प्रोफेसर राजकुमार जैन
दिल्ली, जिसमें मेरा सब कुछ है। कभी जिसका बाशिंदा होने का फख्र था, जो कुछ भी दुनियावी शक्ल में मुझे मिला सब दिल्ली की बदौलत। काफी हाऊस मे जा कर दोस्तों, साथियों से गप्पे लड़ाए बिना एक दिन भी रहा नहीं जाता था। पुलिस, लाठीचार्ज, अश्रुगैस, जेल, जलसे जुलूस, देर रात तक होने वाली सभाओं के भाषणों, चुनावी हार में उखड़ता हुआ तंबू तथा जीतने पर जय-जयकार,फूल-मालाओं से लदी गर्दन का सब सुख दिल्ली में ही पाया। पुरानी दिल्ली की चार दीवारी, फसील के सेठो के बच्चों के जैन सीनियर सेकेंडरी स्कूल में तालीम पाकर दिल्ली यूनिवर्सिटी के नामवर किरोड़ी मल कॉलेज का छात्र बनकर नई जिंदगी की शुरुआत की। 46 साल यूनिवर्सिटी के नॉर्थ कैंपस में पढ़ते पढ़ाते गुजरे। जिसमें 43 साल यूनिवर्सिटी के नॉर्थ कैंपस के हॉस्टल, तथा सरकारी क्वार्टर में बीते। उत्तरी दिल्ली की पहाड़ी (बोंटा) के नीचे 69 एकड़ में फैले, हरे भरे दरख्तों से घिरे तकरीबन 400 गज जमीन पर पुराने जमाने के एक मंजिलें, ऊंची छत वाले, आगे लान पीछे भी खाली जमीन तथा साथ ही एक बड़ा मैदान, सेंट स्टीफेंस कॉलेज तथा मेरे स्टाफ क्वार्टर की एक ही दीवार, बाई तरफ हिंदू कॉलेज, दिल्ली स्कूल आफ इकोनॉमिक्स, किरोड़ीमल कॉलेज, रामजस कॉलेज, सामने की तरफ लॉ फैकेल्टी, आर्ट फैकेल्टी की चौहद्दी में सुबह से लेकर शाम तक खिलखिलाते, चहकती नई पीढ़ी के लड़के लड़कियों की आवाजाही।अपनी नई किताब छप जाने या किसी मैग्जीन में लेख या वक्ता
के रूप में बुलाए जाने की फख्र के साथ चर्चा करते प्रोफेसर, मुख्तलिफ कॉलेजो, यूनिवर्सिटी के सभागार में वक्त वक्त पर गहन गंभीर विषयों पर चर्चा,बहस मुबाहसा, वैचारिक मुठभेड़, नेताओं और आलमी दुनिया के विद्वानों के भाषणों से लेकर कविता, गजल,शेर, शायरी, हिंदुस्तानी, कर्नाटक शास्त्रीय संगीत,की गायन वादन, नृत्य, नाटक से लेकर पंजाबी भगंड़े, पश्चिमी संगीत की धुन पर होने वाले राँकनरोल जमावड़े पर हजारों सुदबुध खोते, थिरकते लड़के लड़कियां वाले मंजर से लेकर यूनिवर्सिटी के शिक्षक एवं विद्यार्थियों के जुलूस, नारेबाजी, कभी प्रतिस्पर्धा की होड़ में आर्ट फैकल्टी के कन्वोकेशन हाल में विभिन्न संगठनों द्वारा आयोजित सभाओं में, कभी अटल बिहारी वाजपेई, ज्योति बसु, राजनारायण मधुलिमये, जॉर्ज फर्नांडिस, कांग्रेस के किसी मंत्री के भाषण में कितना हाल भरा, जोरदार भाषण किसका हुआ की चर्चा, कॉफी हाउस की मेज पर कॉफी, बड़े डोसे का आनंद लेते हुए दुनिया का कोई ऐसा मजमून नहीं था जिस पर चर्चा ना होती हो। नए से नए आधुनिक लिबास में बिन्दास, चहलकदमी, चहकते, मटरगश्ती। करते छात्र-छात्राएं, आंख मटक्का, से लेकर प्रेम की पींगो में मदमस्त , बेखबर, बेखौफ, नई नस्ल के मंजर देखने हुए दिल्ली यूनिवर्सिटी में उम्र के 65 साल गुजर गए। रिटायर्ड होकर अपने नए बसेरे सूरजमल विहार में रहने आया। नए-नए बने, रईसों की बस्ती का माहौल एकदम ही बदला मिला। बातचीत में हरदम दौलत,जायदाद, मकान, दुकान, फैक्ट्री कारोबार, नफा नुकसान, कैसा चल रहा है, मंदा है या थोड़ा उठान है, या फुर्सत मिलने पर अगला जन्म सुधारने के लिए धर्म ज्ञान, पूजा पाठ, का आलाप भी देखने को मिला। इस बस्ती की असली जंग कार पार्किंग हैं। नए-नए मॉडलों की भारी भरकम मोटर गाड़ियों में नये दौलतिये कान फाडू,आवाज करते फिल्मी गाने, अपनी ड्राइविंग महारथ को दिखाने के लिए तेज रफ्तार में होर्न बजाती इस नई पीढ़ी का नजारा भी देखने को मिला।
नयी बस्ती में एक सुख लगा कि घर के सामने छोटा पार्क तथा तीन तरफा मकान होने के करण साइड में भी पार्क, तथा चंद कदमों पर 6 एकड़ में हरा भरा पार्क मौजूद होने से सुकून मिला। यहां पर वर्ग संघर्ष भी देखने को मिला। जो पूरे मकान का मालिक है, उसकी ऐंठ अलग, जो फ्लोर का मालिक है वह दोयम दर्जे का तथा जो किराएदार है उसकी तो कोई गिनती ही नहीं।
जब मैं वहां पर आया घर के सामने नाम मात्र का पार्क था। तकरीबन उसको पार्किंग की शक्ल में बदलने की शुरुआत हो चुकी थी। गेट में अंदर खड़ी कार देखने को मिली थी। बस लोहे की ग्रिल टूटना बाकी था, कारों का काफिला पार्क को पार्किंग स्थल में बदल देता। यही हाल बगल के पार्क का था वहां तो काफी दिनों तक पार्किंग बनी भी रही एक जागरूक बाशिंदे की लिखा पढ़ी ने मजबूरन पार्क के बड़े गेट पर ताला लगाना पड़ा।
आज मैंने रमाशंकर सिंह का वृक्ष और पक्षियों के मुतालिक लेख पढ़ा। मुझे अपने पार्क की याद आ गयी। हमारी बस्ती में एक दंपति, विनय तिवारी तथा उनकी पत्नी मीनाक्षी तिवारी में दरख्तों लताओं, फूलों के प्रति लगाव ममता, उसके रखरखाव में अपनी औलाद जैसा जज्बा देखने को मिला। यूनिवर्सिटी से आकर मैंनें सरकारी माली से कहा कुछ पेड़ मुझे खरीदने हैं, जो यहां लगाने हैं। उसने तुरंत हामी भर ली और कहा कि मेरी जानकारी की नर्सरी है, वहां से खरीदवा दूंगां। मैं वहां से पेड़ खरीद कर लाया। मैंने सोचा था कि माली उसको लगवाने तथा देखभाल करने में मदद करेगा। पर उसका साथ खरीदने तक ही सीमित था। पेड़ लगाने और उनकी परवरिश का काम तिवारी दंपति ने अपने जिम्मे ले लिया। हर पेड़ पौधे को पानी, खाद, कटाई, छटाई करने में तिवारी दंपति लगे रहते। उसकै बाद उनके बड़े भाई भी हाथ बटांने लगे। एक भद्र किराएदार भी आए थे, वह भी देर रात तक पौधों को पानी दिया करते थे। फिर फैसला हुआ कि पार्ट टाइम माली को रख लेते हैं, एक माली रक्खा गया, तय हुआ कि हर महीने ₹200 जिनके घर के सामने पार्क है, वे चंदा देंगे, परंतु कई बड़ी कार वालों ने कहा यह तो सरकारी जिम्मेदारी है, हम क्यों पैसा दें। सबसे बड़ी तकलीफ इस बात की है कि आसपास में हरे-भरे दरख्तों को सरकारी माली को पैसे देकर उसकी जड़ों में तेजाब डालकर, सुखाकर अपनी कार पार्किंग बनाने का काम भी होता है। मेरे घर के बगल वाले पार्क में एक सजातीय धनपशु ने एक ऐसा हरा भरा पेड़ जो मेरी नजर में आसपास कहीं नहीं था, पैसे देकर कटवा दिया। मैं दिल्ली से बाहर था। सहसा एक दिन मैंने अपने घर की खिड़की से झांक कर देखा तो वह पेड़ नदारद था। बड़ी तकलीफ हुई, मेरी जानकारी में होता तो वह हो ही नहीं सकता था। बाद में पता चला कि वह शख्स बर्बाद तथा भंयकर बीमार होकर, मकान बेचकर जाने को मजबूर हुआ।
अपनी बस्ती के प्रवेश द्वार पर लोहे का बना एक बहुत छोटा सा डिब्बा नुमा सिक्योरिटी गार्ड के बैठने के लिए एक कक्ष बना हुआ है, तपती गर्मी में उसमें बैठना तो दूर उसके पास खड़े होने से भी तपन महसूस होने लगती है। मैंनें पेड़ खरीदते वक्त एक बड़ा बरगद का पेड़ इसलिए खरीदा था कि गेट के पास लगा दूंगा, ताकि वह पेड़ घना छायादार होकर उसके नीचे न केवल सिक्योरिटी गार्ड अन्य घरेलू कामगार भी बैठकर गर्मी से राहत महसूस करेंगें। वैसा ही हुआ। उसको देखकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। कभी-कभी धमंड में कुप्पा होकर बतला भी देता हूं कि यह मैंने लगाया था।
आज सुबह ग्वालियर के अपने साथी रमाशंकर सिंह का पेड़ और पक्षियों के मुतालिक लेख पढ़ने को मिला। मेरे जीवन में तिवारी दंपत्ति तथा रमाशंकर सिंह जैसे प्रकृति प्रेमी बहुत कम देखने को मिले, मेरे कहने का यह मतलब हरगिज नहीं कि उनके अलावा और कोई नहीं है। मैं अक्सर रमा के घर लंबी अवधि तक डेरा डाले रखता हूं। उसके घर और उसके द्वारा स्थापित यूनिवर्सिटी के कैंपस की हरियाली, सौंदर्य, खुशबू की महक का सहज अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। अपना मकान बनाने के लिए उसने जब वह जमीन मुझे दिखाई थी,तब वह उबड़ खाबड़, दो-तीन कीकर के पेड़ को छोड़कर बंजर जमीन का टुकड़ा था। आज वह सैकड़ो फलफूल, छायादार पेड़ पौधों, लताओं का कुंज है। दूर दराज के परिंदों ने उसको अपना आशियाना बना लिया हैं। यह केवल रमा के प्रकृति के प्रति अदम्य, अटूट लगाव के कारण संभव हुआ। उसके घर और कैंपस के हर पेड़ की उसको मुकम्मल जानकारी रहती है। सुबह सैर के वक्त, परिंदों को पीने का पानी मयस्सर कराने के लिए लटकाए गए पानी के एक-एक पात्र देखता है कि पानी है या नहीं। पेड़ों को पानी, कटाई, छटाई का जो समर्पण उसमें है, वह बिलाशक एक नजीर है।
मैं जब जब भी ग्वालियर से आता था तो उसकी नर्सरी का कोई पौधा जरूर साथ होता था। परंतु अब तिवारी जी ने विनम्रता से कहा की पार्क में नए पेड़ लगाने की गुंजाइश नहीं है।
सूरज की तपिश से जान लेवा दहकती हुई, दूषित हवा पानी को देखते हुए अपनी प्यारी दिल्ली बेगानी लगने लगी है। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं,कि इसी तरह पेड़ों की कटाई होती रही, नये पेड़ नहीं लगे, ग्लेशियर पिघलते गए तो धरती इंसानों के जीने के लिए मयस्सर नहीं होगी। फिर भी अगर हम सचेत नहीं हुए तो इसका खामियाजा आज हमें, और अगली नस्लो को भोगना पड़ेगा।
ना चाहते हुए भी मेरी हालत जहाज के उस परिन्दे की तरह है, जो उड़ उड़ कर वापस जहाज पर आने के लिए मजबूर है।