बावन वसंत पार

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बावन वसंत पार
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राजेश बैरागी
जिंदगी की जद्दोजहद ऐसी रही कि बावन कोस चलने का पता ही नहीं चला। जीवन पथ चाहे जितना सीधा हो, उसपर चलने का परिश्रम तो करना ही पड़ता है। यदि सीधा न हो तो?तब परिश्रम बढ़ जाता है। ऐसा पथ अनुभवों की चलती-फिरती पाठशाला बन जाता है।बाल अवस्था को जीवन का सबसे सुंदर भाग माना गया है।रोते हुए को दुलारने वाले,भूख से पहले खाना खिलाने वाले और चाहे जितना ग़लत हो जाए, हमेशा दोष और दंड से परे रहने की अवस्था यही है। हालांकि कुछ अभागों को माता-पिता या निकटतम परिजनों की असमय मृत्यु से बाल काल भी कष्टमय हो जाता है। मेरी समझ में जीवन का स्वर्णकाल यौवन होता है जब हम हर बात के लिए खुदमुख्तार होते हैं। मैंने जवान होते ही घर की व्यवस्थाएं अपने हाथ में लीं और कुछ खराब व्यवस्थाओं को उसी दिन चलन से बाहर कर दिया। मुझे ऐसा लगा जैसे 1993 में मुलायम सिंह यादव ने के डी सिंह बाबू स्टेडियम में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही नकल अध्यादेश को खारिज कर दिया था। पिताजी के अनुभवी नेतृत्व में आगे बढ़ते हुए पीछे छूट रहे जीवन के आनंद को देखने का अवकाश नहीं था। परंतु जैसी जीवनचर्या होती है,हम उसी में दुखी या आनंदित रहने लगते हैं। जवानी व्यय होने के तत्काल बाद बुढ़ापा नहीं आता जैसे सर्दी बीतते गर्मी नहीं आती। यह अवस्था अधेड़ युवावस्था कहलाती है। यह जीवन की सबसे अहम अवस्था है जब जवानी का जोश थमने लगता है, बचपन आंखों से ओझल हो चुका होता है, जिम्मेदारियों का बोझ सिर को थोड़ा सा झुका देता है और कुछ चिंताएं मानस पटल पर दस्तक देने लगती हैं। ऐसे में अपना जन्मदिन भी विस्मृत होने लगता है। इसलिए आज सुबह सवेरे जब साले साहब ने फोन कर जन्मदिन की बधाई दी तो याद आया कि हम पैदा भी हुए थे और जीवन के बावन साल गुजार भी चुके हैं।

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