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नहीं चाहिए कोई भी तानाशाह !

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जवाहर लाल नेहरू की 135 वी जयंती के बहाने !

सुरेश खैरनार 

जवाहर लाल नेहरू के मृत्यु की खबर 27 मई 1964 के दिन आने के समय मै ग्यारह साल का था ! और शिंदखेडा नामका धुळे जिला का तालुका की जगह है ! जो मेरी बुआ के घर मै गर्मी की छुट्टियां मनाने के लिए गया था ! और बुआजी ने फिलिप्स कंपनी का उस समय का अच्छा रेडियो खरीदा हुआ था ! तो 27 मई 1964 के दोपहर के दो बजने से पहले ही, अचानक ही रेडियो प्रसारण रोककर जवाहरलाल नेहरू की मृत होने की खबर प्रसारित होने की बात ! मैंने अपने कानों से सुनकर स्तब्ध हो गया था !
क्योंकि उसके कुछ समय पहले लोकसभा चुनावों में पिता स्वतंत्रता सेनानी और कांग्रेस के कमिटेड कार्यकर्ता होने के नाते ! मैं भी उनके साथ चुनाव प्रचार में गया था ! ( उन्हीकी देखा – देखी में खद्दर पहनने की शुरुआत की है !) और हमारे ही गांव के नजदीक के गांव में पिताजी की चुनावी सभा पर, विरोधी दल के लोगों ने हुडदंग मचा कर कुछ पथ्थरो को फेका गया था ! और उसमे से एक पथ्थर मेरी दाहिनी आंख के दाहिने कोने पर एक पथ्थर लगने से मै लहू-लुहान हो गया था ! कोई जल्दबाजी में कहीसे हल्दी की पावडर ले आया, और उस जगह भर कर कपड़े से बांध दिया ! उसके बाद क्या हुआ मुझे याद नहीं है ! शायद मैं बेहोश हो गया था !
तो जवाहरलाल नेहरू की भारत की तिसरी बार प्रधानमंत्री बनने के पहले, मेरे दाहिनी आंख कुछ अंश से बचने के कारण ! मै जख्म के साथ उनके इस दुनिया में न, रहने की खबर बहुत ही दुःखद और विलक्षण उत्सुकता के साथ सुन रहा था ! और बहुत अर्से तक मायूस रहा हूँ !
27 मई 1964 की वह दोपहर, और उसके बाद के कई दिनों तक मैंने मेरे दादा जी की मृत्यु के पश्चात, शायद यह पहला मौका था ! जिसके कारण मै बहुत ही दुखद मनस्थिती में काफी समय तक बना रहा ! और उस समय के दैनिक अखबार मराठी के नेहरूजी के संबंध में जो भी फोटो, जानकारी, खबरों को कैची से काटकर, अपनी नोटबुक में गोंद से चिपका के रखा था ! लेकिन सातवीं कक्षा के बाद पढ़ाई के लिए जगह बदलने के कारण, और ग्यारहवीं की परीक्षा के बाद तो एकदम अमरावती होमिओपॅथी मेडिकल कॉलेज मे दाखल होने के कारण ! मेरे कक्षा प्रथम से ग्यारहवीं तक के सभी जतनसे किए गए, संग्रह पंद्रहवे वर्ष की आयु में छुट गए ! जो आज 60 साल के बाद अचानक सब कुछ चलचित्र के जैसा दिखाई दे रहा है !
वजह गत दस सालों से वर्तमान समय में जवाहरलाल नेहरू की जगह पर बैठे महाशय ने ! जिस तरह से उनके मूर्ति भंजन का कार्यक्रम चला रखा है ! उसमें हमारे जैसे उम्र के, सोलह साल के बाद डॉ. राम मनोहर लोहिया के प्रभाव में जाने के कारण ! हम भी नेहरू विरोधी खेमे में काफी समय तक रहे हैं ! लेकिन संघ के लोग, और मुख्यतः वर्तमान समय के प्रधानमंत्री को, नेहरू फोबिया की बिमारी के कारण ! वह गाहे-बगाहे नेहरूजी की आलोचना करते हैं ! और हम खुद पच्चीस – तीस साल का हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय नेहरूजी के प्रति उपेक्षा का भाव लेकर चल रहे थे !
1985-86 के समय शाहबानो के मुद्दे से निकला हुआ जुमला संघ परिवार ने लपक लिया और ‘सवाल कानून का नहीं आस्था का है’ इस बात पर बाबरी मस्जिद राममंदिर के मुद्दे पर लालकृष्ण आडवाणी ने जो सोमनाथ से रथयात्राओका दौर शुरू किया था उसी रथयात्राओ में शिलापूजा को लेकर आयोजित की गई रथयात्रा के दौरान 24 अक्तुबर 1989 के दिन भागलपुर में हुए दंगे के बाद मुस्लिम समुदाय को पूरी तरह असुरक्षित मानसिकता में डालने का संघ का एकमात्र कार्यक्रम को देखते हुए ! मुझे मेरी समस्त मान्यताओं को खंगालने के लिए मजबूर होना पड़ा ! और महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू तथा रविंद्रनाथ टागौर और सभी महत्वपूर्ण सामाजिक – राजनीतिक नेताओं तथा विचारों को लेकर पुनर्विचार करने का मौका मिला ! और शायद आज जवाहरलाल नेहरू की 135 वी जयंती के बहाने मै प्रकट रूप से अपनी बात को स्वीकार करते हुए ! भारत जैसे बहुआयामी संस्कृति के देश को, 77 साल के आजादी तक एक सुत्र में बांधकर रखने के लिए सबसे पहले महात्मा गाँधी और दो नंबर पर जवाहरलाल नेहरू को श्रेय जाता है !
अन्यथा वर्तमान समय के सत्ताधारी दल ने कसम खाई है ! कि पचहत्तर साल के आजादी और 2025 के संघ स्थापना के सौ साल के दौरान ! इस बहुआयामी संस्कृति के देश को हिंदुराष्ट्र में तब्दील करने के लिए कोई कोर – कसर नहीं छोड़ेंगे !
बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद काशी, मथुरा और लगभग सभी मस्जिदों से लेकर कुतुबमीनार, ताजमहल, लाल किले से लेकर ! औरंगजेब तथा अन्य बादशाह के कार्यकाल के दौरान किए गए सभी इमारतों से लेकर, धार्मिक स्थलों पर संपूर्ण राजनीति करने का संघ का सौ साल पहले शुरूआत किया गया कार्यक्रम की, शुरुआत पहले आहिस्ता-आहिस्ता, और अब जोर – शोर से !
और इसी कारण महात्मा गाँधी जी के सहिष्णुता तथा जवाहरलाल नेहरू के सेक्युलरिज्म के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करने के कारण ही ! देश की स्वतंत्रता के 77 साल बाद भी एकता और अखंडता को विशेष नुकसान नहीं हुआ है !
लेकिन वर्तमान समय में भारत की सत्ताधारी भाजपा और उनके मातृ संघठन आर. एस. एस. के फासीस्ट विचार धारा के साथ मिलकर ! मिडिया संस्थाओं ने ठान लिया है कि इस देश को हिंदुराष्ट्र में परिवर्तित करने के लिए गत 10 साल से लगातार कोशिश कर रहे हैं !
इसलिये बटवारे के दौरान पंजाब या दिल्ली, कलकत्ता के दंगों में खुद अपनी लाठी भांजते हुए भीड़ को ललकारने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू कहां, और 27 फेब्रुवारी 2002 के दिन साबरमती एक्सप्रेस में एस- 6 कोच में की गई जलाने की घटना के बाद, 200 किलोमीटर दूर स्थित गोधरा में दौडकर जाने वाले वर्तमान प्रधानमंत्री ने अहमदाबाद के सड़कों पर जूलूस निकालने के लिए विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष जयेश पटेल के कब्जे में 59 अधजली लाशों को ( तत्कालीन गोधरा की कलक्टर जयती वी रवी के विरोध के बावजूद ! ) जुलूस निकालने के लिए सौपने वाले श्री. नरेंद्र दामोदरदास मोदी ! और उसके बाद खुद सेना को गुजरात की कानूनी व्यवस्था बनाए रखने के लिए हमारे सेना को पत्र लिखकर बुलाने वाले लेकिन उसी सेना को तीन दिन तक अहमदाबाद के एअरपोर्ट के बाहर नहीं निकल देने वाले को ! ( सरकारी मुसलमान किताब के लेखक, लेफ्टिनेंट जनरल जमीरूद्दीन शाह ने खुद यह तथ्य बताया है ! ) जवाहरलाल नेहरू का द्वेष करना स्वाभाविक है !
और मेरी अपनी राय है की भारत के बटवारे के लिए भी इसी तरह की हरकतों को करने वाले दोनों समुदाय के लोगों के कारण हमारे देश का बटवारा हुआ है !
अगर भारत का बटवारा नही हुआ होता तो नरेंद्र मोदी को आर. एस. एस. की प्रार्थना ‘नमस्ते सदा वत्सले गाते हुए,’ और आर एस एस की गतिविधियों के अलावा कोई और काम करने के लिए नही रहा होता !
संघ एक षडयंत्र के तहत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से अलग रहा है ! उल्टा अंग्रेजों की सेना, पुलिस में भर्ती से लेकर खुफिया एजेंसी फिर आई बी हो या सीआईडी और आजकल के नये एन आई ए से लेकर सीबीआई, इडी जैसे महत्वपूर्ण जांच एजेंसियों को पोपट बोलने वाले लोग ( कांग्रेस के सत्ता के समय ) और अब उन्हें अपने हिसाब से इस्तेमाल कर रहे हैं ! और मुख्यतः अपने विरोधियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिये इस्तेमाल कर रहे हैं !
और सबसे संगीन बात अबतक एजेंसियों के मदद से कश्मीर में सरकारों को बनाने और गिराने के किस्से कहानियों को सुनने में आये थे ! लेकिन भारत में अपने विरोधियों की सरकारों को गिराने के लिए धड़ल्ले से महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की सरकारों को बनाने – बिगाड़ने के लिए इन सब एजेंसियों की मदद लेकर सरकारे बनाने के बाद ! हमारे देश की चुनाव प्रणाली एक दिखावा बनकर रह गई हैं ! और सबसे ज्यादा राज्यपाल लोगों ने तो राजभवन बीजेपी के दफ्तर बनाकर रख दिए हैं ! कोई भी राज्यपाल विरोधी दलों की सरकारों के साथ रत्तीभर का सहयोग नहीं कर रहे हैं !
और आजादी के सतहत्तर साल में यह संविधानिक संस्थाओं को अपने मनमर्जी के निर्णय लेने के लिए मजबूर करने के उदाहरण देखने के बाद न्यायालय, पुलिस, प्रशासनिक क्षेत्र के उपरसे विश्वास खत्म होने की संभावना दिन – प्रतिदिन बनती जा रही है !
इसी परिप्रेक्ष्य में जवाहरलाल नेहरू की विरासत पुनः – पुनः याद आती है !
जिस आदमी ने अपनी लोकप्रियता को देखते हुए उसके खतरों के प्रति भलीभांति परिचित होने के कारण ” नही चहीए कोई तानाशाह” लेख चाणक्य छद्म नाम से केवल साथी देश वासीयो के लिए नही, खुद को भी इन खतरों से आगाह करने के लिए ही लिखा था ! और उल्टा अशिष नंदी ने गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एक अंग्रेजी पत्रिका में प्रकाशित किया था ! तो मोदीजी ने कुछ करोड़ रुपये का दावा ठोक दिया है ! ( पता नहीं उस केस का क्या हुआ ? )
उनके लिए लोकतंत्र केवल शासन – व्यवस्था नहीं, एक संस्कार था, जिसे शासन से लेकर सामाजिक मानस तक में शामिल होना चाहिए ! वे स्वयं को देश का प्रधान सेवक मानते थे ! नियमित पत्रकार वार्ताओ के साथ ही, नेहरू हर महीने मुख्यमंत्रीयो को चिठ्ठीया लिखा करते थे, राष्ट्रीय – आंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम के साथ इन चिठ्ठीयो में संस्कृति और कला के बारे में सरकार की जिम्मेदारी जैसे विषयों पर भी विचार – विमर्श करते थे ! उनके बाद मुख्यमंत्रीयो को प्रधानमंत्री द्वारा नियमित पत्र लिखने का सिलसिला समाप्त हो गया ! पिछले 10 साल में तो भारतीय प्रधानमंत्री की पत्रकारवार्ता तक अकल्पनीय हो गई है ! उनके इंटरव्यू तीखे प्रश्नों के सटीक उत्तरों के लिए नही, आम चूसकर खाये जाए या काटकर ? जेब में बटुआ रखते या नहीं ? न थकने के लिए टॉनिक लेते है क्या ? सरीखे मार्मिक प्रश्नों के सुंदर उत्तरों के लिए चर्चित होते हैं !
यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि यह स्थिति अपने आप में नहीं पैदा हो गई है ! व्यवस्थित प्रयत्न के जरिये बनाई गई है ! कि टीवी पर होने वाली बहसें मुहल्ले के चौराहे पर होने वाले झगड़ो और स्टैंड – अप कॉमेडी, बल्कि हॉरर शो से होड ले रही है ! सरकार से जवाबदेही की उम्मीद करना लोकतांत्रिक अधिकार नहीं, महापाप मान लिया गया है ! इस बात को भुला देने की पुरजोर कोशिश की जा रही है कि ! लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं, बल्कि संस्थाओं, मर्यादाओं और परंपराओं के आधार पर चलने वाली व्यवस्था है, यह अल्पमत के साथ सम्मानपूर्वक संवाद करनेवाली व्यवस्था है, बहुमत को मनमानी की छुट देनेवाली व्यवस्था या साधनसंम्पन्न लोगों के मनोरंजनार्थ चलनेवाली डिबेटिंग सोसायटी नही है !
विडम्बना यह है कि लोकतंत्र को बोझ या बस संख्याओं का खेल समझनेवाले एस्पिरेशनल मिडिल क्लास का इतनी तेजी से विस्तार कांग्रेस सरकार द्वारा अपनाई गई उदारीकरण, निजीकरण की विकासपरक नीतियों के फलस्वरूप ही हुआ है ! लेकिन क्या निजीकरण, उदारीकरण के साथ ही लोकतंत्र का महत्व समझनेवाले;भारतीय समाज की बहुलता, विविधता में एकता का सम्मान करनेवाले सामाजिक मानस को बनाए रखना, इन चिजो को नई पीढ़ी का संस्कार बनाना भी उतना ही जरूरी नहीं था ?
इस सवाल को पुछे बीना यह समझना असंभव है कि क्योंकर भारतीय लोकतंत्र तेजी से कोरी औपचारिकता और बहुमतवाद में बदलता जा रहा है ! नई पीढ़ी के मानस से नेहरू की स्मृतियाँ, उनके योगदान का बोध गायब क्यों होता जा रहा है ? यह सवाल नेहरू की पार्टी, कांग्रेस, को तो अपने आप से पुछना ही होगा, उन्हें भी पुछना होगा जो भारतीय लोकतंत्र का महत्व समझते हैं, उसे बचाएं रखना चाहते हैं ! उन्ही मे से बहुत लोगो को 2014 तक यकीन था कि भारतीय लोकतंत्र का संस्थागत आधार इतना मजबूत हो चुका है कि तानाशाही मिजाज इसे  कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता है ! 2015 में एक टीवी डिबेट में यह कहने पर कि ‘वर्तमान प्रधानमंत्री को आपातकाल की औपचारिक घोषणा की जरूरत ही नहीं  है, वे और उनके समर्थक ऐसा किसी घोषणा के बिना ही भय का वातावरण बना देने में सक्षम है’ भाजपा के प्रवक्ता ही नहीं, लिबरल, लोकतांत्रिक तबकों में परम लोकप्रिय एंकर साहब भी कुपित हो गए थे ! वे ही क्या, देश – विदेश के अग्रणी विद्वान भी आश्वस्त थे कि भारतीय लोकतंत्र की संस्थाएँ इतनी मजबूत हो चुकी है कि तानाशाही मिजाज की प्रतिष्ठा अब असंभव है !
पिछले कुछ सालों में घटनाक्रम ने इस यकीन की सीमाओं को उजागर कर दिया है ! और हमारा चुनाव आयोग, हमारे संसद में पारित होने वाले बील, और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हमारी न्यायव्यवस्था किस तरह बहुसंख्यक समुदाय के दबाव में फैसले लेने लगी है ! और उसे सही ठहराने वाले विद्वान ! एक तरह से यह देश अघोषित हिंदुराष्ट्र बनते जा रहा है ! और आज जवाहरलाल नेहरू की स्मृति में यह वास्तव में हम आप को सिर्फ उनके नाम के कशिदे पढकर एक कर्मकाण्ड करने के बजाय सही मायने में सेक्युलर, समाजवादी भारत के निर्माण हेतु संकल्प के साथ मैदान में उतर कर इन फिरकापरस्त ताकतों का मुकाबला करने का संकल्प लेकर अपने आप को झोंकने की कसम खाने की आवश्यकता है !