निर्मला सीतारमण के लिए जरूर ही बहुत मुश्किल रहा होगा ये सबकुछ कर पाना। तेज दिमाग, तेज जबान और सियासी मौकों को भाँप लेने की गजब की सलाहियत होने के बावजूद नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए 2022-23 का बजट तैयार करना और उसमें तुक बैठाना कोई आसान काम नहीं था। आखिर, निर्मला सीतारमण तेजी से छलाँग लगाती एक ऐसी अर्थव्यवस्था की वित्तमंत्री हैं जो जल्दी ही 5 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी पर पहुँचने को है जबकि बजट जिस जनता-जनार्दन के लिए पेश किया जा रहा था,उसके अस्सी फीसद परिवारों की आमदनी लगातार दो साल से घटती जा रही है। इनमें से ज्यादातर परिवारों की बचत में गिरावट आयी है, बहुतों को कर्ज लेना पड़ा है ताकि जैसे-तैसे गुजारा चलता रहे। बेरोजगारी अपने चरम पर है और ऐसे मंजर के बीच उत्तर प्रदेश और बिहार में नौकरी पाने की होड़ में लगे नौजवान इतने आकुल हुए कि हफ्ते भर पहले फसाद पर उतारू होने को मजबूर हो गये। छोटे और मँझोले व्यापारी यानी कि निर्मला सीतारमण की पार्टी के परंपरागत सामाजिक आधार को बनानेवाला तबका फिलहाल बड़ी गिरी-पड़ी दशा में है। उसके ऊपर नोटबंदी, जीएसटी और कोरोनाबंदी की तिहरी मार पड़ी है। इसके अतिरिक्त, यह बजट किसानों की आमदनी दोगुनी करने के उस नगाड़ाफोड़ वादे के लिहाज से भी ‘गौरव का लम्हा’कहा जाएगा क्योंकि बजट पेश होने के बाद किसानों की आमदनी दोगुनी करने का सपना आगे खिसक कर बस सौ-दो सौ कोस ही दूर गया है- यानी अभी-अभी जिस नये अमृत-काल की खोज बजट में की गयी है, उसकी पहुँच से दूर।
भरी रोशनी में सब कुछ छिपा लेने की कला : वित्तमंत्री के सामने एक बड़ी चुनौती थी कि जो नन्हा सा गदोला हाथी इस सरकार ने पाल रखा है, उसे किसी तरह लोगों की नजरों से छिपा लिया जाए। अब इस हाथी का नाम मत पूछ लीजिएगा— नाम ना लेना ही बेहतर। यों तो दर-हकीकत सभी की आमदनी में गिरावट आयी है लेकिन भारत माता का यह विलक्षण लाल— यह गदोला हाथी, तमाम बाधाओं यानी कि देश को घेरनेवाली आर्थिक मंदी और महामारी की मार से पैदा कोरोनाबंदी से पार पाते हुए बहुत कुछ वैसी ही शान-ओ-शौकत और ठाठ-बाट के साथ अपना कारोबार चला रहा है, जैसा कि निर्मला सीतारमण ने अपने बजट-भाषण में हम सबके सामने जताना चाहा।
लेकिन अगर ऐसा हुआ है तो आखिर क्यों ना हो? जब महामारी ने देश के दरवाजे पर दस्तक दी तो इस छोटे गदोले हाथी का साम्राज्य 66,000 करोड़ रुपये का था। वित्तमंत्री ने जिस घड़ी बजट पेश किया उस घड़ी तक इस नन्हें हाथी के साम्राज्य का आकार बढ़कर 6.75 लाख करोड़ का हो चुका था। खुशियाँ मनाइए कि भारत माता के ताज में एक नगीना और जुड़ गया है— देश के शीर्ष 100 अरबपति परिवारों की आमदनी मिलकर निर्मला सीतारमण के हाथों पेश किये गये बजट की तुलना में डेढ़ गुना ज्यादा हो चली है। खैर, बड़ा करतब दिखा लेने के बावजूद आखिर जो पेश किया जा रहा था, वह था तो बजट ही। सो, कुछ छोटे-मोटे मामले सुलझाने को रह गये थे। ऐसा करना कोई हँसी का खेल नहीं लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं जो लफ्जों की महीन तुरपई वाले बजट के सहारे ना ढँका जा सके। महामारी ने जब इस देश के दरवाजे दस्तक नहीं दी थी तब भी मोदी सरकार देश के लोगों पर उतनी रकम खर्च कर रही थी जितनी वह चाहकर भी ना कमा सके। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को सरकार ने पहले ही लूट लिया था सो, वहाँ से कुछ और जुटा लेने की कोई गुंजाइश बची ही नहीं थी। वित्तमंत्री ने देश की संपत्ति बेचने की जी-तोड़ कोशिश की लेकिन उससे भी कुछ खास हाथ नहीं लगा। और हाँ, जो धनिकों के बीच महाधनी हैं, उन पर तो टैक्स बढ़ाने की बात वो सोच भी नहीं सकतीं- ऐसा करना तो नियम-विरुद्ध होता। ऐसे में रास्ता एक ही बचा था कि कुछ और उधारी जुटायी जाए और बढ़ी हुई उधारी से काम चलाया जाए। लेकिन, मुश्किल ये है कि पिछली उधारी पर चुकाया जा रहा सूद ही बढ़कर केंद्रीय सरकार के कुल खर्चे का पाँचवाँ हिस्सा (20 प्रतिशत) हो चुका है। वैसे तो इतनी ही मुश्किल काफी कही जाएगी लेकिन मुश्किल भी अकेले नहीं आती, उसके साथ उसके संगी-साथी होते हैं। सो, निर्मला सीतारमण को ये भी सोचना था कि वे एक ऐसे देश में बजट पेश कर रही हैं जहाँ ‘लोकतंत्र कुछ ज्यादा ही है’ और तिसपर सितम ये कि मीडिया अपने मुँह से ‘आजाद’ है। सो, वित्तमंत्री को फिक्र करनी थी कि लोगों के बीच संदेश अच्छा जाए, लोगों के जेहन में बजट को लेकर धारणा अच्छी बने। लोगों को मैनेज करना था, उनकी भावनाओं को सँभाले और पुचकारे रखना था। वित्तमंत्री को आखिर, आदेश का पालन करना था।
शुक्र कीजिए, उस शय का जिसे ‘इकोनॉमिक्स’ और ‘इंग्लिश’ कहा जाता है। अर्थशास्त्र और अँग्रेजी का आपस में याराना है, दोनों एक-साथ गजब की जोड़ी बनाते हैं। इकोनॉमिक्स और इंग्लिश की इस जोड़ी के सामने पहुँचकर जनता-जनार्दन विस्मय-विमुग्ध होकर हाथ जोड़ देती है,उसे अर्थव्यवस्था के विशाल मैदान के जो कील-काँटे रोजाना चुभा करते हैं, उसकी फिक्र अक्सर भूल जाती है। जनता-जनार्दन को बजट में दर्ज बातों का पता तो अपनी देश-भाषा में चलता है लेकिन ना तो बजट उस देश-भाषा में सोचा जाता है और ना ही बजट पर होनेवाली टीका (व्याख्या) ही जनता-जनार्दन की देश-भाषा में सोची जाती है। अँग्रेजी अर्थव्यवस्था का ज्ञान गढ़ती है। अँग्रेजी में गढ़े हुए इस ज्ञान का संचरण फिर देश-भाषा में लोगों तक होता है। अँग्रेजी आपका ध्यान रोजमर्रा की जिंदगी जी रहे आम लोगों की दुर्दशा से हटाकर अपनी नफासत की तरफ खींच लेती है। ऐसे में आमलोगों की रोजमर्रा की जिंदगी आपके सामने कुछ यों नुमायाँ होती है, जैसे मेहमानखाने में अपनी पहचान का पता देते सज-धज के साथ कोई अतिथि बैठा हो। पूरा सीन कुछ वैसा ही होता है मानो दावोस के सम्मेलन में उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं की कोई बैठकी हो। अर्थशास्त्र के कारखाने में ढले हुए ठोस जुमले रोजमर्रा की जिंदगी के सबसे दर्दनाक और अपमानजनक अनुभवों के ऊपर अपनी चमक की तह चढ़ाकर उसे ढंक देते हैं।
जयकारा लगानेवाले टहलुए साथ हैं फिर डर काहे का : निर्मला सीतारमण को मीडिया का आभारी होना चाहिए। केंद्रीय बजट जब से एक टेलीविजनी तमाशे में तब्दील हुआ है, अर्थव्यवस्था के बारे में खबरें जितनी ज्यादा बनती हैं— हमारा समझना उतना ही कम होता गया है। बनियों की एक छोटी सी टोली सरकार के डर या फिर जरूरत या फिर सरकार को लेकर अपनी विस्मय-विमुग्धता में पूरी अर्थव्यवस्था की नुमाइंगदी करने का जिम्मा अपने कंधे पर ओढ़े होती है। अर्थव्यवस्था की नुमाइंदगी का जिम्मा ओढ़े चलनेवाले व्यापारियों की इस छोटी टोली से भी छोटी एक और टोली होती है— यह अँग्रेजी बोलने में दक्ष अर्थशास्त्रियों की टोली है। इसमें ज्यादा सरकारी और दरबारी होते हैं या फिर किसी ना किसी व्यापारिक हित की नुमाइंदगी करनेवाले अर्थशास्त्री। यह टोली अर्थव्यवस्था के बारे में ज्ञान परोसती है। शुक्र मनाइए कि इस देश में लोगबाग उस चिड़िया से अनजान हैं जिसे कॉन्फिलिक्ट ऑफ इंटरेस्ट कहते हैं। यों समझिए कि दी गयी या अपना ली गयी जिम्मेदारी के तहत आपके हित कुछ और होते हैं लेकिन आपको काम कुछ ऐसा अंजाम देना होता है कि उन्हीं हितों की चीर-फाड़ करनी पड़े। अब ऐसे में आप क्या करेंगे, अपने हितों की चीर-फाड़ तो आप करने से रहे! यही दशा अर्थशास्त्रियों की इस छोटी सी टोली की है। टेलीविजन शो में सूत्रधार की कम और प्रवक्ता की भूमिका में ज्यादा नजर आनेवाले एंकर, जो अक्सर विषय से अनजान होते हैं या फिर जिन्होंने अपना ईमान बेच खाया होता है या फिर जो इन दोनों ही मोर्चे के महारथी होते हैं- जनता-जनार्दन और अर्थशास्त्र का ज्ञान बघारनेवाली अर्थशास्त्रियों की टोली के बीच किसी बिचौलिए की तरह काम करते हैं। इस तरह सत्ता का खेला चलाये रखने के लिए एक मजबूत रंगमंच तैयार हो जाता है।
इस रंगमंच पर बैठा कोई भी शख्स आपको नहीं बताता कि बजट-भाषण के बोल-बचन और बजट-दस्तावेज के तथ्यों के बीच कोई संगति नहीं है। रंगमंच पर बैठा कोई किरदार आपको नहीं बताता कि जो वादे पहले किये गये थे और जो कामकाज अभी सामने आया है उनके बीच तुक बैठाया ही नहीं जा सकता, कि जो दावे किये जा रहे हैं वे सच्चाई के एकदम असंगत पड़ते हैं। शायद आपको वो वाकया याद हो जब बजट-भाषण की तहरीर को एक दिन पहले पेश हुए आर्थिक-सर्वेक्षण के आँकड़े खुद ही झुठला रहे थे। शायद आपको याद हो कि वित्तमंत्री ने चुटकी बजाने सरीखी किस सहजता से महामारी के मद में दिये गये राहत पैकेज के आँकड़े गिना दिए, मानो यह कोई रोजमर्रा की चीज हो। क्या आपको याद है कि पूरे बजट-भाषण में किसानों की आमदनी इस साल तक दोगुना करने के वादे पर कैसी चुप्पी साध रखी गयी?
यही है सत्ता की रंगशाला : यहाँ बैठा हर किरदार वित्तमंत्री के हक में अपने को शर्मसार करने को तैयार बैठा है, वह अपनी रीढ़ की हड्डी किसी हद तक झुका सकता है ताकि अपने विवेक को धता बताकर बजट-भाषण में पैवस्त ढेर सारी मान्यताओं, सिद्धांतों और बेतान-तुक के तर्कों को सही ठहराने के लिए झटपट कोई दलील पेश कर सके। मानो, ये सब करना बजट के टेलीविजनी तमाशे के लिए बनी समय-सारणी (एयरटाइम) को पूरा करने के लिए काफी नहीं था, सो वित्तमंत्री ने अपने भाषण में कुछ और चमत्कार कर दिखाये— बजट-भाषण वाले उनके डिजिटली पिटारे से किसानों के लिए ड्रोन निकला, नये नामों से पुरानी स्कीम निकली, पुराने वादे नये जामे में नमूदार हुए, कुछ चमकदार कूटशब्द (एक्रोनिम्स) सामने आए— ये सारा कुछ आपके सामने यह कहकर परोसा गया कि देखिए, हमने इस बजट में इतना सब एकदम नया-नया कर दिखाया है।
लोकतंत्र में हमेशा से कुछ ना कुछ लोग होते ही हैं जो आपके कहे-बोले की मीन-मेख निकालते हैं, आपके आगे परेशानी खड़ी करते हैं। मिसाल के लिए, हमारे प्यारे रवीश कुमार को ही लीजिए या फिर अपनी तीखी जबान से आंकड़ों के मकड़जाल को भेदकर उनकी कचाई दिखाने वाले रथिन रॉय या फिर अर्थशास्त्रीय बनावटों के पोलेपन की परख की उस्ताद जयति घोष को ही याद करें। लेकिन, सत्ता का रंगमंच बनी-बनायी खीर में खटाई डालनेवाले ऐसे पराये और दिलजले लोगों की क्यों फिक्र करे— उसके पास अपने पाले के लोग हैं, ऐसे लोग जिनपर मीडिया का भरोसा है। आपको कुछ खास नहीं करना होता, बस दोपहर के भोजन के बाद की आलस में झपकी लेते हुए एक फोन कॉल मिलाना होता है और बस इतना भर करने से साँझ के समय टेलीविजन पर होनेवाली चर्चा का विषय आप बदल सकते हैं। और, याद रखिए कि इस चर्चा में आपको बड़े-बड़े विचारक बताएंगे कि नौकरी दिलाना सरकार का काम नहीं है, जो आपको अपने तर्कों के सहारे ये समझाने पर आमादा होंगे कि महाधनिकों पर टैक्स लगाने की सोच एक फालतू की सोच है।
मीडिया को आपने मैनेज कर लिया तो समझिए आपका आधा काम हो गया। बस अब आपके सामने राजनीतिक मैनेजमेंट का काम करना बाकी रह गया है। इस मोर्चे पर आपको कठिनाई नजर आएगी, लगेगा कि भारत में तो कुछ ‘ज्यादा ही लोकतंत्र’ है। मतदाता हैं और उन्हें अपने पाले में फुसलाये रखना है और चुनाव जीतना है। अब इस मोर्चे पर निर्मला सीतारमण का काम नफीस अंग्रेजी (गुड इंग्लिश) और खबीस अर्थशास्त्र (बैड इकोनॉमिक्स) से नहीं चलनेवाला।
टीवी चैनल यह मदद तो कर सकते हैं कि आपके हक में मतदाता को समझाएँ कि देख लो देशवासियो! हमने लद्दाख में चीनी सेना के छक्के छुड़ा दिये हैं लेकिन जो बेरोजगार है उसे आप कैसे समझाएंगे कि उसकी जेब पैसों से भरी हुई है या फिर चंद रोज में भरने ही वाली है? आप किसान को कैसे समझाएंगे कि उसकी आमदनी दोगुनी हो गयी है? लेकिन ठहरिए, बस आपको पता नहीं है, हमारे पास ऐसा कर दिखाने की एक चोखी सियासी रणनीति है और इस रणनीति से भी ज्यादा धारदार चुनावी मशीनरी है हमारे पास।
मिसाल के लिए उत्तर प्रदेश की तरफ नजर दौड़ाइए— वित्तमंत्री को किसानों या फिर बेरोजगार नौजवानों के हक में निश्चित ही कोई बड़ी घोषणा करने की जरूरत थी लेकिन चुनाव तो ऐसे मुद्दे पर हो ही नहीं रहे ना! यूपी के चुनाव में तो मिस्टर जिन्ना को मुद्दा बनाया गया है, अयोध्या और काशी के मंदिर को मुद्दा बनाया गया है, समाजवादी पार्टी के शासन के वक्त के ‘गुंडाराज’ को मुद्दा बनाया गया है। तो, तरीका एकदम सीधा-सादा है : हिन्दू-मुस्लिम के बीच के भेद और झगड़े की कड़ाह चढ़ाये रहिए, सांप्रदायिक वैमनस्य के तेजाब को गरमाकर खूब गाढ़ा कीजिए, बाहुबल-धनबल और मीडिया-बल के सहारे बड़े जतन के साथ जातियों का समीकरण बैठाइए और आपकी जो बैड इकोनॉमिक्स यानी खबीस अर्थशास्त्र है उसे अपनी नफीस अंग्रेजी से ढँके रहिए। और, इतने पर भी कहीं कोई बात बिगड़ती हुई लगे तो आपके पास इतने भर का राशन या इतनी भर नकदी तो है ही कि उसे लोगों के घर और बैंक खाते में पहुँचाकर उनका मुँह बंद कर दें। है ना बहुत मुश्किल इतना सारा कुछ करना? टीवी पर आनेवाले हर विशेषज्ञ की भाँति मैं भी निर्मला सीतारमण की क्षमता के आगे सिर नवाता हूँ कि उन्होंने इतने कठिन काम को अंजाम दिया। तो फिर, उन्होंने खालिस ‘मैनेजमेंट’ के काम को जो अंजाम दिया है उसके लिए कितने नंबर दिये जाएँ- मेरा खयाल है, 10 में 8 नंबर तो दिया ही जाना चाहिए।
(द प्रिंट से साभार)