राम नाम सत्य, ॐ नाम सत्य है,चिता पर चिंतन,फिर लोटते समय घाट पर दावत कैसी ? फिर (तेरहवीं) रस्म पगड़ी पर दावत?फिर एक वर्ष पूर्ण होने पर वर्षोडी पर दावत?
पवन कुमार
परिवार में व्यक्ति का निधन, दुःख में डुबा परिवार। और अगर परिवार गरीब हो तो कफन काठी का इंतजाम भी बहुत मुश्किल हो जाता है,अब बीच में आती हैं हमारी प्रथाएं परिवार शोकाकुल है,पूरी तरह शोक में डूबा है,13 दिन बाद रस्म पगड़ी (तेरहवीं) है अब पूरा परिवार सब कुछ भूलकर इस उधेड़ बुन में लगा है कि कैसे होगी व्यवस्था इतने पंडित को देने ,इतने मेहमान हो जायेंगे ,इतने लोग गांव के होंगे ,इतना खर्च होगा।
अब पैसा कहां से आए? याद आता है साहूकार क्योंकि आप सब जानते हैं गरीबी में रिश्तेदार कम पहचानते हैं,साहूकार का सवाल गिरबी क्या रखोगे? अब क्या रखे जो भी संभव हो घर,जमीन गिरवी रखकर सब व्यवस्था करी जाती है।ये बात यहीं खत्म नहीं होती एक वर्ष पूर्ण होने पर आती है वर्षोंडी फिर वही दावतें दौर अब वही सब जो तेरहवीं (रस्म पगड़ी) में हुआ था सबको दावत जो पकवान तब बना था वही सब बनवाना है,
आप सब जानते हैं जो साहूकार के चुंगल में एक बार फंस जाए क्या गरीब व्यक्ति छुड़ा पाता है?
एक अमीर व्यक्ति के लिए ये व्यवस्था आसान है लेकिन क्या वहां दुःख नहीं है? कहीं युवा,कहीं वृद्ध, कहीं पुरुष , कहीं महिला,मौत निश्चित है एक दिन सभी को जाना है,किंतु जो जीवित है उसको कर्ज के बोझ से क्यों मारा जाए,क्या ये परंपरा बंद नहीं होनी चाहिए।
हमारे सनातन धर्म में 16 संस्कार है गर्भाधान,पुंसवन,सीमंतोन्नयम, जातकर्म,नामकरण,निष्क्रमण, अन्नप्राशन,चूड़ाकर्म,कर्णवेध, विद्यारंभ,उपनयन,वेदारंभ,केशांत,समावर्तन,विवाह संस्कार,एवं अंत्येष्टि, (अंतिम संस्कार) आचार्य लक्ष्मीकांत शास्त्री जी कहते हैं कि जब हमारे सनातन धर्म में 16 संस्कार है,
तो फिर तेरहवीं 17वा संस्कार कहां से आया,विद्वानों की माने तो तेरहवीं कोई संस्कार नहीं बल्कि मृत्यु से 13 दिन बाद आयोजित समारोह है ,जिसको पिंडदान सम्मेलन भी कहते हैं जिसमे 13 ब्राह्मणों को भोजन कराने से आत्मा को प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है साथ ही परिजन भी शोक से मुक्त होते हैं।
कहीं भी किसी धर्म ग्रंथ में हजारों लोगों का समारोह कर मृत्यु भोज का वर्णन नहीं है,सनातन धर्म में पहला संस्कार गर्भाधान,और अंतिम संस्कार अंतेष्टि संस्कार है।अब तेरहवीं (रस्म पगड़ी) कैसे संस्कार हुआ इसमें ये मृत्युभोज कहां से आया,मृत्युभोज अगर कुप्रथा कहा जाए तो गलत न होगा।पहले भी हमारे देश कई कुप्रथाएं थी उनका विरोध हुआ और समाप्त कि गई।
आज भी वही हो रहा है हमारी ये प्रथाएं हम पर इस कदर हावी है कि हम इनसे बाहर निकलना ही नहीं चाहते,कुछ लोग शुरुआत भी करते हैं तो उनकी बहुत निंदा होती है।
मैं शुरुआत करने वाले लोगों की सराहना करूंगा, और आज अपनी कलम के माध्यम से सभी सामाजिक संगठनों से अपील करूंगा कि सब मिलकर इसका विरोध करें।महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि मृतुभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है।
दुर्योधन द्वारा भगवान श्री कृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर भगवान श्री कृष्णा कहते हैं,”संप्रिति भोज्यानी आपदा भोज्यानि वा पुनः ” अर्थात जब खिलाने वाले का मन प्रश्न हो और खाने वाले का मन प्रश्न हो तभी भोजन कराना चाहिए।