सवाल उठता है कि क्या यह अधिकार महज़ दिखावा है? क्या हम बच्चों को सिर्फ स्कूल भेजने की खानापूरी कर रहे हैं, या वास्तव में उन्हें ज्ञान देने का प्रयास कर रहे हैं?
हरियाणा के इन 18 स्कूलों की हालत देखकर तो यही लगता है कि शिक्षा से अधिक ‘प्रबंधन’ पर ध्यान है। छात्र आए या न आए, पढ़े या न पढ़े, शिक्षक हों या नहीं — इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, बस आंकड़े सही दिखने चाहिए।
पहले से सूचीबद्ध “खराब स्कूल”, फिर भी कोई सुधार नहीं!
चौंकाने वाली बात यह है कि ये वही स्कूल हैं जिन्हें सरकार ने पहले से राज्य के 100 सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले स्कूलों की सूची में डाला था। इसका अर्थ है कि शासन-प्रशासन को पहले से इन स्कूलों की बदहाली का पता था। लेकिन कोई शिक्षक नहीं बढ़ाए गए, न प्रयोगशालाएं बनीं, न ही पुस्तकालयों का संचालन सुनिश्चित किया गया। कुछ स्कूलों में तो विज्ञान और गणित के शिक्षक ही नहीं हैं — तो फिर छात्र पास होंगे कैसे?
सरकारी स्कूल या सज़ा घर?
जिस विद्यालय में किताबें नहीं, अध्यापक नहीं, वातावरण नहीं — वहां बच्चों को भेजना शिक्षा नहीं, मानसिक शोषण है। आज कई सरकारी स्कूल सिर्फ ‘मिड डे मील’ वितरण केंद्र बनकर रह गए हैं। क्या यही उद्देश्य था इन विद्यालयों का? शिक्षा के नाम पर सिर्फ खाना और हाजिरी ली जा रही है, बाकी कुछ नहीं।
फेल छात्र नहीं, फेल सिस्टम है
इन छात्रों को फेल कहा जा सकता है, लेकिन वास्तव में फेल वह शासनिक व्यवस्था है, जो शिक्षा को प्राथमिकता देने का दावा करती है पर जमीनी स्तर पर कुछ नहीं करती। फेल वह नेतृत्व है, जो चुनावी रैलियों में शिक्षा की बात करता है लेकिन सत्ता में आने के बाद आंखें मूंद लेता है। फेल वह अफसरशाही है, जो AC कमरों से फाइलों में स्कूल चलाती है।
जब नेताओं के बच्चे विदेश में पढ़ें, तो आम बच्चों का क्या हक?
हरियाणा के कई बड़े नेताओं और अफसरों के बच्चे विदेश या महंगे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। वे सरकारी स्कूलों की हकीकत जानते हैं, तभी तो अपने बच्चों को वहाँ भेजने का साहस नहीं करते। लेकिन गरीबों के बच्चे जो विकल्पहीन हैं, उन्हें इस बदहाल व्यवस्था के हवाले छोड़ दिया जाता है। यह दोहरा मापदंड किसी लोकतांत्रिक समाज के लिए शर्मनाक है।
सिर्फ रिजल्ट खराब नहीं, भरोसा टूटा है
जब छात्र सालभर मेहनत करें, स्कूल जाएं, आशा करें कि वे कुछ बनेंगे — और बदले में उन्हें शिक्षक ही न मिले, पाठ्यक्रम पूरा न हो, तो उनके अंदर निराशा की दीवारें बन जाती हैं। शिक्षा सिर्फ रोजगार का साधन नहीं, आत्म-गौरव और आत्म-निर्भरता की कुंजी होती है। जब पूरा स्कूल फेल होता है, तो उसका अर्थ है कि हमने उन बच्चों का भरोसा तोड़ा है।
क्या सिर्फ मिड डे मील से चलेगा स्कूल?
आज कई सरकारी स्कूलों की पहचान सिर्फ मिड डे मील तक सीमित रह गई है। अधिकारी यह सुनिश्चित करने में लगे रहते हैं कि चावल कितना आया, दाल कितनी बंटी। लेकिन यह कोई नहीं देखता कि शिक्षा का क्या हाल है? क्लासरूम में क्या पढ़ाया गया? पाठ्यक्रम पूरा हुआ या नहीं? और सबसे जरूरी — शिक्षक आए भी या नहीं?
18 स्कूल नहीं, 18 चेतावनियाँ हैं ये
ये 18 स्कूल एक अलार्म बेल हैं — चेतावनी है कि अगर अब भी हमने सरकारी स्कूलों में सुधार नहीं किया, तो यह आंकड़ा 18 से 180 हो जाएगा। आज हिसार और झज्जर हैं, कल रोहतक, यमुनानगर, भिवानी होंगे। शिक्षा का ये ढांचा धीरे-धीरे खोखला हो रहा है, और हम मूक दर्शक बने हुए हैं।
समाधान क्या है?
1. स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति: अतिथि शिक्षकों के सहारे स्कूल नहीं चलाए जा सकते। योग्य, प्रशिक्षित और स्थायी शिक्षक ही शिक्षा की रीढ़ हैं।
2. स्वतंत्र शैक्षिक ऑडिट: हर जिले में स्कूलों की शैक्षिक गुणवत्ता की निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए — केवल आधारभूत ढांचे की नहीं, शिक्षण पद्धति और परिणामों की भी।
3. अभिभावक भागीदारी: स्कूलों को स्थानीय समुदाय और अभिभावकों के साथ जोड़ा जाए। जवाबदेही तभी बनेगी जब समाज जुड़ाव महसूस करेगा।
4. राजनीतिक इच्छाशक्ति: नेताओं को सिर्फ भाषण नहीं, एक्शन दिखाना होगा। शिक्षा पर खर्च को वास्तव में प्राथमिकता देनी होगी।
5. डिजिटल डिवाइड पर काम: जहां संसाधन की कमी है, वहां तकनीक से पूर्ति की जा सकती है — लेकिन उसका उपयोग सुनियोजित और प्रशिक्षित तरीके से हो।
सवाल पूछना ज़रूरी है
आज जब पूरा स्कूल फेल हो रहा है, तब क्या यह सवाल नहीं उठता कि उस स्कूल में शिक्षक क्यों नहीं थे? सरकार ने क्या किया? विभागीय अधिकारी किस बात की तनख्वाह ले रहे हैं?
अगर हम सवाल नहीं पूछेंगे, तो यही सिस्टम कल हमारे बच्चों को भी निगल जाएगा।
शिक्षा की हत्या पर चुप्पी नहीं चलेगी
हरियाणा जैसे राज्य, जो कृषि, खेल और सैन्य सेवा में अग्रणी हैं, वहाँ शिक्षा की यह हालत एक विडंबना है। अगर हम इस शिक्षा विनाश पर चुप रहेंगे, तो हमारी अगली पीढ़ियाँ हमें माफ नहीं करेंगी। जब नेता शिक्षा क्रांति की बात करें, तो उन्हें इन 18 स्कूलों का रिपोर्ट कार्ड दिखाना चाहिए।
यह शिक्षा का अधिकार नहीं, शिक्षा से धोखा है। यह छात्रों की विफलता नहीं, सिस्टम का अपराध है। अगर अब भी हमने आँखें मूंदी रखीं, तो अगली रिपोर्ट में यह संख्या और भयावह होगी। अब समय है — बोलने का, सवाल पूछने का, जवाब मांगने का।