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‘जंगे आजादी में पिता हीरालाल लोहिया प्रेसीडेंसी जेल कोलकाता में 2 साल से बंद थे और राममनोहर लोहिया जेल से निकलकर भूमिगत होकर कांग्रेस रेडियो चल रहे थे’। 

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‘महिला संत अक्का महादेवी जिन्होंने नग्न होकर पुरुषों के साथ अपनी आध्यात्मिक समानता का दावा किया था’।

रचनाकारों की नजर में
       (भाग- 5)
प्रोफेसर राजकुमार जैन
29 वर्ष के नौजवान रहे, राजेंद्र पुरी की मुलाकात डॉक्टर लोहिया से हुई थी। पुरी देश के प्रमुख कार्टूनिस्ट तथा पत्रकार थे। लोहिया के प्रति उनके मन में शुरू से ही आकर्षण हो गया था। “लोहिया की दो छवियां” लेख में उन्होंने लोहिया के ज्ञान, उनकी राजनीतिक रणनीति, नेहरू के साथ-साथ अपने साथ के संस्मरणो को भी लिपिबद्ध किया।
आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण के विचारों के दो भागों के संपादन, प्रकाशन के अतिरिक्त भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर द्वारा स्थापित “यंग इंडियन” के संपादक की जिम्मेदारी निभाने वाले, ब्रह्मानंद बिहार के धनबाद मे कोयला खदान मजदूरों के हितों के लिए संघर्ष करने के कारण कोयला माफियाओं से भी संघर्षरत रहे थे । प्रखर बुद्धिजीवी ब्रह्मानंद ने अपने लेख ” तीसरा खेमा बनाम गुटनिरपेक्षता” में विस्तार से लोहिया की विदेश नीति पर बहुत ही गहराई से विवेचना करते हुए लिखा कि डॉक्टर लोहिया ने 1950 में समाजवादी पार्टी के आठवें सम्मेलन में सर्वथा वैज्ञानिक नीति प्रस्तुत की थी।
भारतीय समाजवादी आंदोलन के संस्थापक सदस्य, प्रमुख अर्थशास्त्री, मुंबई से निकलने वाली सोशलिस्ट विचारों की पत्रिका के संपादक रहे रोहित दवे ने सोशलिस्ट इतिहास, विचारों पर गहन लेखन किया है। पुस्तक में प्रस्तुत लेख “मनुष्य- लोहिया की प्राथमिक चिंता” में लोहिया के आर्थिक दृष्टिकोण, पूंजीवाद और साम्यवाद के प्रति लोहिया का रवैया उनके इस दृढ़ विश्वास से प्रेरित था कि यह दर्शन यूरोप में एक विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज है। लोहिया के प्राथमिक सरोकार को स्पष्ट करते उन्होंने लिखा की – एक ऐसा मजबूत मनुष्य जो अपनी क्षमताओं और दुर्बलताओ, आकांक्षाओं और भय, योग्यता और कमजोरियों के साथ मौजूद हो और भागीदारीपूर्ण लोकतंत्र की पृष्ठभूमि में भी यही मांग है।
इस किताब में तरह तरह की छटाओं से लबरेज, कमलादेवी चट्टोपाध्याय का लेख “राममनोहर लोहिया” शामिल है। स्वतंत्रता सेनानी, कला, साहित्य, संस्कृति महिला हकूको की अलंबरदार सियासत में सोशलिस्ट यकीदें में विश्वास रखने की इस वीरांगना को महात्मा गांधी ने यूं ही “सुप्रीम रोमांटिक हीरोइन” का खिताब नहीं दिया था। 1930 में नमक कानून सत्याग्रह में भाग लेने के कारण कारावास भी भोगा। 1936 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के मेरठ में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन की अध्यक्षता भी इन्होंने की। हिंदुस्तान में कला के क्षेत्र में ‘नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा’ ‘संगीत नाटक एकेडमी’ ‘ऑल इंडिया हैंडीक्राफ्ट एसोसिएशन’ ‘सेंट्रल कॉटेज एंपोरियम’ जैसे राष्ट्र के गौरव संस्थानों की तामीर भी इनके द्वारा की गई। गरीबी और गुमनामी में पड़े जुलाहे, सुनार, बुनकर, कारीगर गांवो में इनके पैरों पर अपनी पगड़ी उतार कर रख देते थे। उन्होंने इनको “हथकरघा मां” का खिताब भी दिया।
लोहिया के साथ आजादी की जंग खासतौर से इलाहाबाद प्रवास तथा सोशलिस्ट तहरीक तथा बाद में एक विद्रोही विपक्षी नेता की भूमिका को बहुत गहराई से जांचते हुए उन्होंने लिखा “वे न केवल साहस के पारंपरिक अर्थों में बेहद निडर और शारीरिक संदर्भों में बहादुर थे, बल्कि बौद्धिक अर्थों में इससे कहीं बढ़कर थे। आजादी के बाद की लोहिया की सियासत पर कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने बहुत ही गहन परीक्षण से लिखा कि समय बीतने के साथ-साथ प्रशासन के प्रति उनका असंतोष बढ़ता गया। लोगों की बढ़ती हुई समस्याओं के सीधे अनुपात में उनकी पीड़ा भी बढ़ती गई। ऐसा नहीं है कि वह खुद को मसीहा समझते थे, लेकिन देश की जनता की आवाज उनकी कराहें और परेशानियाँ उनके लिए वास्तविकता थी। लेकिन उन राजनेताओं के प्रति जो इनका इस्तेमाल अपनी छवि निर्माण के लिए करते थे,उनके लिए उनकी आवाज अक्सर तिरस्कार से भरी होती थी।
उडुपी राजगोपालचार्य (यू. आर.) अनंतमूर्ति की पहचान, इंग्लैंड की बकिंघम में अंग्रेजी का अध्यापन करने से लेकर दो-दो विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बनने, यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी साहित्य में पीएचडी उपाधि ग्रहण करके बेंगलुरु यूनिवर्सिटी ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता, पदमभूषण से सम्मानित रहे व्यक्ति के रूप में नहीं उनकी पहचान कन्नड़ साहित्य के रचनाकार तथा खास तौर से उनके कालजयी उपन्यास   ‘संस्कार’ से है। समाजवादी विचार दर्शन, डॉ राममनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानने वाले अनंतमूर्ति ने लिखा है, डॉ राममनोहर लोहिया मेरी दृष्टि में एक असाधारण चिंतक और साहसी समाजवादी नेता थे। मैं उनका विद्यार्थी जीवन से ही प्रशंसक रहा हूं। आज भी उनकी अनेक प्रेरक स्मृतियां मेरे मन में जागृत रहती हैं। मैंने हमेशा  लोहिया को भारत की उस महान श्रमण परंपरा में आने वाले के रूप में देखा है। हमें इस सदी ने महात्मा गांधी और डॉक्टर लोहिया जैसे महापुरुष दिए हैं। अपने लेखन के संदर्भ में लोहिया से हुए विमर्श के संदर्भ में अनंतमूर्ति लिखते हैं, उस समय मैं उनसे 12वीं शताब्दी के कन्नड़ वचनकारों के राजनीतिक और आध्यात्मिक विद्रोह के बारे में बात करने गया था,
डॉक्टर लोहिया ने असाधारण उत्सुकता के साथ ब्राह्मण विद्रोही बसवा, जिन्होंने एक नीच जाति के व्यक्ति का विवाह ब्राह्मण कन्या से करवाया था और महिला संत अक्का महादेवी, जिन्होंने नग्न होकर पुरुषों के साथ अपनी आध्यात्मिक समानता का दावा किया था, के जीवन वृत्त के बारे में मेरी जानकारी की पड़ताल की थी। ये दोनों 12वीं शताब्दी के आंदोलनों के महान कवि थे। उस दिन लोहिया के सवालों और टिप्पणीय से इस आंदोलन के बारे में मेरी अपनी समझ और भी बढ़ गई थी।
लोहिया ने अपनी पुस्तक मार्क्स गांधी और समाजवाद में अपनी सहमति– असहमति दोनों को ईमानदारी से रखा है । अपने लेख में अन्य बातों के साथ-साथ तफसील से मार्क्स– गांधी पर लोहिया की दृष्टि का विश्लेषण किया है।
फाका मस्ती के साथ-साथ इंकलाबी जज्बे से भरे हुए उन दिनों के लोहिया के दोस्त सत्यव्रत सेन ने “मेरा मित्र” लेख में शुरू से लेकर आखिर तक उनके साथ बिताए गए दिनों को कलमबंद किया है। उन्होंने कुछ ऐसे किस्से भी बताएं जिन को पढ़कर आंखें नम हो जाती हैं। ऐसा ही एक उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा । ‘मैं यहां उनके पिता (लोहिया) से भी मिला। वे बहुत गरीब थे मुझे बहुत पसंद करते थे। मैं उनके बेटे के राजनीतिक कार्यों के लिए धन एकत्र करता था। वे प्रखर राष्ट्रवादी थे। उन्होंने 30 के दशक के पूर्वार्ध में गांधीजी के असहयोग आंदोलन के दौरान जेल की सजा काटी थी । मैं उनसे 1942 के आंदोलन के दौरान प्रेसिडेंसी जेल में दोबारा मिला। लगभग 2 साल तक हम एक ही जेल में रहे। जेल में 500 से अधिक राजनीतिक बंदियों द्वारा उनका सम्मान किया जाता था। वे सभी को प्रिय थे। वे सारा दिन हंसते और सबसे मजाक करते रहते थे। इस अत्याचार को समाप्त करने के लिए भगवान से गुहार लगाते थे। उस समय राममनोहर भूमिगत हो गए थे और पूरे देश में घूम रहे थे। वे भूमिगत रेडियो और “करो या मरो” नामक एक पत्र के प्रकाशन में व्यस्त थे। किसी को अंदाजा नहीं था कि पिता को बेटे की चिंता है। रात के अंधेरे में हीरालालजी मेरे पास आते और साजिशी लहजे में मुझसे पूछते, बेटा, तुम्हें मनोहर की खबर मिली क्या? 1945 में कुछ समय के लिए उन्हें रिहा किया गया और कुछ समय के बाद, अपने इकलौते बेटे की रिहाई से बहुत पहले, इस शहर में बस यात्रा के दौरान अचानक हृदय गति रुकने से उनकी मृत्यु हो गई। लोग समझते थे कि राममनोहर किसी धनी मारवाड़ी के पुत्र हैं।
कुछ दिन पहले जब वे यहां थे, तो उन्होंने मुझसे कहा था “तुम्हें पता है, सतु, मैंने अपना 57 वां साल पूरा कर लिया है। मेरे पिता और दादा दोनों का देहांत 57 वें साल में हो गया था।”
             (जारी-है)